सोमवार, 30 जुलाई 2018

सावन (श्रावण) सोमवार व्रत कथा


सावन (श्रावण) सोमवार व्रत कथा, व्रत विधि | हिन्दू धर्म में सावन का महीना (श्रावण मास) बड़ा ही पवित्र माना जाता हैं। चूँकि सावन का महीना भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है इसलिए भोले के भक्तों के लिए भी यह महीना बड़ा ही विशेष है। स्कंद पुराण के अनुसार जब सनत कुमार ने भगवान शिव से पूछा कि आपको श्रावण मास इतना प्रिय क्यों है? तब शिवजी ने बताया कि देवी सती ने भगवान शिव को हर जन्म में अपने पति के रूप में पाने का प्रण लिया था। लेकिन अपने पिता दक्ष प्रजापति के भगवान शिव को अपमानित करने के कारण देवी सती ने योगशक्ति से शरीर त्याग दिया।इसके पश्चात उन्होंने दूसरे जन्म में पार्वती नाम से राजा हिमालय और रानी नैना के घर जन्म लिया। उन्होंने युवावस्था में श्रावण महीने में ही निराहार रहकर कठोर व्रत द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न कर उनसे विवाह किया।


सावन (श्रावण) सोमवार व्रत कथा

किसी नगर में एक व्यापारी रहता था। उसके पास बेशुमार धन थे लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी जिस वजह से वह बेहद दुखी था। पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार व्रत रखता था और पूरी श्रद्धा के साथ शिवालय में जाकर भगवान शिव और पार्वती जी की पूजा करता था।

उसकी भक्ति देखकर मां पार्वती प्रसन्न हो गई और भगवान शिव से उस साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का निवेदन किया। पार्वती जी की इच्छा सुनकर भगवान शिव ने कहा कि “हे पार्वती। इस संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों के अनुसार फल मिलता है और जिसके भाग्य में जो हो उसे भोगना ही पड़ता है।” लेकिन पार्वती जी ने साहूकार की भक्ति का मान रखने के लिए उसकी मनोकामना पूर्ण करने की इच्छा जताई। माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति का वरदान तो दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उसके बालक की आयु केवल बारह वर्ष होगी।

माता पार्वती और भगवान शिव की इस बातचीत को साहूकार सुन रहा था। उसे ना तो इस बात की खुशी थी और ना ही गम। वह पहले की भांति शिवजी की पूजा करता रहा। कुछ समय उपरांत साहूकार के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए काशी भेज दिया गया।

साहूकार ने पुत्र के मामा को बुलाकर उसे बहुत सारा धन दिया और कहा कि तुम इस बालक को काशी विद्या प्राप्ति के लिए ले जाओ और मार्ग में यज्ञ कराओ। जहां भी यज्ञ कराओ वहीं पर ब्राह्मणों को भोजन कराते और दक्षिणा देते हुए जाना।

दोनों मामा-भांजे इसी तरह यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते काशी की ओर चल पड़े। रास्ते में एक नगर पड़ा जहां नगर के राजा की कन्या का विवाह था। लेकिन जिस राजकुमार से उसका विवाह होने वाला था वह एक आंख से काना था। राजकुमार के पिता ने अपने पुत्र के काना होने की बात को छुपाने के लिए एक चाल सोची। साहूकार के पुत्र को देखकर उसके मन में एक विचार आया। उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं। विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर ले जाऊंगा।

लड़के को दूल्हे का वस्त्र पहनाकर राजकुमारी से विवाह कर दिया गया। लेकिन साहूकार का पुत्र एक ईमानदार शख्स था। उसे यह बात न्यायसंगत नहीं लगी। उसने अवसर पाकर राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिखा कि “तुम्हारा विवाह मेरे साथ हुआ है लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें भेजा जाएगा वह एक आंख से काना है। मैं तो काशी पढ़ने जा रहा हूं।”

जब राजकुमारी ने चुन्नी पर लिखी बातें पढ़ी तो उसने अपने माता-पिता को यह बात बताई। राजा ने अपनी पुत्री को विदा नहीं किया जिससे बारात वापस चली गई। दूसरी ओर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने यज्ञ किया। जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई उसी दिन यज्ञ रखा गया। लड़के ने अपने मामा से कहा कि मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। मामा ने कहा कि तुम अन्दर जाकर सो जाओ।

शिवजी के वरदानुसार कुछ ही क्षणों में उस बालक के प्राण निकल गए। मृत भांजे को देख उसके मामा ने विलाप शुरू किया। संयोगवश उसी समय शिवजी और माता पार्वती उधर से जा रहे थे। पार्वती ने भगवान से कहा- प्राणनाथ, मुझे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहा। आप इस व्यक्ति के कष्ट को अवश्य दूर करें| जब शिवजी मृत बालक के समीप गए तो वह बोले कि यह उसी साहूकार का पुत्र है, जिसे मैंने 12 वर्ष की आयु का वरदान दिया। अब इसकी आयु पूरी हो चुकी है। लेकिन मातृ भाव से विभोर माता पार्वती ने कहा कि हे महादेव आप इस बालक को और आयु देने की कृपा करें अन्यथा इसके वियोग में इसके माता-पिता भी तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया| शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया। शिक्षा समाप्त करके लड़का मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिए। दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था। उस नगर में भी उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया। उस लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और महल में ले जाकर उसकी आवभगत की और अपनी पुत्री को विदा किया।

इधर भूखे-प्यासे रहकर साहूकार और उसकी पत्नी बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो वह भी प्राण त्याग देंगे परंतु अपने बेटे के जीवित होने का समाचार पाकर वह बेहद प्रसन्न हुए। उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- हे श्रेष्ठी, मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लम्बी आयु प्रदान की है। इसी प्रकार जो कोई सोमवार व्रत करता है या कथा सुनता और पढ़ता है उसके सभी दुख दूर होते हैं और समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।


शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

क्यों चढ़ाते है शनि देव को तेल, क्या रखे सावधानी?



कथा इस प्रकार है शास्त्रों के अनुसार रामायण काल में एक समय शनि को अपने बल और पराक्रम पर घमंड हो गया था। उस काल में हनुमानजी के बल और पराक्रम की कीर्ति चारों दिशाओं में फैली हुई थी। जब शनि को हनुमानजी के संबंध में जानकारी प्राप्त हुई तो शनि बजरंग बली से युद्ध करने के लिए निकल पड़े। एक शांत स्थान पर हनुमानजी अपने स्वामी श्रीराम की भक्ति में लीन बैठे थे, तभी वहां शनिदेव आ गए और उन्होंने बजरंग बली को युद्ध के ललकारा।

युद्ध की ललकार सुनकर हनुमानजी शनिदेव को समझाने का प्रयास किया, लेकिन शनि नहीं माने और युद्ध के लिए आमंत्रित करने लगे। अंत में हनुमानजी भी युद्ध के लिए तैयार हो गए। दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ। हनुमानजी ने शनि को बुरी तरह परास्त कर दिया।

युद्ध में हनुमानजी द्वारा किए गए प्रहारों से शनिदेव के पूरे शरीर में भयंकर पीड़ा हो रही थी। इस पीड़ा को दूर करने के लिए हनुमानजी ने शनि को तेल दिया। इस तेल को लगाते ही शनिदेव की समस्त पीड़ा दूर हो गई। तभी से शनिदेव को तेल अर्पित करने की परंपरा प्रारंभ हुई। शनिदेव पर जो भी व्यक्ति तेल अर्पित करता है, उसके जीवन की समस्त परेशानियां दूर हो जाती हैं और धन अभाव खत्म हो जाता है।

जबकि एक अन्य कथा के अनुसार जब भगवान की सेना ने सागर सेतु बांध लिया, तब राक्षस इसे हानि न पहुंचा सकें, उसके लिए पवन सुत हनुमान को उसकी देखभाल की जिम्मेदारी सौपी गई। जब हनुमान जी शाम के समय अपने इष्टदेव राम के ध्यान में मग्न थे, तभी सूर्य पुत्र शनि ने अपना काला कुरूप चेहरा बनाकर क्रोधपूर्ण कहा- हे वानर मैं देवताओ में शक्तिशाली शनि हूँ। सुना हैं, तुम बहुत बलशाली हो। आँखें खोलो और मेरे साथ युद्ध करो, मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। इस पर हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा- इस समय मैं अपने प्रभु को याद कर रहा हूं। आप मेरी पूजा में विघन मत डालिए। आप मेरे आदरणीय है। कृपा करके आप यहा से चले जाइए।

जब शनि देव लड़ने पर उतर आए, तो हनुमान जी ने अपनी पूंछ में लपेटना शुरू कर दिया। फिर उन्हे कसना प्रारंभ कर दिया जोर लगाने पर भी शनि उस बंधन से मुक्त न होकर पीड़ा से व्याकुल होने लगे। हनुमान ने फिर सेतु की परिक्रमा कर शनि के घमंड को तोड़ने के लिए पत्थरो पर पूंछ को झटका दे-दे कर पटकना शुरू कर दिया। इससे शनि का शरीर लहुलुहान हो गया, जिससे उनकी पीड़ा बढ़ती गई।

तब शनि देव ने हनुमान जी से प्रार्थना की कि मुझे बधंन मुक्त कर दीजिए। मैं अपने अपराध की सजा पा चुका हूँ, फिर मुझसे ऐसी गलती नही होगी ! तब हनुमान जी ने जो तेल दिया, उसे घाव पर लगाते ही शनि देव की पीड़ा मिट गई। उसी दिन से शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता हैं, जिससे उनकी पीडा शांत हो जाती हैं और वे प्रसन्न हो जाते हैं।

हनुमानजी की कृपा से शनि की पीड़ा शांत हुई थी, इसी वजह से आज भी शनि हनुमानजी के भक्तों पर विशेष कृपा बनाए रखते हैं।

शनि को तेल अर्पित करते समय ध्यान रखें ये बात –


शनि देव की प्रतिमा को तेल चढ़ाने से पहले तेल में अपना चेहरा अवश्य देखें। ऐसा करने पर शनि के दोषों से मुक्ति मिलती है। धन संबंधी कार्यों में आ रही रुकावटें दूर हो जाती हैं और सुख-समृद्धि बनी रहती है।

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

भगवान श्री सदाशिव जी की पहली पत्नी सती! के मृत देह से निर्मित ५१ शक्ति पीठों के प्रादुर्भाव की कथा




सती! जो ब्रह्मा के पुत्र प्रजापति दक्ष तथा पसूति कि सोलहवीं कन्या थी तथा जिनका विवाह भगवान शिव के साथ हुआ। प्रजापति दक्ष द्वारा आद्या शक्ति माता को कन्या के रूप में प्राप्ति हेतु, कठिन साधना की फलस्वरूप, उन्होंने देवी सती स्वरूप में दक्ष के गृह में जन्म धारण किया। ब्रह्मा जी के कहने पर, दक्ष ने अपनी बेटी देवी सती का विवाह शिव जी से किया, परन्तु वे इस विवाह से संतुष्ट नहीं थे। एक बार किसी उत्सव पर दक्ष के पधारने पर, वहां पहले से ही बैठे भगवान शिव ने उनका अभिवादन नहीं किया, परन्तु वह उपस्थित समस्त लोगो ने उनका हाथ जोड़ वंदन किया। इस पर दक्ष क्रुद्ध हो गए, वे ससुर (पिता) थे।
साथ ही, शिव जी का सम्बन्ध विध्वंसक वस्तुओं से होना भी उनके घृणा-उपेक्षा का एक कारण था; उनका श्मशान में निवास करना, चिता भस्म शरीर में लगाना, खोपड़ियों तथा हड्डी की माला धारण करना, सर्पो को अपना आभूषण बनाना, गांजा तथा चिल्लम पान इत्यादि अमंगलकारी वस्तुओं से सम्बन्ध रखना। शिव जी दरिद्र थे, मारे हुए पशुओं के खाल-चर्म पहनते थे, चिमटा, खप्पर, कमंडल, सांड, त्रिशूल, हड्डियां ही उनकी संपत्ति थी तथा उनके समस्त साथी डरावने भूत-प्रेत इत्यादि अशुभ शक्तियां थीं।
एक बार शिव जी के द्वारा ब्रह्मा जी का एक सर कट गया था; दक्ष के पिता ब्रह्मा जी पांच मस्तकों से युक्त थे, अतः वे शिव जी को ब्रह्म हत्या का दोषी मानते थे। एक बार प्रजापति दक्ष ने 'बृहस्पति श्रवा' नाम के यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने तीनों लोकों से समस्त प्राणी, ऋषि, देवी-देवता, मनुष्य, गन्धर्व इत्यादि सभी को निमंत्रित किया। दक्ष! भगवान शिव से घृणा करते थे परिणामस्वरूप, उन्होंने उनसे सम्बंधित किसी को भी अपने यज्ञ आयोजन में आमंत्रित नहीं किया। देवी देवी सती ने जब देखा की तीनों लोकों से समस्त प्राणी उनके पिता जी के यज्ञ आयोजन में जा रहे हैं, उन्होंने अपने पति भगवान शिव ने अपने पिता के घर, यज्ञ आयोजन में जाने कि अनुमति मांगी। भगवान शिव! दक्ष के व्यवहार से परिचित थे, उन्होंने देवी सती को अपने पिता के घर जाने की अनुमति नहीं दी तथा नाना प्रकार से उन्हें समझाने की चेष्टा की। परन्तु देवी देवी सती नहीं मानी, अंततः भगवान शिव ने उन्हें अपने गणो के साथ जाने की अनुमति दे ही दी। देवी सती अपने पिता दक्ष से उनके यज्ञानुष्ठान स्थल में घोर अपमानित हुई। दक्ष ने अपनी पुत्री देवी सती को स्वामी सहित, खूब उलटा सीधा कहा। परिणामस्वरूप, देवी अपने तथा स्वामी के अपमान से तिरस्कृत हो, यज्ञ में आये सम्पूर्ण यजमानों के सामने देखते ही देखते अपनी आहुति यज्ञ कुण्ड में दे दी, उन्होंने अपने आप को योग-अग्नि में भस्म कर दिया।
भगवान सदाशिव जी को जब इस घटना का ज्ञात हुआ, वे अत्यंत क्रुद्ध हो गए। उन्होंने अपने जटा के एक टुकड़े से वीरभद्र को प्रकट किया, जो स्वयं महाकाल के ही स्वरूप थे तथा उस जटा के एक भाग से महाकाली देवी का भी प्राकट्य हुआ। उन्होंने वीरभद्र तथा महाकाली को अपने गणो के साथ, दक्ष यज्ञ स्थल में सर्वनाश करने की आज्ञा दी। भगवान शिव के आदेशानुसार दोनों ने यज्ञ का सर्वनाश कर दिया, दक्ष का गाला काट उस के सर की आहुति यज्ञ कुण्ड में दे दी। तदनंतर भगवान शिव यज्ञ स्थल में आये तथा अपनी प्रिय पत्नी देवी सती के शव को कंधे पर उठा, तांडव नृत्य करने लगे। (शिव का नटराज स्वरूप, तांडव नित्य का ही प्रतीक हैं।) भगवान शिवजी के क्रुद्ध हो तांडव नृत्य करने के परिणामस्वरूप, तीनों लोकों में हाहाकार मच गया तथा विध्वंस होने लगा। तीनों लोकों को भय मुक्त करने हेतु भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से, देवी सती के मृत देह के टुकड़े कर दिए तथा वो भारत वर्ष के विभिन्न स्थानों में पतित हुए। जो देवी "देवी सती" के पवित्र ५१ शक्ति पीठों के नाम से विख्यात हैं; देवी नाना रूपों में इन पवित्र स्थानों की शक्ति हैं तथा इनके भैरव के रूप में भगवान शिव भी प्रत्येक स्थान पर अवस्थित हैं।
विभिन्न शास्त्रों में उल्लेख पीठों की संख्या एक-दूसरे से भिन्न हैं, परन्तु मुख्यतः ५१ पीठों के नाम प्रसिद्ध तथा सर्व प्रचालन में हैं।

  • श्री ​शिव चरित्र के अनुसार, सती शक्ति पीठों की संख्या ५१ हैं।
  • कालिका पुराण के अनुसार, सती शक्ति-पीठों की संख्या २६ हैं।
  • श्री देवी भागवत, पुराण के अनुसार, सती शक्ति-पीठों की संख्या १०८ हैं।
  • तंत्र चूड़ामणि तथा मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, सती शक्ति-पीठों की संख्या ५२ हैं।


ज्वाला शक्तिपीठ, (जीभ), ज्वालामुखी, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश, भारत।
ज्वालामुखी जो कांगड़ा घाटी के दक्षिण से ३० कि. मी. दूर स्थित हैं; यह भारत के एक बहुत प्रसिद्ध धार्मिक स्थल के रूप में विख्यात हैं; पांडवों इस पवित्र पीठ की खोज की थीं। यहाँ देवी सती की जीभ गिरी थी; यहाँ देवी! अंबिका या सिद्धिदा और उन्मत्त, भैरव के रूप में विद्यमान हैं। देवी के मंदिर में दर्शन प्राकृतिक ज्वाला या लौ के रूप में होती हैं एवं लौ चट्टानों की परत के नीचे से सर्वदा प्रज्वलित होती रहती हैं। यह मंदिर मुहम्मद गजनी द्वारा १००९ ई. में नष्ट कर दिया गया था। काँगड़ा के राजा भूमि चंद कटोच देवी दुर्गाके बड़े भक्त थे, उन्हें देवी माँ ने रात को सपने में दर्शन दिया तथा इस पवित्र स्थान के बारे में बताया। राजा ने उस स्थान को खोजा तथा उस स्थान पर एक मंदिर का निर्माण किया, वहां चमत्कारिक ढंग से अग्नि का एक स्रोत या ज्वाला मिली जो आज भी विद्यमान हैं एवं प्रज्वलित हो रहीं हैं। सम्राट अकबर ने इस पवित्र अग्नि को बुझाने के निमित्त कई बार प्रयास किए, लेकिन हर बार उन्हें असफलता ही मिली। अंत में उन्होंने भी यहाँ के अलौकिक शक्ति को स्वीकार कर लिया था।

त्रिपुरा मालिनी शक्तिपीठ, (बायाँ सीना), जालंधर, पंजाब, भारत।

त्रिपुरा मालिनी, यह पीठ भारत में पंजाब राज्य के जालंधर रेलवे स्टेशन से एक किलोमीटर दूर जालंधर शहर में स्थित हैं। देवी सती की बाई छाती यहाँ गिरी थीं, यहाँ देवी! त्रिपुरा-मालिनी के रूप में और भीषण, भैरव के रूप में विद्यमान हैं। वशिष्ठ, व्यास, मनु, जमदग्नि, परशुराम जैसे विभिन्न महर्षियों ने त्रिपुरा मालिनी रूप में यहाँ आदि शक्ति की पूजा-आराधना की थीं। जालंधर नमक दैत्य भगवान शिव द्वारा मारा गया था, दैत्य के नाम से ही शहर का नाम जालंधर पड़ा। यहाँ स्वच्छ पानी के तालाब के साथ देवी मंदिर बहुत मनमोहक एवं सुन्दर हैं।

अंबा शक्तिपीठ, (ह्रदय), बनासकांठा, गुजरात, भारत।

अंबाजी शक्तिपीठ, अंबाजी मंदिर अरावली पर्वत श्रृंखला से घिरा हुआ हैं, यह पालनपुर से लगभग ६५ कि. मी., माउंट आबू से ४५ किलोमीटर दूर, गुजरात-राजस्थान सीमा पर, श्री अमीरगढ़ से 42 कि. मी. और बनासकांठा जिले में कडियादृ गांव से ५० कि. मी. दुरी पर स्थित हैं। यहाँ, देवी सती का हृदय गिरी था; यहाँ देवी! अंबा नाम से और बटुक, भैरवरूप में विद्यमान हैं। यहाँ देवी! श्री यंत्र के रूप में अवस्थित हैं और केवल इसी रूप में पूजिता हैं; यहाँ किसी भी प्रकार की कोई प्रतिमा नहीं हैं, अंबा जी मंदिर गब्बर पर्वत के शिखर पर स्थित हैं। सुंदर पर्यटन स्थलों से युक्त यह एक उत्कृष्ट भ्रमण स्थानों में गिना जाता हैं, सूर्यास्त, गुफाएँ और रोपवे यहाँ के मुख्य आकर्षण का केंद्र हैं। यह मंदिर सूर्यवंशी सम्राट अरुण सेन द्वारा, ४ शताब्दी में वल्लभी के शासक द्वारा निर्मित किया गया था।

गुह्येश्वरी शक्तिपीठ, (दोनों घुटनों), काठमांडू, नेपाल।
गुह्येश्वरी मंदिर, काठमांडू, नेपाल में पशुपति नाथ मंदिर के पास स्थित हैं। यहाँ, देवी सती के दोनों घुटने गिरे थे, यहाँ देवी! महाशिरा रूप में और कपाली, भैरव रूप में विद्यमान हैं। यहाँ मंदिर पशुपतिनाथ मंदिर के निकट, बागमती नदी के तट पर स्थित हैं। गुह्येश्वर मंदिर, धर्मशाला (तीर्थयात्रियों विश्राम गृह) से घिरे हुए एक पक्का आँगन में हैं, 17 वीं सदी में राजा प्रताप मल्ल द्वारा गुहेश्वरी मंदिर बनाया गया था।

दाक्षायनी शक्तिपीठ, (दांया हाथ), कैलाश पर्वत, तिब्बत, चीन।
दाक्षायनी शक्तिपीठ, यह तिब्बत में कैलाश पर्वत, मानसरोवर (चीन) के पास एक शिला के रूप में विद्यमान हैं। यहाँ, देवी सती की दाहिना हाथ यहाँ पतित हुई थीं, देवी! यहाँ दाक्षायनी (दक्ष-यज्ञ विध्वंस करने वाली) रूप में और अमर, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

बिराज शक्तिपीठ, (नाभि), जाजपुर, भवनेश्वर, ओडिशा, भारत।
बिराज शक्तिपीठ, लगभग १२५ कि. मी. भुवनेश्वर से उत्तर दिशा में, भारत के ओडिशा राज्य में स्थित हैं, यहाँ देवी! विरजा या गिरीजा के नाम से पूजित हैं। यहाँ, देवी सती की नाभि गिरी थी, वह देवी! विमला के रूप में और जगन्नाथ, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

गंडकी चंडी शक्तिपीठ, (माथा), मुक्तिनाथ, नेपाल।
गंडकी चंडी शक्तिपीठ, गंडकी नदी के किनारे तथा नेपाल में मुक्तिनाथ, धवलगिरीि में स्थित हैं। यहाँ, देवी सती का माथा गिरी था तथा यहाँ देवी! गंडकी-चंडी के रूप में और चक्रपाणी, भैरव के रूप में विद्यमान। इस पवित्र स्थान के महत्व का विष्णु पुराण में वर्णन किया गया हैं, यह स्थान मुक्तिनाथ, हिंदूओं और बौद्धों के लिए मुक्ति या मोक्ष प्रदान करने वाला हैं। यह स्थान चक्र निर्मित शालग्राम शिलाओं हेतु विख्यात हैं।

बहुला शक्तिपीठ, (बांया हाथ), बर्धमान, पश्चिम बंगाल, भारत।
बहुला शक्तिपीठ, यह पीठ केतुग्राम, कटवा, वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल, भारत में अजय नदी के तट पर स्थित हैं। यहाँ, देवी सती का बाँया हाथ गिरी था तथा यहाँ देवी! बहुलाके रूप में तथा भीरुक या सर्व-सिद्धिदायक, भैरव के रूप में अवस्थित हैं। यहाँ देवी अपने दोनों पुत्रों कार्तिक और गणेश के साथ विद्यमान हैं। यह मंदिर १८ वीं सदी में बनाया गया था।

मंगल चंडिका शक्तिपीठ, (दायी कलाई), बर्धमान, पश्चिम बंगाल, भारत।

मंगल चंडिका शक्तिपीठ, यह पीठ बर्द्धमान जिले के गुस्कारा के उजनी ग्राम, भारत, पश्चिम बंगाल में स्थित हैं। इस पवित्र स्थान पर देवी सती की दाहिनी कलाई गिरी थी, यहाँ देवी! मंगल-चंडिका या मंगल चंडी के रूप में और कपिलाम्बर, भैरव के रूप में विद्यमान हैं। यह गुस्कारा रेलवे स्टेशन से १६ किलोमीटर दूर हैं।

त्रिपुरेश्वरी शक्तिपीठ, (दाहिना पैर), उदयपुर, त्रिपुरा, भारत।

त्रिपुरेश्वरी शक्तिपीठ, यह महाराजा धन्य माणिक्य द्वारा १५०१ ईसवी में बनाया हुआ, बहुत ही शक्तिशाली तंत्र शक्ति पीठ हैं। अगरतला, भारत में त्रिपुरा राज्य की राजधानी से ५५ कि. मी. दूर, उदयपुर नमक स्थान पर, राधा किशोरपुर गांव में स्थित हैं तथा माता-बाड़ी के नाम से प्रसिद्ध हैं। यहाँ देवी सती की दाहिनी पद (दाहिना पैर) पतित हुई थीं, यहाँ देवी! त्रिपुरेश्वरी या त्रिपुरसुंदरी और त्रिपुरेश, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

भवानी या चन्द्रनाथ शक्तिपीठ, (दाहिनी भुजा), चिटगांव, बांग्लादेश।

भवानी या चन्द्रनाथ शक्तिपीठ, सीताकुंड चन्द्रनाथ मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध हैं, यह पीठ बांग्लादेश के चंद्र-नाथ पर्वत के पास सीताकुंड स्टेशन, चटगांव, पर स्थित हैं। यहाँ, देवी सती की दाहिनी हस्त (दाहिना हाथ) गिरी था, यहाँ देवी! भवानी के रूप में और चंद्रशेखर, भैरव के रूप में विद्यमान हैं। यहाँ गरम पानी के प्राकृतिक स्रोत हैं।

भ्रामरी या त्रिसोता शक्तिपीठ, (बाया पैर), वोड़ागंज, जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल, भारत।
भ्रामरी या त्रिसोता शक्तिपीठ, यह पीठ भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में जलपागुड़ी जिले के वोड़ागंज ग्राम, तीस्ता नदी के तट पर स्थित हैं। यहाँ, देवी सती का बायाँ पैर गिरा था, यहाँ देवी भ्रामरी या त्रिश्रोता और अंबर, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

कामाख्या शक्तिपीठ, (योनि या प्रजनन अंग), कामाख्या, आसाम, भारत।
कामाख्या शक्ति पीठ, सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण तंत्र पीठ, गुवाहाटी, आसाम, भारत के नील-पर्वत या नीलांचल क्षेत्र में स्थित हैं। देवी सती की योनि (प्रजनन अंग) यहाँ पतित हुई थीं। यहाँ देवी! कामाख्या और उमानंद, भैरव के रूप में विद्यमान हैं। यह तीर्थ देव शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा बनाया गया था, यहाँ देवी की कोई प्रतिमा नहीं हैं। जिस स्थान पर देवी का प्रजनन अंग गिरा था, वहाँ सर्वदा ही प्राकृतिक जल श्रोत का प्रवाह होता रहता हैं एवं वही पर देवी की पूजा की जाती हैं।

जुगाड़्या शक्तिपीठ, (दाहिने पैर का अंगूठा), खीरग्राम, बर्द्धमान, पश्चिम बंगाल, भारत।
जुगाड़्या शक्तिपीठ, देवी सती के दाहिने पैर का अँगूठा, भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में बर्द्धमान जिले के खीरग्राम गांव, मंगलकोट में गरी थीं। यहाँ देवी! जुगाड़्या शक्ति और क्षीर खंडक, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

कालिका शक्तिपीठ, दाहिने पैर की चार उँगलियाँ, कोलकाता (कलकत्ता), पश्चिम बंगाल, भारत।

कालिका शक्तिपीठ, देवी सती के दाहिने पैर की चार उँगलियाँ, आदि गंगा नदी के तट पर गिरी थी, यह जगह कोलकाता में काली-घाट के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह देवी सती के पीठों के मध्य बहुत प्रसिद्ध पीठ हैं। यहाँ देवी! महा-काली और नकुलेश्वर, भैरव के रूप में विद्यमान हैं। देवी काली की प्रतिमा ब्रह्मा बेदी पर प्रतिष्ठित हैं, जिस बेदी पर बैठकर ब्रह्मा जी ने आदि शक्ति के निमित्त तपस्या की थी।

ललिता या अलोपी शक्तिपीठ, (दोनों हाथों की उंगलियां), इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत।

ललिता या अलोपी, प्रयाग शक्तिपीठ के नाम से भी जानी जाता हैं। देवी सती के दोनों हाथों की उंगलियां, उत्तर प्रदेश, भारत, के अक्षय वट, इलाहाबाद में गिरी हुई थीं। यहाँ देवी! ललिता शक्ति और वभ, भैरव के रूप में विद्यमान हैं। यह मंदिर तीन नदियां गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम, इलाहाबाद किले के निकट स्थित हैं।

जयंती शक्तिपीठ, (बाईं जांघ), कलजोरे बौरभग गांव, सिलेट जिला, बांग्लादेश।

जयंती शक्तिपीठ, देवी सती की बाई जाँघ, बांग्लादेश के कलजोरे बौरभग गाँव के पास जयंतियापुर, सिलेट जिले में गिरी थीं। यहाँ देवी! जयंती शक्ति और क्रमदीश्वर, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

विमला शक्तिपीठ, (मुकुट), मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल, भारत।

विमला शक्तिपीठ, यह पीठ भारत में पश्चिम बंगाल, मुर्शिदाबाद जिले के लालबाग कोर्ट रोड के पास स्थित हैं। यहाँ, देवी सती की मस्तक मुकुट पतित हुई थीं, यहाँ देवी! विमलाशक्ति और संवर्त, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

श्रावणी शक्तिपीठ, (रीढ़ की हड्डी), कुमारी कुंदा, चटगांव, बांग्लादेश।
श्रावणी शक्तिपीठ, यह पीठ बांग्लादेश, चटगांव जिले के कुमारी कुंदा गाँव में हैं। यहाँ, देवी सती की रीढ़ की हड्डी गिरी थी, यहाँ देवी! श्रावणी शक्ति और भैरव, निमिष के रूप में विद्यमान हैं।

सावित्री या भद्रकाली शक्तिपीठ, (टखने की हड्डी), थानेसर, कुरुक्षेत्र, हरियाणा, भारत।
सावित्री या भद्रकाली शक्तिपीठ, द्वैपायन सरोवर के पास थानेसर, कुरुक्षेत्र, हरियाणा, भारत में स्थित हैं। देवी सती की टखने की हड्डी यहाँ गिरी थी, यहाँ देवी! सावित्री या भद्र काली शक्ति और स्थाणु, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

गायत्री शक्तिपीठ, (कंगन), पुष्कर, राजस्थान, भारत।
गायत्री शक्तिपीठ, भारत में राजस्थान राज्य स्थित अजमेर के पुष्कर पर्वत श्रृंखला पर, देवी सती की दो कंगन गिरे थे। यहाँ देवी! गायत्री शक्ति और सर्वानंद, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

महालक्ष्मी शक्तिपीठ, (गर्दन), जौनपुर, सिलेट, बांग्लादेश।

महालक्ष्मी शक्तिपीठ, बांग्लादेश के सिलेट शहर से 3 कि. मी. उत्तर-पूर्व, जौनपुर गांव के श्री-शैल पर, देवी सती की गर्दन गिरी थी। यहाँ देवी महा-लक्ष्मी (धन की देवी) और शम्बरानन्द, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

देवगर्भ या कनकलेश्वरी शक्तिपीठ, (अस्थि), कनकली तला, बोलपुर, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, भारत।
देवगर्भ या कनकलेश्वरी शक्तिपीठ, देवी सती की अस्थियां, भारत में पश्चिम बंगाल, बीरभूम जिले में, बोलपुर (शांतिनिकेतन) के उत्तर पूर्व में कोपाई नदी के तट पर गिरी थीं। यहां देवी! कनकलेश्वरी और रुरु, भैरव के रूप में अवस्थित हैं।

काली शक्तिपीठ, (बायां कूल्हा), अमरकंटक, शहडोल, मध्य प्रदेश, भारत।
काली शक्तिपीठ, देवी सती की वाम भाग का कूल्हा, भारत के मध्य प्रदेश राज्य, शहडोल जिले के अमरकंटक नमक स्थान पर सोन नदी के तट पर, एक गुफा में गिरी थीं। यहाँ देवी! काली शक्ति और असितांग, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

नर्मदा शक्तिपीठ, (दांया कूल्हा), सोनदेश, अमरकंटक, मध्य प्रदेश, भारत।

नर्मदा शक्तिपीठ, देवी सती का दाहिना कूल्हा, भारत में मध्य प्रदेश राज्य, के शहडोल जिले में सोनदेश, अमरकंटक नमक स्थान पर नर्मदा नदी के उद्गम स्थान पर गिरी था। यहाँ देवी! नर्मदा शक्ति और भद्रसेन, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

शिवानी शक्तिपीठ, (दांया स्तन), सीतापुर, चित्रकूट, उत्तर प्रदेश, भारत।
शिवानी शक्तिपीठ, देवी सती का दाहिना स्तन, भारत में उत्तर प्रदेश राज्य के चित्रकूट जिले, सीतापुर गांव के रामगिरी पर्वत श्रंखला में गिरी थीं। यहाँ देवी! शिवानी शक्ति और चांद, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

उमा शक्तिपीठ, (चूड़ामणि), वृन्दावन, मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत।

उमा शक्तिपीठ, देवी सती की बालों की चूड़ामणि, भारत के उत्तर प्रदेश राज्य, मथुरा जिले में, वृंदावन, भूतेश्वर मंदिर के पास गिरी थीं; मथुरा भगवान कृष्ण के जन्म स्थान हेतु भी प्रसिद्ध हैं। यहाँ देवी! उमा शक्ति और भूतेश, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

नारायणी शक्तिपीठ, (ऊपरी जबड़े के दांत), कन्याकुमारी, तमिलनाडु, भारत।
नारायणी शक्तिपीठ, यह पीठ भारत, तमिलनाडु राज्य, कन्याकुमारी नमक स्थान के पास शुचितीर्थम में विद्यमान हैं। यहाँ, देवी सती की ऊपरी जबड़े के दांत गिरी थीं तथा देवी! नारायणी शक्ति और संहार, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

अपर्णा शक्तिपीठ, (वाम पैर का नुपुर), शेरपुर, बागुरा, बांग्लादेश।

अपर्णा शक्तिपीठ, यह पीठ बांग्लादेश के बागरा जिले के भवानी पुर गाँव में स्थित हैं। यहाँ, देवी सती की वाम पैर की पायल या नूपुर गिरी थीं तथा यहाँ देवी! अपर्णा शक्ति हैं और वामन, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

सुंदरी या बाला-त्रिपुरसुंदरी शक्तिपीठ, (दाहिने पैर का पायल या नुपुर), त्रिपुरान्तकम्, श्रीशैलम, आंध्र प्रदेश, भारत।
सुंदरी या बाला-त्रिपुरसुंदरी, देवी सती की दाहिने पैर का पायल या नूपुर, भारत के आंध्र प्रदेश राज्य, श्रीशैलम के पास त्रिपुरान्तकम् में गिरी थीं। यहां देवी! सुंदरी या बाला-त्रिपुरसुंदरी शक्ति और सुन्दरनन्द, भैरव के रूप में अधिष्ठित हैं।

कपालिनी शक्तिपीठ, (बाएं टखने), तामलुक, मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल, भारत।
कपालिनी शक्तिपीठ, देवी सती की बाएँ टखने, भारत में पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में तामलुक में गिरी थीं। यहां देवी! कपालिनी शक्ति और सर्वानंद, भैरव के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

चंद्रभागा शक्तिपीठ, (पेट), जूनागढ़, गुजरात, भारत।
चंद्रभागा शक्तिपीठ, देवी सती का पेट या आमाशय, भारत के गुजरात राज्य के जूनागढ़ जिले में सोमनाथ, वेरावल, सौराष्ट्र या प्रभास क्षेत्र में गिरा था। यहाँ भगवान शिव का सोमनाथ नमक ज्योतिर्लिंग विद्यमान हैं। यहाँ देवी! चंद्रभागा शक्ति और वक्रतुंड, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

अवंती शक्तिपीठ, (ऊपरी होंठ), उज्जैन, मध्य प्रदेश, भारत।
अवंती शक्तिपीठ, देवी सती के ऊपरी होंठ, भारत, मध्य प्रदेश, उज्जैन में गिरी थीं। यहाँ महाकालेश्वर नाम से भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग हैं। यहाँ देवी! अवंती शक्ति और लम्बकर्ण, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

भ्रामरी शक्तिपीठ, (दोनों ठोड़ी), नासिक, महाराष्ट्र, भारत।
भ्रामरी शक्तिपीठ, देवी सती की ठोड़ी के दोनों हिस्से, भारत में महाराष्ट्र राज्य, नासिक जिले के गोदावरी नदी-घाटी में जनस्थान में गिरी थीं। यहाँ देवी! भ्रामरी शक्ति और वक्रकाटाक्ष, भैरव के रूप में अवस्थित हैं।

विश्वेश्वरी शक्तिपीठ, (गाल), राजमुंदरी, आंध्र प्रदेश, भारत।
विश्वेश्वरि द्राक्षरमं शक्तिपीठ, भारत के आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी जिले के पास, देवी सती का गाल पतित हुआ था। यहाँ देवी! विश्वेश्वरि शक्ति और वत्साम्भा, भैरव के रूप में विद्यमान हैं।

अम्बिका शक्तिपीठ, (बाएँ पैर की उंगलियां), भरतपुर, राजस्थान, भारत।
अंबिका शक्तिपीठ, भारत में राजस्थान, भरतपुर जिले के बिरात में, देवी सती के बाएँ पैर की उंगलियां गिरी थी। यहाँ देवी! अंबिका शक्ति और अमृतेश्वर, भैरव के रूप में अधिष्ठित हैं।

कुमारी शक्तिपीठ, (दाएँ कंधे), कृष्णनगर, हुगली, पश्चिम बंगाल, भारत।

कुमारी शक्तिपीठ, खनकुल ग्राम के रत्नाकर नदी तट पर, पश्चिम बंगाल, भारत के हुगली जिले में स्थित कृष्णनगर नमक स्थान पर, देवी सती के दाहिने कंधे गिरे थे। यहाँ देवी! कुमारी शक्ति और शिव, भैरव के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

उमा शक्तिपीठ, (बाएं कंधे), मिथिला, बिहार, भारत।

उमा शक्तिपीठ, भारत, बिहार राज्य (इंडो नेपाल सीमा के पास), मिथिला में जनकपुर रेलवे स्टेशन के पास, देवी सती का बायाँ कन्धा गिरा था। यहाँ देवी! उमा या नील-सरस्वतीशक्ति और महोदर, भैरव के रूप में अवस्थित हैं।

नल्हाटेश्वरी या कालिका, (गले की नली), नलहाटी, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, भारत।
नल्हाटेश्वरी या कालिका, यह पीठ भारत में पश्चिम बंगाल राज्य, बीरभूम जिले के नलहाटी में स्थित हैं। यहाँ देवी सती के गले की नाली गिरी थी; यहाँ देवी! नल्हाटेश्वरी शक्ति और योगेश, भैरव रूप में प्रकट हैं।


चामुंडेश्वरी या दुर्गा शक्तिपीठ, (दोनों कान), मैसूर, कर्नाटक, भारत।

चामुंडेश्वरी या दुर्गा, यह पीठ भारत, कर्नाटक राज्य के मैसूर में चामुंडी पर्वत पर हैं। यहाँ देवी सती के दोनों कान गिरे थे; देवी! यहाँ दुर्गा शक्ति और अभिरु, भैरव के रूप में अवस्थित हैं।

महिषमर्दिनी शक्तिपीठ, (भौंहें), वक्रेश्वर, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, भारत।
महिषमर्दिनी शक्तिपीठ, यह पीठ भारत, पश्चिम बंगाल राज्य, बीरभूम जिले में वक्रेश्वर, पम्प्हारा नदी के तट पर अवस्थित हैं। यहाँ देवी सती, कि भौंहें गिरी थी; यहाँ देवी! महिषमर्दिनी शक्ति और वक्रनाथ, भैरव के रूप में अवस्थित हैं। यहाँ २०० डिग्री सेल्सियस तापमान तक के गरम पानी के श्रोत हैं, जो अनेक प्रकार के अलौकिक शक्तिओ से सम्पन्न हैं।

योगेश्वरी शक्तिपीठ, (पैर और हाथ के तलवे), खुलना, बांग्लादेश।
योगेश्वर शक्तिपीठ, यह पीठ शक्ति काली को समर्पित हैं तथा ईस्वरीपुर गांव, जेसोर, खुलना जिला, बांग्लादेश में स्थित हैं तथा जसोरेश्वरी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हैं। महाराजा प्रतापादित्य ने इस शक्ति पीठ की खोज की तथा वे इस स्थान में काली पूजा करते हैं। यहाँ देवी सती, की हाथ तथा पैर के तलवे गिरी थीं; देवी! योगेश्वरी शक्ति और चंदा, भैरवके रूप में विद्यमान हैं।

फुल्लौरा शक्तिपीठ, (निचले होंठ), लाभपुर, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, भारत।

फुल्लौरा शक्तिपीठ, यह पीठ भारत के पश्चिम बंगाल राज्य के बीरभूम जिला, लाभपुर नमक गांव में स्थित हैं। यहाँ देवी सती के निचले होंठ गिरे थे; यहाँ देवी! फुल्लौरा शक्ति और विश्वेश, भैरव के रूप में अवस्थित हैं। यह मंदिर इमली के पेड़ो से घिरा हुआ हैं।

नंदिनी शक्तिपीठ, (गर्दन अस्थि), नन्दीपुर ग्राम, साईथिया, बीरभूम, पश्चिम बंगाल, भारत।

नंदिनी या नदीकेश्वरी शक्तिपीठ, यह पीठ नन्दीपुर ग्राम, साईथिया रेलवे स्टेशन के पास, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल, भारत में अवस्थित हैं। यहाँ देवी सती की गर्दन अस्थिगिरी थी। यहाँ! देवी नंदिनी या नन्दिकेश्वरी शक्ति और नंदिकेश्वर, भैरव के रूप में विद्यमान हैं। देवी विग्रह यहाँ सिंदूर से लिप्त हैं जो बड़ी चट्टान के आकार लिये, कछुवे के पीठ के समान हैं, देवी वह शक्ति हैं जिनकी आराधना नंदी ने की थीं।

इन्द्राक्षी शक्तिपीठ, (पायल), जाफना, श्रीलंका।
इन्द्राक्षी शक्तिपीठ, यह पीठ नैनातिवु (मणिपल्लवम्), श्रीलंका के जाफना के नल्लूर में स्थित हैं। देवराज इंद्र ने यहाँ पर आदि शक्ति काली की पूजा की थी। दानव-राज रावण (श्रीलंका के शासक या राजा) और भगवान राम ने भी यहाँ देवी शक्ति की पूजा की हैं। यहाँ देवी सती की पायल (आभूषण) गिरी थी तथा यहाँ देवी! इन्द्राक्षी शक्ति और राक्षसेश्वर,भैरव के रूप में अवस्थित हैं।

हिंगलाज शक्तिपीठ, ब्रह्मरंध्र (सिर के ऊपर), बलूचिस्तान, पाकिस्तान।
हिंगलाज या हिंगुला नमक स्थान में ब्रह्मरंध्र (सिर के ऊपर का भाग या कपाल), हिंगलाज पर्वत श्रंखला के पहाड़ी गुफा में, हिंगोल नदी के तट पर, लास बेला, बलूचिस्तान प्रांत, ल्यारी तहसील, पाकिस्तान में गिरी। जो कराची से १२५ कि. मी. उत्तर-पूर्व, हिंगोल राष्ट्रीय उद्यान के मध्य में स्थित हैं। यहाँ देवी! कोट्टरी शक्ति के रूप में तथा भीमलोचन, भैरवके रूप में अवस्थित हैं। मंदिर में सिंदूर के साथ लिप्त गोल शिलाओं के रूप में देवी पूजिता हैं, जो यहाँ के प्राकृतिक गुफा में स्थित हैं।

शिवहारकराय या करविपुर शक्तिपीठ, (आंखें), कराची, पाकिस्तान।

शिवहारकराय या करविपुर शक्ति पीठ, यह पाकिस्तान, कराची में परकै रेलवे स्टेशन के पास स्थित हैं; देवी सती की आँखें यहाँ गिरी गया। देवी महिषमर्दिनी और भैरव, क्रोधीशके रूप में पूजित तथा विद्यमान हैं।

सुंगधा शक्तिपीठ, (नाक), बरिसाल, बांग्लादेश।

सुगंधा शक्तिपीठ, बांग्लादेश के बरिसाल जिले से २० कि. मी. उत्तर शिकारपुर नमक स्थान में स्थित एकजटा के रूप में विद्यमान हैं। शिकारपुर गांव स्थित सुगंधा नदी के तट पर, देवी सती की नाक गिरी थी और यहां देवी! सुगंधा या तारा एकजटा स्वरूप के रूप में विद्यमान हैं तथा यहाँ के भैरव, त्र्यंबक हैं। यह मंदिर शिव शिवरात्रि या शिव चतुर्दशी के उत्सव हेतु प्रसिद्ध हैं।

महामाया शक्तिपीठ, (गाला), अमरनाथ, पहलगाम, जम्मू और कश्मीर, भारत।
महामाया शक्तिपीठ, जम्मू और कश्मीर, भारत के पहलगाम जिले में स्थित हैं। देवी सती की गले का भाग यहाँ पतित हुई थीं; यहां देवी महामाया के रूप में और त्रिसन्ध्येश्वर, भैरव के रूप में स्थित हैं। भगवान शिव के इस पवित्र गुफा में हिम-लिंग प्राकृतिक रूप से निर्मित होती हैं, इस स्थान में शिव जी ने अपनी पत्नी पार्वती को जीवन और मरण चक्र से सम्बंधित महान रहस्य समझाया था। अन्य दो हिम-संरचनायें माता पार्वती और उनके पुत्र गणेश का प्रतिनिधित्व करते हैं। अमरनाथ के दर्शन के साथ श्रावण पूर्णिमा पर इस शक्ति पीठ भी दर्शन किया जाता हैं।

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

श्रीखंड महादेव यात्रा – अमरनाथ से भी कठिन है महादेव की यह यात्रा



कैलाश मानसरोवर की यात्रा सबसे कठिन मानी जाती है। उसके बाद अमरनाथ यात्रा का नंबर आता है। लेकिन हिमाचल प्रदेश के श्रीखंड महादेव की यात्रा अमरनाथ यात्रा से भी ज्यादा कठिन है। अमरनाथ यात्रा में जहां लोगों को करीब 14000 फीट की चढ़ाई करनी पड़ती है तो श्रीखंड महादेव के दर्शन के लिए 18570 फीट ऊचाई पर चढ़ना होता है। आमतौर पर कैलाश मानसरोवर की यात्रा सबसे कठिन व दुर्गम धार्मिक यात्रा मानी जाती है। उसके बाद किसी का नंबर आता है तो वो है अमरनाथ यात्रा, लेकिन हिमाचल प्रदेश के श्रीखंड महादेव की यात्रा अमरनाथ यात्रा से भी ज्यादा कठिन है।

श्रीखंड महादेव


श्रीखण्ड यात्रा के आगे अमरनाथ यात्रा की चढ़ाई कुछ भी नहीं है। ऐसा उन लोगों का कहना है जो दोनों जगह होकर आए हैं। श्रीखंड महादेव हिमाचल के ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क से सटा है। स्थानीय लोगों के अनुसार, इस चोटी पर भगवान शिव का वास है। इसके शिवलिंग की ऊंचाई 72 फीट है। यहां तक पहुंचने के लिए सुंदर घाटियों के बीच से एक ट्रैक है। अमरनाथ यात्रा के दौरान लोग जहां खच्चरों का सहारा लेते हैं। वहीं, श्रीखण्ड महादेव की 35 किलोमीटर की इतनी कठिन चढ़ाई है, जिसपर कोई खच्चर घोड़ा नहीं चल ही नहीं सकता। श्रीखण्ड का रास्ता रामपुर बुशैहर से जाता है। यहां से निरमण्ड, उसके बाद बागीपुल और आखिर में जांव के बाद पैदल यात्रा शुरू होती है।

क्या है पौराणिक महत्व 

श्रीखंड की पौराणिकता मान्यता है कि भस्मासुर राक्षस ने अपनी तपस्या से शिव से वरदान मांगा था कि वह जिस पर भीअपना हाथ रखेगा तो वह भस्म होगा। राक्षसी भाव होने के कारण उसने माता पार्वती से शादी करने की ठान ली। इसलिए भस्मापुर ने शिव के ऊपर हाथ रखकर उसे भस्म करने की योजना बनाई लेकिन भगवान विष्णु ने उसकी मंशा को नष्ट किया। विष्णु ने माता पार्वती कारूप धारण किया और भस्मासुर को अपने साथ नृत्य करने के लिए राजी किया। नृत्य के दौरान भस्मासुर ने अपने सिर पर ही हाथ रख लिया और भस्म हो गया। आज भी वहां की मिट्टी व पानी दूर से लाल दिखाई देते हैं।

विभिन्न स्थानों से दूरी

श्रीखंड महादेव पहुंचने के लिए शिमला जिला के रामपुर से कुल्लू जिला के निरमंड होकर बागीपुल और जाओं तक गाड़ियों और बसों में पहुंचना पड़ता है। जहां से आगे करीब तीस किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी होती है।

शिमला से रामपुर – 130 किमी
रामपुर से निरमंड – 17 किलोमीटर
निरमंड से बागीपुल – 17 किलोमीटर
बागीपुल से जाओं – करीब 12 किलोमीटर

कैसे पहुंचे श्रीखंड

आप रामपुर बुशहर(शिमला से 130 कि० मी०) से 35 कि० मी० की दूरी पर बागीपुल या अरसू सड़क मार्ग से पहुँच सकते है श्रीखंड जाते समय प्राकृतिक शिव गुफा, निरमंड में सात मंदिर, जावोंमें माता पार्वती सहित नौ देवियां, परशुराम मंदिर, दक्षिणेश्वर महादेव, हनुमान मंदिर अरसु, सिंहगाड, जोतकाली, ढंकद्वार, बकासुर बध, ढंकद्वार व कुंषा आदि स्थान आते हैं। बागीपुल से 7 कि० मी० दूरी पर जाँव गाँव तक गाड़ी से पंहुचा जा सकता है जाँव से आगे की 25 किलोमीटर की सीधी चढाई पैदल यात्रा शुरू होती है।

यात्रा के तीन पड़ाव

सिंहगाड़
थाचड़ू
और भीम डवार है

जाँव से सिंहगाड़ 3 कि० मी० सिंहगाड़ से थाचड़ू 8 कि० मी० और थाचड़ू से भीम डवार 9 कि० मी० की दूरी पर है यात्रा के तीनो पडावो मे श्री खंड सेवा दल की ओर से यात्रियों की सेवा मे लंगर दिन रात चलाया जाता है भीम डवार से श्री खण्ड कैलाश दर्शन 7 कि० मी० की दूरी पर है तथा दर्शन उपरांत भीम डवार या थाचड़ू वापिस आना अनिवार्य होता है

यात्रा मे सिंहगाड, थाचरू, कालीकुंड, भीमडवारी, पार्वती बाग, नयनसरोवर व भीमबही आदि स्थान आते हैं। सिंहगाड यात्रा का बेस कैंप है। जहां से नाम दर्ज करने के बाद श्रद्धालुओं को यात्रा की अनुमति दी जाती है। श्रीखंडसेवा समिति की ओर से श्रद्धालुओं के लिए हर पडाव पर लंगर की व्यवस्था होतीहै।

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

क्यों स्वयं श्रीराम ने तोड़ दिया था रामसेतु


वाल्मीकि रामायण के अनुसार लंका पर चढ़ाई करते समय भगवान श्रीराम के कहने पर वानरों और भालुओं ने रामसेतु का निर्माण किया था, ये बात हम सभी जानते हैं। लेकिन जब श्रीराम विभीषण से मिलने दोबारा लंका गए, तब उन्होंने रामसेतु का एक हिस्सा स्वयं ही तोड़ दिया था, ये बात बहुत कम लोग जानते हैं। इससे जुड़ी कथा का वर्णन पद्म पुराण के सृष्टि खंड में मिलता है.

श्रीराम इसलिए गए थे लंका

अयोध्या का राजा बनने के बाद एक दिन भगवान श्रीराम को विभीषण का विचार आया। उन्होंने सोचा कि- रावण की मृत्यु के बाद विभीषण किस तरह लंका का शासन कर रहे हैं, उन्हें कोई परेशानी तो नहीं है। जब श्रीराम ये सोच रहे थे, उसी समय वहां भरत भी आ गए।

भरत के पूछने पर श्रीराम उन्हें पूरी बात बताई। ऐसा विचार मन में आने पर श्रीराम लंका जाने की सोचते हैं। भरत भी उनके साथ जाने को तैयार हो जाते हैं। अयोध्या की रक्षा का भार लक्ष्मण को सौंपकर श्रीराम व भरत पुष्पक विमान पर सवार होकर लंका जाते हैं।

जब श्रीराम से मिले सुग्रीव और विभीषण

जब श्रीराम व भरत पुष्पक विमान से लंका जा रहे होते हैं, रास्ते में किष्किंधा नगरी आती है। श्रीराम व भरत थोड़ी देर वहां ठहरते हैं और सुग्रीव से अन्य वानरों से भी मिलते हैं। जब सुग्रीव को पता चलता है कि श्रीराम व भरत विभीषण से मिलने लंका जा रहे हैं, तो वे उनके साथ हो जाते हैं। रास्ते में श्रीराम भरत को वह पुल दिखाते हैं, जो वानरों व भालुओं ने समुद्र पर बनाया था। जब विभीषण को पता चलता है कि श्रीराम, भरत व सुग्रीव लंका आ रहे हैं तो वे पूरे नगर को सजाने के लिए कहते हैं। विभीषण श्रीराम, भरत व सुग्रीव से मिलकर बहुत प्रसन्न होते हैं।

श्रीराम ने इसलिए तोड़ा था सेतु

श्रीराम तीन दिन तक लंका में ठहरते हैं और विभीषण को धर्म-अधर्म का ज्ञान देते हैं और कहते हैं कि तुम हमेशा धर्म पूर्वक इस नगर पर राज्य करना। जब श्रीराम पुन: अयोध्या जाने के लिए पुष्पक विमान पर बैठते हैं तो विभीषण उनसे कहता है कि- श्रीराम आपने जैसा मुझसे कहा है, ठीक उसी तरह मैं धर्म पूर्वक राज्य करूंगा। लेकिन इस सेतु (पुल) के मार्ग से जब मानव यहां आकर मुझे सताएंगे, उस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए। विभीषण के ऐसा कहने पर श्रीराम ने अपने बाणों से उस सेतु के दो टुकड़े कर दिए। फिर तीन भाग करके बीच का हिस्सा भी अपने बाणों से तोड़ दिया। इस तरह स्वयं श्रीराम ने ही रामसेतु तोड़ा था।



रविवार, 15 जुलाई 2018

जगन्नाथ रथयात्रा







भारत भर में मनाए जाने वाले महोत्सवों में जगन्नाथपुरी की रथयात्रा सबसे महत्वपूर्ण है। यह परंपरागत रथयात्रा न सिर्फ हिन्दुस्तान, बल्कि विदेशी श्रद्धालुओं के भी आकर्षण का केंद्र है। श्रीकृष्ण के अवतार जगन्नाथ की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना गया है।

पुरी का जगन्नाथ मंदिर भक्तों की आस्था केंद्र है, जहां वर्षभर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। जो अपनी बेहतरीन नक्काशी व भव्यता लिए प्रसिद्ध है। यहां रथोत्सव के वक्त इसकी छटा निराली होती ।

* जगन्नाथजी का रथ 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज' कहलाता है। 16 पहियों वाला रथ 13.5 मीटर ऊंचा होता है जिसमें लाल व पीले रंग के कप़ड़े का इस्तेमाल होता है। विष्णु का वाहक गरुड़ इसकी हिफाजत करता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनी' कहते हैं।


* बलराम का रथ 'तलध्वज' के बतौर पहचाना जाता है, जो 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है। यह लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्व हैं। जिस रस्से से रथ खींचा जाता है, वह बासुकी कहलाता है।

* 'पद्मध्वज' यानी सुभद्रा का रथ। 12.9 मीटर ऊंचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल होता है। रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं। रथध्वज नदंबिक कहलाता है। रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचुडा कहते हैं।
प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास में शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथ की रथयात्रा होती है। यह एक बड़ा समारोह है, जिसमें भारत के विभिन्न भागों से श्रद्धालु आकर सहभागी बनते हैं। दस दिन तक मनाए जाने वाले इस पर्व/ यात्रा को 'गुण्डीय यात्रा' भी कहा जाता है।

माना जाता है कि इस रथयात्रा में सहयोग से मोक्ष प्राप्त होता है, अत: सभी कुछ पल के लिए रथ खींचने को आतुर रहते हैं। जगन्नाथ जी की यह रथयात्रा गुंडीचा मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है। जगन्नाथपुरी का वर्णन स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में मिलता है।

जगनाथ स्तोत्रं ,जगन्नाथ प्रणामः

श्री जगन्नाथ स्तोत्र || श्री कृष्ण का, उनके बड़े भ्राता श्री बलराम के साथ उनकी छोटी बहेन देवी सुभद्रा का ध्यान करे, और इसके बाद ही स्तोत्र का पाठ करें |
पहले दो श्लोक से श्री कृष्ण, श्री बलराम, और देवी सुभद्रा को प्रणाम कर रहे हैं, तथा बाकी श्लोको से उनकी प्राथना है|
मान्यता है कि नित्य सिर्फ एक बार पढ़ने से मानसिक शांती मिलती है, और कअष्टो का निवारण हो जाता है |

जगन्नाथप्रणामः 
नीलाचलनिवासाय नित्याय परमात्मने | बलभद्रसुभद्राभ्यां जगन्नाथाय ते नमः
||१|| जगदानन्दकन्दाय प्रणतार्तहराय च | नीलाचलनिवासाय जगन्नाथाय ते नमः
||२|| ||श्री जगन्नाथ प्रार्थना || रत्नाकरस्तव गृहं गृहिणी च पद्मा किं देयमस्ति भवते पुरुषोत्तमाय | अभीर, वामनयनाहृतमानसाय दत्तं मनो यदुपते त्वरितं गृहाण
||१|| भक्तानामभयप्रदो यदि भवेत् किन्तद्विचित्रं प्रभो कीटोऽपि स्वजनस्य रक्षणविधावेकान्तमुद्वेजितः | ये युष्मच्चरणारविन्दविमुखा स्वप्नेऽपि नालोचका- स्तेषामुद्धरण-क्षमो यदि भवेत् कारुण्यसिन्धुस्तदा
||२|| अनाथस्य जगन्नाथ नाथस्त्वं मे न संशयः | यस्य नाथो जगन्नाथस्तस्य दुःखं कथं प्रभो
||३|| या त्वरा द्रौपदीत्राणे या त्वरा गजमोक्षणे | मय्यार्ते करुणामूर्ते सा त्वरा क्व गता हरे
||४|| मत्समो पातकी नास्ति त्वत्समो नास्ति पापहा | इति विज्ञाय देवेश यथायोग्यं तथा कुरु
||५|| श्री कृष्ण, श्री बलराम, और देवी सुभद्रा की जय हो !

गुरुवार, 5 जुलाई 2018

बेल वृक्ष की महिमा




बेलपत्र अथवा बिल्व पत्र बेल नामक वृक्ष के पत्तों को कहा जाता है जो भगवान शिव को पूजा में अत्यंत प्रिय है। इसके वृक्ष के नीचे पूजा पाठ करना पुण्यदायक माना जाता है। सावन महीने में शिवलिंग पर बेल पत्र अर्पित किए जाते हैं क्योंकि ये भोलेनाथ को प्रिय लगते हैं। शिव की अर्चना करते समय शिवलिंग पर बेलपत्र और दूध अथवा पानी चढ़ाया जाता है.

बेलपत्र तीन पत्तों वाला होता है। पाँच पत्तों वाला बेलपत्र अधिक शुभ माना जाता है। पूजा की सामग्री में बेलपत्र और गंगाजल का समावेश होता है। ज्येष्ठा नक्षत्र युक्त जेठ के महीने की पूर्णिमा की रात्रि को 'बिल्वरात्र' व्रत किया जाता है।

भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यानी बेल पत्र का विशेष महत्व है। महादेव एक बेलपत्र अर्पण करने से भी प्रसन्न हो जाते है, इसलिए तो उन्हें आशुतोष भी कहा जाता है। सामान्य तौर पर बेलपत्र में एक साथ तीन पत्तियां जुडी रहती हैं जिसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक माना जाता है।

वैसे तो बेलपत्र की महिमा का वर्णन कई पुराणों में मिलता है, लेकिन शिवपुराण में इसकी महिमा विस्तृत रूप में बतायी गयी है। शिव पुराण में कहा गया है कि बेलपत्र भगवान शिव का प्रतीक है। भगवान स्वयं इसकी महिमा स्वीकारते हैं। मान्यता है कि बेल वृक्ष की जड़ के पास शिवलिंग रखकर जो भक्त भगवान शिव की आराधना करते हैं, वे हमेशा सुखी रहते हैं। बेल वृक्ष की जड़ के निकट शिवलिंग पर जल अर्पित करने से उस व्यक्ति के परिवार पर कोई संकट नहीं आता और वह सपरिवार खुश और संतुष्ट रहता है। कहते हैं कि बेल वृक्ष के नीचे भगवान भोलेनाथ को खीर का भोग लगाने से परिवार में धन की कमी नहीं होती है और वह व्यक्ति कभी निर्धन नहीं होता है।

बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में स्कंद पुराण में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका, जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ। इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी और फलों में कात्यायनी वास करती हैं। कहा जाता है कि बेल वृक्ष के कांटों में भी कई शक्तियां समाहित हैं। यह माना जाता है कि देवी महालक्ष्मी का भी बेलवृक्ष में वास है। जो व्यक्ति शिव-पार्वती की पूजा बेलपत्र अर्पित कर करते हैं, उन्हें महादेव और देवी पार्वती दोनों का आशीर्वाद मिलता है।

बेल वृक्ष  के  गुण

*बिल्व पत्र में औषधीय गुण भी होते हैं। यह वृक्ष बहुत शुभ माना जाता है।
*जहां बिल्व का पेड़ होता है वहां उसके समीप सांप नहीं आते।
* शवयात्रा ले जाते समय उस पर बिल्व के पेड़ की छाया पड़े तो मरने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
* बिल्व वृक्ष में वायुमंडल में मौजूद अशुद्धियों को सोखने की सबसे अधिक योग्यता होती है।
* किसी को चार, पांच, छ: या सात पत्तों वाला बेल पत्र मिले तो वह भाग्यवान होता है अौर इसे भोलेनाथ को             अर्पित करने से कई गुणा फल की प्राप्ति होती है।
* बिल्व के पेड़ को काटने से वंश का नाश होता है अौर इसका वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है।
* सुबह-शाम को बिल्व के पेड़ के सिर्फ दर्शन से ही पापों का अंत हो जाता है।
* बिल्व के पेड़ की सिंचाई करने से पितर तृप्त हो जाते हैं।
* बिल्व के पेड़ और सफेद आक को जोड़े से लगाने पर घर में लक्ष्मी स्थिर रहती हैं।
* शिवलिंग पर एक बार या भूल से भी बेल पत्र अर्पित करने से सारे पापों का नाश हो जाता है।
* माना जाता है कि बेल वृक्ष का रोपण, पोषण और संवर्धन करने से भगवान शंकर के दर्शन करने का सौभाग्य मिलता है।

गर्मी एवं पेट के रोगों से मुक्ति प्रदान करने वाला, संस्कृत में 'बिल्व' और हिन्दी में 'बेल' नाम से प्रसिद्ध यह फल महाराष्ट्र और बंगाल में 'बेल', कोंकण में 'लोहगासी', गुजरात में 'बीली', पंजाब में 'वेल' और 'सीफल' संथाल में 'सिंजो', कठियावाड़ में 'थिलकथ' नाम से जाना जाता है। इसके गीले गूदे को 'बिल्वपेशिका' या 'बिल्वकर्कटी' तथा सूखे गूदे 'बेल सोंठ' या 'बेल गिरी' कहा जाता है।

बेल का वृक्ष १५ से ३० फुट ऊँचा और पत्तियाँ तीन और कभी-कभी पाँच पत्रयुक्त होती है। तीखी स्वाद वाली इन पत्तियों को मसलने पर विशिष्ट गंध निकलती है। गर्मियों में पत्ते गिरने पर मई में पुष्प लगते हैं, जिनमें अगले वर्ष मार्च-मई तक फल तैयार हो जाते हैं। इसका कड़ा और चिकना फलकवच कच्ची अवस्था में हरे रंग और पकने पर सुनहरे पीले रंग का हो जाता है। कवच तोड़ने पर पीले रंग का सुगन्धित मीठा गूदा निकलता है जो खाने और शर्बत बनाने के काम आता है। 'जंगली बेल' के वृक्ष में काँटे अधिक और फल छोटा होता है।

बेल के फलों में 'बिल्वीन' नाम या 'मार्मेसोलिन' नामक तत्व एक प्रधान सक्रिय घटक होता है। इसके अतिरिक्त गूदे में लबाब, पेक्टिन, शर्करा, कषायिन एवं उत्पत तेल पाए जाते हैं। ताज़े पत्तों से प्राप्त पीताभ-हरे रंग का उत्पत तेल स्वाद में तीखा और सुगन्धित होता है। इसका कच्चा फल उद्दीपक-पाचक ग्राही, रक्त स्तंभक- पक्का फल कषाण, मधुर और मृदु रेचक तथा पत्तों का रस घाव ठीक करने, वेदना दूर करने, ज्वर नष्ट करने, जुकाम और श्वास रोग मिटाने तथा मूत्र में शर्करा कम करने वाला होता है। इसकी छाल और जड़ घाव, कफ, ज्वर, गर्भाशय का घाव, नाड़ी अनियमितता, हृदयरोग आदि दूर करने में सहायक होती है।

बिल्वादि चूर्ण, बिल्व तेल, बिल्वादि घृत, बृहद गंगाधर चूर्ण, बिल्व पंचक क्वाथ आदि औषधियों में प्रयुक्त होने वाले बेल के फलों का अधिक सेवन अर्श (बवासीर) के रोगियों के लिए अहितकर होता है। इसके अतिरिक्त गूदे में बीज दोहरी झिल्ली के बीच होते हैं, जिसमें लेसदार द्रव होता है। इसे झिल्ली और बीजों सहित न निकालने पर मुख में छाले होने की संभावना रहती है। जठराग्नि मन्द हो जाने पर भूख मर जाती है। खाया-पिया हजम नहीं होता। ऐसे में बेल के पके गूदे में, पचास ग्राम पानी में फूली इमली और पचास ग्राम दही में थोड़ा बूरा मिला मिक्सी में घोंट लें। यह पेय स्वादिष्ट, पचने में आसान, भूख बढ़ाने वाला, चुस्ती देने वाला शर्बत है। कुछ दिन नियमित लें।