सोमवार, 25 जून 2018

भगवान शिव के 19 अवतार



शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है। लेकिन बहुत ही कम लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव के 19 अवतार हुए हैं।

1- वीरभद्र अवतार :- शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रकट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।

2- पिप्पलाद अवतार :- मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना।
पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।

3- नंदी अवतार :- भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है-
शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।

4- भैरव अवतार :-शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ।
ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवें सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवां सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए।
तब काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।

5- अश्वत्थामा :- महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार हैं।
आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मे अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं।
शिवमहापुराण(शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं। वैसे, उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

6- शरभावतार :- भगवान शंकर का छठे अवतार हैं शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था।
इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके अनुसार हिरण्यकश्पू का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकश्यपू के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे।
तब भगवान शिव शरभ के रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।

7- गृहपति अवतार :- भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं।
शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मती गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं पितामह ब्रह्म ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।

8- ऋषि दुर्वासा :-भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया।
उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोक में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए, जो देवताओं द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर उससे प्रकट हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्त उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
अत्रि की पत्नी अनुसूइया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चंद्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमश: भगवान विष्णु, शंकर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे।

9- हनुमान :- भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था।
शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहीत कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।

10- वृषभ अवतार :- भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था।
धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु जी ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए, जिन्होंने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।

11- यतिनाथ अवतार :- भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया है। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी।
भील दम्पत्ति को अपने प्राण गंवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक को मार डाला है।
इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।

12- कृष्णदर्शन अवतार :- भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए। जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गया। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके उनके धन को प्राप्त करे।
तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा।
नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।

13- अवधूत अवतार :- भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए।
इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उसका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा।
इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्यों ही उसका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

14- भिक्षुवर्य अवतार:- भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी ही हैं। भगवान शंकर का भिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया।
तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची। तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उसे बालक का पालन पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।

15- सुरेश्वर अवतार :- भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है।
इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था।
वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा। शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ।
उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का पद भी दिया।

16- किरात अवतार :- किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा।
वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया। उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव की माया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाया और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगा।
इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।

17- सुनटनर्तक अवतार :- पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था। हाथ में डमरू लेकर जब शिवजी हिमाचल के घर पहुंचे तो नृत्य करने लगे।
नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया।

18- ब्रह्मचारी अवतार :- दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया।
पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।

19- यक्ष अवतार :- यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था।
धर्म ग्रंथों के अनुसार देवताओं व असुरों द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कंठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए, साथ ही उन्हें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोड़ने के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा।
अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी।

मंगलवार, 19 जून 2018

शिवपुराण क्या है?




सभी पुराणों में शिव पुराण को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। शिव पुराण का सम्बन्ध शैव मत से है। शिव पुराण में भगवान शंकर के बारे में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। शिवमहापुराण में भगवान शिव और देवी पार्वती के बारे में और उनकी गाथा का विवरण पूर्ण रूप से दिया गया है।

शिवपुराण में शिव की महिमा

शिवपुराण में शिव के कल्याणकारी स्वरूप का तात्त्विक विवेचन, रहस्य, महिमा और उपासना का विस्तृत वर्णन है। इसमें इन्हें पंचदेवों में प्रधान अनादि सिद्ध परमेश्वर के रूप में स्वीकार किया गया है। शिव-महिमा के अतिरिक्त इसमें पूजा-पद्धति, अनेक ज्ञानप्रद आख्यान और शिक्षाप्रद कथाओं का सुन्दर संयोजन और भगवान शिव के भव्यतम व्यक्तित्व का गुणगान है। माना जाता है कि जो भी इस शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव की पूजा करता है या फिर इस शिवपुराण का पाठ करता है, करवाता है और पूरी श्रद्धा के साथ शिव पुराण के पाठ को सुनता है भगवान शिव उसका कल्याण करते हैं। महाशिवरात्री के अवसर पर इसका पाठ करवाना बहुत ही लाभकारी व फलदायक माना जाता है।

शिव पुराण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण

शिव - जो स्वयंभू हैं, शाश्वत हैं, सर्वोच्च सत्ता है, विश्व चेतना हैं और ब्रह्माण्डीय अस्तित्व के आधार हैं। सभी पुराणों में शिव पुराण को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होने का दर्जा प्राप्त है। इसमें भगवान शिव के विविध रूपों, अवतारों, ज्योतिर्लिंगों, भक्तों और भक्ति का विशद् वर्णन किया गया है।

शिव पुराण में खास

इस पुराण में प्रमुख रूप से शिव-भक्ति और शिव-महिमा का प्रचार-प्रसार किया गया है। प्राय: सभी पुराणों में शिव को त्याग, तपस्या, वात्सल्य तथा करुणा की मूर्ति बताया गया है। किन्तु 'शिव पुराण' में शिव के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए उनके रहन-सहन, विवाह और उनके पुत्रों की उत्पत्ति के विषय में विशेष रूप से बताया गया है।

शिवमहापुराण में श्लोक और स्कंध

इसमें भगवान शिव और देवी पार्वती की गाथा का पूर्ण विवरण है जो कुल 12 स्कंध भागों में बंटा हुआ है। शिवपुराण के हर स्कंध में शिव के अलग-अलग रूपों और उसकी माहिमा आदि का वर्णन है।
इस पुराण में 2 4 ,000 श्लोक है तथा इसके क्रमश: 6 खण्ड हैं - 1. विद्येश्वर संहिताच; 2. रुद्र संहिता; 3. कोटिरुद्र संहिता; 4. उमा संहिता; 5. कैलास संहिता; 6. वायु संहिता।

खण्ड शिवपुराण के 10 स्कन्द और उनका वर्णन

1. शिवपुराण के पहले स्कंध में शिवपुराण की महिमा का वर्णन है।
2. शिवपुराण के दूसरे स्कंध में शिवलिंग की पूजा और उसके प्रकार का वर्णन है जिससे विद्येश्वर संहिता नाम से      जाना जाता है।
3. शिवपुराण के तीसरे स्कंध के पार्वती खंड में शिव-पार्वती की कथा का वर्णन है।
4. शिवपुराण के चौथे स्कंध कुमार खंड में कार्तिकेय भगवान की कथा का वर्णन है।
5. शिवपुराण के पांचवे स्कंध युद्ध खंड में शिव जी द्वारा त्रिपुरासुर वध की कथा का वर्णन है।
6. शिवपुराण के छठे स्कंध शतरुद्रसंहिता में शिव के अवतारों और शिव की मूर्तियों का वर्णन है।
7. शिवपुराण के सातवें स्कंध कोटि रुद्र संहिता में द्वादश ज्योतिर्लिंग और शिव सहस्त्रनाम का वर्णन है।
8. शिवपुराण के आठवे स्कंध उमा संहिता में मृत्यु और नरकों और क्रियायोग का वर्णन है।
9. शिवपुराण के नवें स्कंध वायवीय संहिता पूर्व खंड में शिव के अर्धनारीश्वर स्वरुप का वर्णन है।
10. शिवपुराण के दसवे स्कंध वायवीय संहिता के उत्तरखंड में शिव धर्म और शिव-शिवा की विभूतियों का वर्णन है।

शिवपुराण पूजा विधि

पूजा के दिन प्रात: स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत होकर पवित्र हो जायें तत्पश्चात पूजास्थल पर भगवान शिव, माता पार्वती और नंदी को पवित्र जल अर्पित करें। शिवलिंग पर मिट्टी के बर्तन में पवित्र जल भरकर ऊपर से बिल्वपत्र, आक व धतूरे के पुष्प, चंदन, चावल आदि के साथ चढायें। यदि नजदीक कोई शिवालय न हो तो शुद्ध गीली मिट्टी से ही शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा भी की जा सकती है। महाशिवरात्रि पर व्रत के साथ रात्रि जागरण करना चाहिये व शिवपुराण का पाठ सुनना चाहिये। अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बिल्वपत्र का हवन करके व्रत को समाप्त करना चाहिये।

शिवपुराण पूजा के दौरान इन बातों का भी रखें ध्यान

जो भी शिवपुराण कथा करता है उसे कथा प्रारंभ करने से एक दिन पहले ही व्रत रखने के लिये बाल, नाखून इत्यादि कटवा लेने चाहिये। क्योंकि कथा समाप्ति तक किसी भी प्रकार का क्षौर कर्म नहीं किया जाता। कथा सुनने वाले भी ध्यान रखें कि देर से पचने वाला अर्थात दाल, तला हुआ भोजन, मसूर, बासी अन्न आदि खाकर भी शिवपुराण को नहीं सुनना चाहिये। कथा श्रोताओं को सबसे पहले कथा वाचक से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये। दीक्षा लेने के बाद ब्रह्मचर्य का पालन करना, जमीन पर सोना, पत्तल में खाना और प्रतिदिन कथा समाप्त होने के बाद ही भोजन करना चाहिये। शिवपुराण कथा का व्रत जो भी लेता है उसे दिन में एक ही बार जौ, तिल या चावल का भोजन ग्रहण करना चाहिये, जिसने सिर्फ कथा सुनने के लिये व्रत किया हो वह प्याज, लहसुन, हींग, गाजर, मादक वस्तुओं का सेवन न करे। कथा करने वाला काम क्रोध से बचे, ब्राह्मण व साधु-संतो की निंदा भी उसे नहीं करनी चाहिये। गरीब, रोगी, पापी भाग्यहीन एवं नि:संतानों को शिवपुराण की कथा जरुर सुननी चाहिये। कथा समाप्ति को एक उत्सव के रुप में मनाना चाहिये भगवान शिव व शिवपुराण की पूजा करनी चाहिये, कथावाचक की पूजा कर उन्हें दान-दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिये। कथा सुनने आये ब्राह्मणों का भी आदर सत्कार कर उन्हें भी दान-दक्षिणा दी जानी चाहिये।

शिव पुराण को पढ़ने का लाभ

शिवपुराण के आरंभ में पुराण विशेष की महिमा और उसके पढ़ने की विधि के बारे में जानकारी दी गयी है।
जो व्यक्ति शिवपुराण को पढ़ता है उससे भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
अगर किसी व्यक्ति से अनजाने या जान-बूझकर कोई पाप हो जाए तो तो अगर वो शिवपुराण को पड़ने लगता है तो उसका घोर से घोर पाप से छुटकारा मिल जाता है।
जो व्यक्ति शिवपुराण को पढ़ने लगते है उनके मृत्यु के बाद शिव के गण लेने आते हैं।सावन में शिव पुराण का पाठ करने से उसका फल बहुत ही सुखदायी होता है।

रविवार, 10 जून 2018

भोलेनाथ के 9 प्रतीकों का रहस्य



 पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव रूप अनेकों प्रतीकों का योग है। भोलेनाथ के शरीर पर हर एक आभूषण का एक विशेष प्रभाव तथा महत्व है। भगवान के इन प्रतीकों में कई सारे रहस्य छुपे हुए है जिन्हे आप अवश्य ही जानना चाहेंगे। आईये जानते है इसके पीछे का सत्य।

भगवान शिव के 9 प्रतीक


भगवान शिव के नौ प्रतीक हैं। उनके आस-पास का हर एक वस्तु या उनके शरीर का आभूषण कोई न कोई सन्देश देता है। आइए, साल 2018 में महाशिवरात्रि के मौक़े पर जानते हैं रुद्र से जुड़े 9 प्रतीकों को–

पैरों में कड़ामृगछालारुद्राक्षनागदेवताखप्परडमरूत्रिशूलशीश पर गंगाचन्द्रमा

शिव जी के नौ प्रतीकों का महत्व, रहस्य और प्रभाव।

  • पैरों में कड़ा – शिवजी के पैरों में कड़ा अपने स्थिर तथा एकाग्रता सहित सुनियोजित चरणबद्ध स्थिति को दर्शाता है। योगीजन और अघोरी भी शिव की तरह अपने एक पैर में कड़ा धारण करते है।

  • मृगछाल – मृगासन या मृगछाल के आसन को साधना और तपस्या के लिए श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि इस पर बैठ कर साधना का प्रभाव बढ़ता है। यही नही इस पर बैठने से मन की अशांति और अस्थिरता दूर होती है।

  • रुद्राक्ष– यह एक फल की गुठली है जिसका उपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में किया जाता है। कहा जाता है इसकी उत्पत्ति भगवान शिव के आँखों से निकले हुए आंसू से हुई थी। इसे धारण करने से नकारात्मकता दूर होती है और सकारात्मक ऊर्जा मिलती है।

  • नागदेवता – जब अमृत मंथन हुआ था तब अमृत कलश के पूर्व विष को भोलेनाथ ने अपने कंठ में रखा था। विकार की अग्नि को दूर करने के लिए शिव जी ने विषैले सांपों की माला को पहना।

  • खप्पर– भगवान भोलेनाथ ने समस्त प्राणियों की क्षुधा को शांत करने के लिए माता अन्नपूर्णा से भीख मांगी थी। इसका अर्थ यह है कि अगर आपसे किसी का भला होता है तो अवश्य ही उसकी मदद करनी चाहिए।

  • डमरू – यह संसार का सबसे पहला वाघ है। क्योंकि इससे वेदों के शब्दों की उत्पत्ति हुई थी इसलिए इसे नाद ब्रहम या स्वर ब्रह्म कहा गया है।

  • त्रिशूल – यह संसार का सबसे परम तेजस्वी अस्त्र है जिसमे माता जगदंबा की परम शक्ति है। त्रिशूल से ही सारे राक्षसों का अंत किया गया है। इसमें राजसिक, तामसिक और सात्विक तीनों ही गुण समाहित है।

  • शीश पर गंगा – भगवान शिव ने गंगा को अपने जटाओं में बाँध कर यह सन्देश दिया है कि आवेग की अवस्था को दृढ संकल्प के माध्यम से संतुलित किया जा सकता है।

  • चन्द्रमा – चन्द्रमा आभा, प्रज्वल, धवल स्थितियों को प्रकाशित करता है, जिससे मन में शुभ विचार उत्पन्न होते हैं। अपनी इन्ही अच्छे विचारों और सकारात्मक सोच के साथ मनुष्य आगे बढ़े और समस्त संसार का कल्याण हो।

मंगलवार, 5 जून 2018

आदि शक्ति ( देवी सती ) के 52 शक्ति पीठ







आदि शक्ति ( देवी सती ) के 52 शक्ति पीठ

1 - अट्टहास शक्तिपीठ (बीरभूम,पश्चिम बंगाल) होंठ
2 - बहुला शक्तिपीठ (बर्दवान,पश्चिम बंगाल ) बाया बाहु
3 - बाकरेशवर शक्तिपीठ (बीरभूम,पश्चिम बंगाल) मन
4- कालीपीढ शक्तिपीठ (कालीगढ,पश्चिम बंगाल) बाएं पैर की ऊंगलिया
5 - कंकालेशवरी शक्तिपीठ (बीरभूम,पश्चिम बंगाल) हडियां
6 - किरीट शक्तिपीठ ( मुरशिदाबाद, पश्चिम बंगाल ) मुकुट
7 - आनंदमय शक्तिपीठ ( हुगली, पश्चिम बंगाल ) दायिना कंधा
8 - नंदीकेशवरीय शक्तिपीठ (बीरभूम,पश्चिम बंगाल) कण्ठहार
9 - उज्जैनी शक्तिपीठ ( बर्दवान, पश्चिम बंगाल ) कुहनी
10 - विभाष शक्तिपीठ (मेदिनीपुर,पश्चिम बंगाल) बाया टखना
11- जुगादया शक्तिपीठ (बर्दवान,पश्चिम बंगाल) दाहिने पैर का अंगूठा
12 - भरमरी शक्तिपीठ (जलपायगुडी,पश्चिम बंगाल) बाया पैर
13- ज्वालामुखी शक्तिपीठ ( कांगडा, हिमाचल प्रदेश ) जीभ
14 - नैना देवी शक्तिपीठ ( बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश ) नयन
15 - चिंतामणी शक्तिपीठ ( उना, हिमाचल प्रदेश ) दोनो पैर
16 - करनाट शक्तिपीठ ( कांगडा, हिमाचल प्रदेश ) दोनों कान
17 - कात्यायनी शक्तिपीठ ( वृंदावन, उतर प्रदेश ) केशपाश
18- आलोपी शक्तिपीठ ( इलाहाबाद ,उत्तर प्रदेश ) हाथ की अंगुलियों
19- चित्रकूट शक्तिपीठ ( झांसी, उत्तर प्रदेश) दाहिना सतन
20- मणिकर्णिका शक्तिपीठ ( वाराणसी, उत्तर प्रदेश ) दाहिने कान की मणि
21- गंडकालिका शक्तिपीठ ( उज्जैन, मध्य प्रदेश) उफध्र्व ओष्ठ
22- काल माधव शक्तिपीठ ( अमरकंटक,मध्य प्रदेश ) वाम नितम्ब
23- शोण शक्तिपीठ ( अमरकंटक,मध्यप्रदेश ) दक्षिण नितम्ब
24 - शिरिसेलम शक्तिपीठ ( करनूल, आंध्र प्रदेश ) ग्रीवा
25 - कुटीलिगंशेवर शक्तिपीठ (राजमुंदरी,आंध्र प्रदेश ) दाया टखना
26- अंबा जी शक्तिपीठ ( बनस कंठ, गुजरात ) दिल
27 - प्रभास शक्तिपीठ ( जुनागड, गुजरात ) उदर
28- कन्या श्रम शक्तिपीठ ( कन्याकुमारी, तमिलनाडु ) पीठ
29 - सुच्चिदंरम शक्तिपीठ ( कन्याकुमारी, तमिलनाडु ) उफध्र्वदन्त
30 - दंतेशवरी शक्तिपीठ ( दंतेवाडा, छत्तीसगढ ) नीचे के दांत
31 -चामुंडा शक्तिपीठ ( पुष्कर,राजस्थान ) कलाइयाँ
32 - विराट अम्बिका शक्तिपीठ ( भरतपुर, राजस्थान ) दाये पाव की ऊंगलियों
33 - बिराजा शक्तिपीठ, (याजपुर, उडीसा ) नाभि
34 -थानेशर शक्तिपीठ ( कुरुक्षेत्र, हरियाणा ) दाहिने चरण की हड्डी
35 -त्रिपुरी शक्तिपीठ ( राध किशोर ग्राम त्रिपुरा ) दक्षिण पाद
36- जालंधर शक्तिपीठ ( जालंधर, पंजाब ) बाया स्तन
37 - पटनेशवरी शक्तिपीठ ( पटना,बिहार ) दाहिनी जंघा
38 - वैघनाथ शक्तिपीठ ( देवघर, झारखंड ) हृदय
39 - कामख्या शक्तिपीठ ( गुवाहाटी, आसाम ) योनी
40- भद्रकाली शक्तिपीठ (नासिक, महाराष्ट्र ) ठुड्डी
41 -नरतिंयाग शक्तिपीठ (जंयती पहाडी, मेघालय ) बाया जंघा
42- अमरनाथ शक्तिपीठ, ( पहलगांव, कशमीर ) कंठ
43- मिथिला शक्तिपीठ ( जनकपुर, नेपाल ) वाम स्कंध्
44 - गोहयेशवरी शक्तिपीठ ( पशुपतिनाथ,नेपाल ) दोनो घुटने
45 - गंडकी शक्तिपीठ ( पोखरा, नेपाल ) कपोल
46 -हिंगलाज शक्तिपीठ ( बलुचिस्तान, पाकिस्तान ) सिर का उपरी भाग
47 - भभानीपुर शक्तिपीठ ( शेरपुर, बांग्लादेश ) बाया टखना
48- सुंगध शक्तिपीठ ( खुलना, बांग्लादेश) नासिका
49 - यशोरेशवरी शक्तिपीठ ( खुलना बांग्लादेश ) बायीं हथेली
50 - चट्टल शक्तिपीठ ( चिंटगाव, बांग्लादेश ) दाहिना बाहु
51 - लंका शक्तिपीठ ( श्रीलंका ) नुपुर, घुँघरू
52- मानस शक्तिपीठ ( मानसरोवर, तिब्बत) दाहिना हथेली का निपात


ये सारे वो स्थान है, जहाँ देवी सती की मृत्यु के पश्चात्‌ उनके अंग और आभुषण गिरे थे।