गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

प्रभुश्रीराम के राज्याभिषेक के समय वेदों द्वारा की गई प्रभुश्रीराम की स्तुति भावार्थ सहित



प्रभुश्रीराम के राज्याभिषेक के समय वेदों द्वारा की गई प्रभुश्रीराम की स्तुति भावार्थ सहित! बहुत बहुत फलदायक स्तुति है, इसे अपने पूजापाठ में सम्मिलित करें!


* जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥
भावार्थ:-सगुण और निर्गुण रूप! हे अनुपम रूप-लावण्ययुक्त! हे राजाओं के शिरोमणि! आपकी जय हो। आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला। आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर दिया। हे दयालु! हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो! आपकी जय हो। मैं शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान्‌ आपको नमस्कार करता हूँ॥


तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥
जे नाथ करि करुना बिलोकि त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥

भावार्थ:-हे हरे! आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए) दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं। हे नाथ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टि) से देख लिया, वे (माया जनित) तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए। हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्री रामजी! हमारी रक्षा कीजिए। हम आपको नमस्कार करते हैं॥
 

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे॥

भावार्थ:-जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को हरने वाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देव-दुर्लभ (देवताओं को भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होने वाले, ब्रह्मा आदि के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं (परंतु), जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाते हैं। हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं॥




* जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥
भावार्थ:-जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द! हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं॥


*अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥
भावार्थ:-वेद शास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है, जो (प्रवाह रूप से) अनादि है, जिसके चार त्वचाएँ, छह तने, पच्चीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार वृक्ष स्वरूप (विश्व रूप में प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं॥


*जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥
भावार्थ:-ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है- (जो इस प्रकार कहकर उस) ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं। हे करुणा के धाम प्रभो! हे सद्गुणों की खान! हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें॥



* सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार॥

भावार्थ:-वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की। फिर वे अंतर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए॥

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

कृष्ण-सुदामा की मित्रता



कृष्ण-सुदामा की मित्रता बहुत प्रचलित है। सुदामा गरीब ब्राह्मण थे। अपने बच्चों का पेट भर सके उतने भी सुदामा के पास पैसे नहीं थे। सुदामा की पत्नी ने कहा, "हम भले ही भूखे रहें, लेकिन बच्चों का पेट तो भरना चाहिए न ?" इतना बोलते-बोलते उसकी आँखों में आँसू आ गए। सुदामा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने कहा, "क्या कर सकते हैं ? किसी के पास माँगने थोड़े ही जा सकते है।" पत्नी ने सुदामा से कहा, "आप कई बार कृष्ण की बात करते हो। आपकी उनके साथ बहुत मित्रता है ऐसा कहते हो। वे तो द्वारका के राजा हैं। वहाँ क्यों नहीं जाते ? जाइए न ! वहाँ कुछ भी माँगना नहीं पड़ेगा !"

सुदामा को पत्नी की बात सही लगी। सुदामा ने द्वारका जाने का तय किया। पत्नी से कहा, "ठीक है, मैं कृष्ण के पास जाऊँगा। लेकिन उसके बच्चों के लिए क्या लेकर जाऊँ ?"सुदामा की पत्नी पड़ोस में से पोहे ले आई। उसे फटे हुए कपडे में बांधकर उसकी पोटली बनाई। सुदामा उस पोटली को लेकर द्वारका जाने के लिए निकल पड़े।

द्वारका देखकर सुदामा तो दंग रह गए। पूरी नगरी सोने की थी। लोग बहुत सुखी थे। सुदामा पूछते-पूछते कृष्ण के महल तक पहुँचे। दरवान ने साधू जैसे लगनेवाले सुदामा से पूछा, "एय, यहाँ क्या काम है ?"

सुदामा ने जवाब दिया, "मुझे कृष्ण से मिलना है। वह मेरा मित्र है। अंदर जाकर कहिए कि सुदामा आपसे मिलने आया है।" दरवान को सुदामा के वस्त्र देखकर हँसी आई। उसने जाकर कृष्ण को बताया। सुदामा का नाम सुनते ही कृष्ण खड़े हो गए ! और सुदामा से मिलने दौड़े । सभी आश्चर्य से देख रहे थे ! कहाँ राजा और कहाँ ये साधू ?

कृष्ण सुदामा को महल में ले गए। सांदीपनी ऋषि के गुरुकुल के दिनों की यादें ताज़ा की। सुदामा कृष्ण की समृद्धि देखकर शर्मा गए। सुदामा पोहे की पोटली छुपाने लगे, लेकिन कृष्ण ने खिंच ली। कृष्ण ने उसमें से पोहे निकाले। और खाते हुए बोले, "ऐसा अमृत जैसा स्वाद मुझे और किसी में नहीं मिला।"

बाद में दोनों खाना खाने बैठे। सोने की थाली में अच्छा भोजन परोसा गया। सुदामा का दिल भर आया। उन्हें याद आया कि घर पर बच्चों को पूरा पेट भर खाना भी नहीं मिलता है। सुदामा वहाँ दो दिन रहे। वे कृष्ण के पास कुछ माँग नहीं सके। तीसरे दिन वापस घर जाने के लिए निकले। कृष्ण सुदामा के गले लगे और थोड़ी दूर तक छोड़ने गए।

घर जाते हुए सुदामा को विचार आया, "घर पर पत्नी पूछेगी कि क्या लाए ? तो क्या जवाब दूँगा ?"

सुदामा घर पहुँचे। वहाँ उन्हें अपनी झोपड़ी नज़र ही नहीं आई ! उतने में ही एक सुंदर घर में से उनकी पत्नी बाहर आई। उसने सुंदर कपड़े पहने थे। पत्नी ने सुदामा से कहा, "देखा कृष्ण का प्रताप ! हमारी गरीबी चली गई कृष्ण ने हमारे सारे दुःख दूर कर दिए।" सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया। उनकी आँखों में खूशी के आँसू आ गए।

देखा दोस्तों, कृष्ण और सुदामा का प्रेम यानी सच्चा मित्र प्रेम। तो दोस्तों सच्चे प्रेम में ऊँच या नीच नहीं देखी जाती और न ही अमीरी-गरीबी देखी जाती है। इसीलिए आज इतने युगों के बाद भी दुनिया कृष्ण और सुदामा की दोस्ती को सच्चे मित्र प्रेम के प्रतीक के रूप में याद करती है।

गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

यहां रखा है भगवान गणेश का कटा हुआ सिर: पाताल भुवनेश्वर की गुफा




 भगवान शिव द्वारा गणेशजी का मस्तक कटे जाने और फिर हाथी का मस्तक लगाने की कथा तो सभी जानते हैं पर क्या आप जानते हैं कि हाथी का मस्तक लगने के बाद गणेशजी के पहले मस्तक का क्या हुआ। यह लेख इसी सवाल का जवाब है। उत्तराखंड के पिथौला में स्थित है पाताल भुवनेश्वर गुफा। यह गुफा एक आश्चर्य है। यह स्थान भक्तों की आस्था का केंद्र है। यह गुफा एक विशाल पहाड़ी में लगभग 90 फुट अंदर स्थित है। यह गुफा उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के प्रसिद्ध नगर अल्मोड़ा से शेराघाट होते हुए 160 किमी. की दूरी तय कर मनोरम पहाड़ी वादियों के बीच बसे सीमान्त कस्बे गंगोलीहाट में स्थित है।




इस गुफा में विराजमान है गणेशजी का कटा मस्तक.
भगवान गणेश हिन्दू धर्म में प्रथम पूज्य देव हैं। भगवान शिव ने क्रोधवश गणेशजी का मस्तक काट दिया। इसके बाद देवी पार्वती के कहने पर भगवन शिव ने गणेशजी के धड़ पर हाथी का मस्तक लगाकर पुनः जीवनदान दिया और कटा हुआ मस्तक इस गुफा में रख दिया।
 
यहां भगवान शिव ने की थी 108 पंखुड़ियों वाले कमल की स्थापना।


यहां स्थित शिलारुपी गणेशजी के सिर के ठीक ऊपर 108 पंखुड़ियों वाला ब्रह्मकमल सुशोभित है। यह आश्चर्य से कम नहीं है कि इस कमल से पानी की बूंदें टपकती हैं जो श्री गणेश के मुख में गिरती हैं। यह दृश्य अद्भुत और दिव्य है। कहा जाता है कि यह दिव्य कमल यहां भगवान शिव ने ही स्थापित किया था।

यहां स्थित एक पत्थर बताता है कि कलियुग का अंत कब होगा।
इस गुफा में चार पत्थर स्थित हैं जिन्हें युगों का प्रतीक माना जाता है। इनमें से एक पत्थर जिसे कलियुग का प्रतीक माना जाता है वह धीरे धीरे ऊपर उठ रहा है। कहा जाता है कि जिस दिन यह पत्थर ऊपर दीवार को छू जायेगा तब कलियुग का अंत हो जायेगा।

गुफा में केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ भी स्थित हैं।
इस गुफा की एक विशेषता यह भी है कि यहां केदारनाथ, बद्रीनाथ तथा अमरनाथ के भी दर्शन किये जा सकते हैं। यहां इनकी शिलारुपी प्रतिमायें स्थित हैं। यहां पत्थर से ही निर्मित जटायें भी फैली हुई हैं। इनके बारे में कहा जाता है कि ये जटायें भगवान शिव की जटायें हैं। इसी गुफा में कालभैरव की जीभ के भी दर्शन किये जा सकते हैं जिसके बारे में मान्यता है कि यदि मनुष्य काल भैरव के मुख में प्रवेश कर पूंछ तक पहुँच जाये तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

इस गुफा का पौराणिक महत्त्व भी है।
इस गुफा का उल्लेख पुराणों. में मिलता है। स्कन्दपुराण में वर्णन है कि स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान हैं और अन्य देवी देवता उनकी स्तुति करने यहाँ आते हैं। यह भी वर्णन है कि त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफ़ा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने इस गुफ़ा के भीतर महादेव शिव सहित 33 कोटि देवताओं के साक्षात दर्शन किये। द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलियुग में जगदगुरु आदि शंकराचार्य लगभग 822 ई के आस-पास यहाँ आये तब उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया था।