मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

वैष्णव और शैव की अद्भुत कथा, ॐ हरि हराय् नमः


एक समय की बात है की महर्षि गौतम ने भगवान शंकर को खाने पर आमंत्रित किया। उनके इस आग्रह को शिव जी ने स्वीकार कर लिया उनके साथ चलने के लिए भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी भी तैयार हो गए। महर्षि के आश्रम मे पहुच कर तीनो वहाँ बैठ गए।

भोले बाबा और श्री हरी विष्णु एक शैय्या पर लेटकर बहुत देर तक प्रेमालाप करते रहे। इसके बाद उन दोनो ने आश्रम के पास ही एक तालाब मे नहाने चले गए वहा पर भी वे बहुत देर तक जलक्रीडा करते रहे। भगवान शिव जी ने पानी मे खडे श्री हरी पर जल की कोमल बूंदों से प्रहार किया इस प्रहार को विष्णु जी सहन ना कर सके और अपनी आँखें मुँद ली। इस पर भी भगवान शिव जी को संतोष नही मिला और वे झट से कुदकर वे विष्णु जी के कंधे पर चढ गए और भगवान विष्णु को कभी पानी मे दबा देते तो कभी पानी के ऊपर ले आते इस प्रकार बार-बार तंग करने पर विष्णु जी ने भी अब शिव जी को पानी मे दे मारा।

दोनो के इस प्रकार के खेल को देखकर देवता गण हर्षित हो रहे थे और दोनो की लीला को देखकर मन ही मन उन्हे प्रणाम कर रहे थे। उसी समय नारद जी वहाँ से गुजर रहे थे ये लीला देखकर वे सुंदर वीणा बजाने लगे और गाना भी गाने लगे उनके साथ शिव जी भी भीगे शरीर मे ही सुर से सुर मिलाने लगे फिर तो विष्णु जी भी पानी से बाहर आकर म्रदंग बजाने लगे। जब ब्रह्मा जी ने स्वर सुना तो फिर वे भी मस्ती के इस क्रम मे शामिल हो गए।

बची-खुची जो भी कसर थी वो श्री हनुमान जी ने पुरी कर दी जब वे राग आलापने लगे तो सभी चुप हो कर शान्ति से उनका संगीत सुनने लगे। सभी देव, नाग, किन्नर, गन्धर्व आदि उस अलौकिक लीला को देख रहे थे और अपनी आँखें धन्य कर रहे थे। उधर महर्षि गौतम ये सोचकर परेशान थे कि स्नान को गए मेरे पुज्य अतिथि गण अब तक क्यो नही आए उन्हे चिन्ता हो रही थी और इधर तो भगवान को धमाचौकड़ी मचाने से फुर्सत कहाँ।

सब एक दुसरे के गाने बजाने मे इतने मगन थे कि उन्हे ये भी याद न रहा कि वे महर्षि गौतम के अतिथि बन यहाँ आए हैं। फिर महर्षि गौतम ने बड़ी ही मुश्किल से उन्हे भोजन के लिए मनाया आश्रम लेकर आए और भोजन परोसा।

तीनो ने भोजन करना शुरु किया। इसके बाद हनुमान जी ने फिर संगीत गाना शुरु कर दिया। सुर मे मस्त शिव जीने अपने एक पैर को हनुमान जी के हाथों पर और दुसरे पैर को हनुमान जी सीने, पेट, नाक,आँख आदि अंगो का स्पर्श कर वही लेट गये। यह देखकर भगवान विष्णु ने हनुमान से कहा – “हनुमान तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो शिव जी के चरण तुम्हारे शरीर को स्पर्श कर रहे है। जिस चरणो की छाँव पाने के लिए सभी देव-दानव आदि लालायीत रहते है।

उन चरणो की छाँव सहज ही तुम्हे प्राप्त हो गये है। अनेक साधु-संत और कई साधक जन्मो तक तपस्या और साधना करते है फिर भी उन्हे ये सौभाग्य प्राप्त नही होता। मैंने भी सहस्त्र कमलों से इनकी अर्चना की थी पर ये सुख मुझे भी न मिला। आज मुझे तुमसे ईष्या का अनुभव हो रहा हैं। सभी लोको मे यह बात सब जानते है कि नारायण भगवान शंकर के परम प्रितीभाजन है पर यह देखकर मुझे संदेह-सा हो रहा है।” यह सुन कर भगवान शिव शंकर बोल उठे- “हे नारायण ये क्या कह रहे है आप तो मुझे प्राणो से भी प्यारे है।

औरो की क्या बात है देवी पार्वती भी आपसे अधिक प्रिय नही है मेरे लिए आप तो जानते ही है।” भगवती पार्वती जी उधर कैलाश मे ये सोचकर परेशान हो रही थीं कि आज कैलाशपति शिव जी कहाँ चले गये कही मुझे से रुठकर तो नही चले गये। यह सोचकर देवी पार्वती शिव जी को ढुढते- ढुढते आश्रम पहुचे और पता चला कि मेरे स्वामी शिव जी, विष्णु जी और ब्रह्मा जी महर्षि गौतम के यहा मेहमानी मे गये हैं। उन्होनें भी महर्षि गौतम का परोसा खाना खाया। इसके बाद विनोदवश देवी पार्वती ने शिव जी के वेश-भूषा को लेकर हंसी उड़ाई और बहुत सी ऐसी बातें कही जो अक्सर पति पत्नि प्रेम से एक दुसरे को कुछ भला बुरा कहते रहते हैं।

ये बात सुनकर भगवान विष्णु जी से रहा नही गया और वे बोल उठे- “देवी! ये आप क्या कह रही है। मुझसे आपकी बात सही नही जा रही। जहाँ शिव निन्दा होती है वहाँ मैं प्राण धारण कर नही रह सकता।” इतना कहकर श्री हरी ने अपने नाखुनो से अपने ही सिर को फाड़ने लगे। यह देखकर सभी ने उन्हें रोकने की कोशिश की पर वे नही मान रहे थे फिर शिव जी के अनुरोध पर वे रुके। इनके इस प्रेम को देखकर हमे ये समझना चाहिए कि ये दोनो किसी भी प्रकार से अलग नहीं हैं, फिर हम किस कारण विवाद करते है किसी को श्रेष्ठ और किसी को निम्न कहते है।

हिन्दू धर्म में, विष्णु (=हरि) तथा शिव (=हर) का सम्मिलित रूप हरिहर कहलाता है। इनको 'शंकरनारायण' तथा 'शिवकेशव' भी कहते हैं। विष्णु तथा शिव दोनों का सम्मिलित रूप होने के कारण हरिहर वैष्णव तथा शैव दोनों के लिये पूज्य हैं।
ॐ हरि हराय् नमः
💓महादेव💓☘️ हरि हर🌿💓 महादेव

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

शनि देव जी की कथा



 एक बार सभी ग्रह एक साथ इकट्ठे हुए और आपस में बाते करने लगे | कुछ विषयों पर बात करते करते वो एक विषय पर आकर रुक गये कि “सबसे सम्मानित ग्रह कौनसा है ” | वो सब आपस में तर्क वितर्क करने लगे लेकिन कोई नतीजा नही निकला इसलिए उन्होंने इंद्र देव के पास जाने का विचार किया | तो सभी ग्रह इंद्र देव के पास गये और वो भी विस्मय में पड़ गये क्योंकि अगर वो किसी को उचा नीचा दिखायेंगे तो किसी भी ग्रह का कोप उन पर गिर सकता था | कुछ देर बाद विचार करने के बाद इंद्र देव ने कहा “मान्यवरो , मै इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हु लेकिन उज्जैयनी नगर में विक्रमादित्य नाम का राजा है जो आपके प्रश्न का उत्तर दे सकता है ” | इस तरह इंद्र देव के कहने पर सभी ग्रह राजा विक्रम के दरबार में गये |

विक्रमादित्य उस समय का सबसे पसंदीदा राजा था क्योंकि वो अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध था | जब उसने देखा कि सभी ग्रह उसके दरबार में आ रहे है तो वो तुंरत अपने सिंहासन से उठ गया और उन्हें अपने आसनों पर बैठने को कहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया | उन्होंने कहा “हम यहा तब तक आसनों पर नही बैठेंगे जब तक तुम ये न्याय ना कर दो कि हम सब में से सबसे ऊचा ग्रह कौनसा है ” | विक्रमादित्य भी ऐसा प्रश्न सुनकर विस्मय में पड़ गया लेकिन फिर उसने एक योजना बनाई | उसने आसनों की एक कतार उसके सिंहासन से द्वार तक बनाई और उन्हें बैठने को कहा जब तक कि वो इसका निर्णय करते है |

विक्रम के सबसे निकट वाले आसन पर बृहस्पति जी दौड़ते हुए जाकर बैठ गये | अगले आसन पर सूर्य , उसके बाद चन्द्रमा ,उसके बाद मंगल , फिर राहू ओर फिर केतु बैठ गये | शुक्र देव आठवे आसन पर बैठ गये और अब अंतिम आसन बचा था और शनि देव बच गये थे | लेकिन वो आसन सबसे अंतिम था और द्वार के नजदीक था इसलिए शनि देव ने वहा बैठने से मना कर दिया | विक्रम ने सोचा कि जो भी उस अंतिम आसन पर बैठकर विनम्रता दर्शायेगा उसे ही वो सबसे महान घोषित करेंगे लेकिन शनि देव के वहा नही बैठने से सब गडबड हो गया |

शनि देव एक क्रोध वाले देवता है | जब वो वहा पर नही बैठे तो सभी ग्रह हसने लग गये | शनि देव ने इसे अपना अपमान मानते हुए बहुत क्रोधित हुए और विक्रम से कहा “तुमने इस तरह मेरा अपमान करके अच्छा नही किया , तुम मुझे क्या मानते हो ? तुम मुझे अंत में बिठाने के लिए बुलाया है ? एक बात ध्यान रखना कि किसी भी राशि में चन्द्रमा सवा दो दिन ; सूर्य , बुध और शुक्र केवल 15 दिन ; मंगल 2 महीने ; गुरु 13 महीने और राहू-केतु 18 महीने तक रहते है लेकिन मै साढ़े सात साल तक किसी भी राशि में रहता हु | इसलिए तुम अब अपना ध्यान रखो , तुम्हे भी मेरे अपमान का दंड सहना पड़ेगा | ”

राजा विक्रम कुछ दिनों तक बिना कीसी मुसीबत के दिन गुजारे लेकिन जल्द ही राजा के साढ़े साती शुरू हो गये | उन दिनों में एक अश्व व्यापारी वहा आया और वहा घोड़े बेचने के लिए रुका | राजा ने भी कुछ सुंदर घोड़े खुद के लिए खरीदे | उनमे से एक घोड़े का नाम भंवर था जिसे राजा बहुत पसंद करता था | राजा उस घोड़े पर सवार हो गया और इधर उधर घुमने लगा तभी कुछ देर बाद वो दौड़ता हुआ राजा को एक घने जंगल में छोडकर भाग गया | राजा को ये देखकर बहुत आश्चर्य हुआ और अब वो उस जंगल में भूखा-प्यासा भटकने लगा |

जब रात हुयी तो राजा को बड़ी जोरो की प्यास लगी जिससे वो जोर जोर से चिल्लाने लगा | एक दूधवाला उस रास्ते से गुजर रहा था उसने विक्रम को देख लिया | वो विक्रम को पास की नदी पर लेकर गया और उसे शीतल जल पिलाया | विक्रम बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उस दूधवाले को अपनी सोने की अंगूठी निकालकर दे दी और कहा “मै उज्जैन रहता हु और रास्ता भटक गया हु , क्या तुम मुझे रास्ता बता सकते हो ” | वो दूधवाला उसको गाँव में लेकर आया और उसको एक दुकानदार ने भोजन कराया | विक्रम ने दुकानदार को भी एक अंगूठी दी और उसको भी विक्रम ने रास्ता भटकने वाली बात बताई |

अब वो उस दुकानदार के साथ पुरे दिन बाते करता रहा और उस दिन दुकानदार को खूब आमदनी हुयी | उसने सोचा इस आदमी की वजह से उसकी आज अच्छी आमदनी हुयी इसलिए उसने विक्रम को उसके साथ शाम को घर चलने को कहा | विक्रम उसके साथ घर गया और दुकानदार ने उसकी खूब खातिरदारी की | अब खाना खाते वक़्त एक अजीब घटना हुयी , जब विक्रम खाना खा रहा था तो वहा पर दीवार पर रखा हुआ सोने का हार गायब हो गया | दुकानदार की नौकरानी ने उसकी पत्नी को गले का हार चोरी होने की खबर दी | जब दुकानदार ने ये बात सूनी तो उसने विक्रम से हार के बारे में पूछा तो विक्रम के हार के बारे में कुछ भी पता होने से इंकार कर दिया |

दुकानदार ने कहा “जब हार चोरी हुआ तक तुम्हारे अलावा यहा कोई बाहर का व्यक्ति नही था , तुम जल्दी बताओ कि वो हार कहा है ” | विक्रम ने कहा “मै हार के बारे में कुछ नही जानता हु और मैंने हार नही चुराया है “| दुकानदार विक्रम को राजा के पास लेकर गये | जब राजा ने विक्रम के भोले चेहरे को देखा तो उसने कहा “ये आदमी कुछ चोरी नही कर सकता है ” | इस तरह राजा ने विक्रम को आजाद कर दिया | अब विक्रम शहर में घूम रहा था तभी के तेली ने उसे देखा और उसको अपने यहाँ काम करने के लिए पुछा | उस तेली ने विक्रम को काम के बदले रहने खाने की व्यवस्था देने को कहा | विक्रम राजी हो गया और वो तेली विक्रम को घर लेकर आ गया |
अब विक्रम कोल्हू के बैल को चलाने का काम करने लगा और वो तेली तेल को बाजार में बेचने जाता था | जब बारिश का मौसम आया तब विक्रम तेज आवाज में गाना गाने लगा | उसकी आवाज पास ही राजा के महल तक पहुच गयी और राजकुमारी इस मधुर स्वर पर मोहित हो गयी | उसने अपनी दासी को भेजकर उस आदमी का पता लगाने को कहा | दासी वहा गयी और उसने राजकुमारी को बताया कि एक नौजवान अपनी आंखे बंद कर गा रहा था | राजकुमारी उसके प्यार में खाना पीना भूल गयी थी | उसकी माँ ने उससे अपनी इस दशा का कारण पूछा | राजकुमारी ने कहा कि वो अगर वो विवाह करेगी तो सिर्फ उस मधुर गाना गाने वाले तेली से विवाह करेगी |

जब राजा ने अपनी पुत्री की ये मांग सूनी तो वो बहुत क्रोधित हुआ | उसने विक्रम को बुलाया और उसके हाथ काटकर उसे जंगल में फेंक दिया | जब राजकुमारी को इस बात का पता चला तो उसने अपने मन को मजबूत करते हुए कहा कि अगर वो विवाह करेगी तो सिर्फ उसी तेली से चाहे उसके हाथ हो या ना हो | अपनी बेटी की जिद को देखते हुए राजा ने विक्रम को बुलाया और उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया | राजा ने उनके रहने के लिए एक साधारण घर भी दिया |

एक दिन विक्रम सो रहा था और शनि देव उसके स्वप्न में आये , उसने शनि देव को प्रणाम किया और गलती की माफी माँगी | शनि देव ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा “अब तुम्हारे साढ़े साती खत्म होते है ” | और विक्रम के दोनों हाथ वापस आ गये | विक्रम ने अपनी पत्नी को नही जगाया और सुबह उसकी पत्नी उसके दोनों हाथ देखकर बहुत खुश हुयी | राजा को भी इस खबर का पता चल गया तो वो भी विक्रम को देखने आया और उसने बताया कि वो शनि देव का कोप झेल रहा था और उन्ही की दयालुता से उसके दोनों हाथ वापस आ गये | तब उसने राजा को अपना पूरा परिचय दिया | विक्रम का परिचय सुनकर राजा उसके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा |

जब दुकानदार को इस बात का पता चला तो वो भी दौड़ता हुआ विक्रम के चरणों में गिर गये | विक्रम ने उस दुकानदार से कहा “घर जाओ , तुम्हे तुम्हारा हार वापस वही मिल जाएगा ” | दुकानदार घर गया और हार उसी जगह पर टंगा हुआ मिला |विक्रम ने राजा को वापस अपने प्रदेश लौटने को कहा | राजा ने उसे उपहारस्वरुप कई घोड़े ,हाथी और दसिया देकर विदा किया | विक्रमादित्य की जनता अपने राजा के वापस लौटने पर बहुत प्रसन्न हुयी | विक्रम ने अब नवग्रह की पूजा की और शनि देव को सबसे उच्च स्थान दिया।

शिव त्रिपुरारी


भगवान शिव को उनके भक्त त्रिपुरारी के नाम से पूजते है इसके पीछे शिवपुराण की एक कथा है।

शिवपुराण के अनुसार एक बार एक महादैत्य हुआ जिसका नाम था तारकासुर। इन दैत्य के तीन पुत्र हुए जिनके नाम तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली था। शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया । इस घटना से तीनो पुत्रो ने बदला लेने के लिए घोर तपस्या की और ब्रह्माजी को प्रसन्न कर दिया । उन्होंने अमरता का वरदान माँगा पर ब्रह्माजी ने इसमे असमर्था दिखाई और अन्य कोई वरदान मांगने के लिए कहा।

तब तीनो ने ब्रह्माजी से कहा की हम तीनो के लिए ऐसे तीन नगर बसाये जो आकाश में उड़ते हो और एक हजार साल बाद हम तीनो जब मिले तब एक ही बाण से हम एक साथ मर सके , बस इसके अलावा हमारी मृत्यु नही हो। ब्रह्माजी ने उन्हें यह वरदान दे दिया ।

वरदान पाकर उन तीनो भाइयो ने हर लोक में अलग अलग होकर अपना आतंक फैलाना शुरू कर दिया, मनुष्य देवता सभी उनसे भय खाने लगे। सभी त्राहिमाम त्राहिमाम करते करते भगवान शिव के पास गये और अपने भय और दुःख और उनके समक्ष प्रकट किया। उनकी करुणामई विनती पर शिवजी उन तीनो का वध करने के लिए तैयार हो गये ।

विश्वकर्मा ने भगवान शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया।

कैसा था यह दिव्य रथ 
इस दिव्य रथ में सभी देवी देवताओ की शक्ति समाहित थी। सूर्य चन्द्र इस रथ के पहिये बने, यम कुबेर इंद्र अरुण आदि देवता इस रथ के घोड़े बन गये। भगवान विष्णु वो दिव्य तीर बने और शेषनाग बना धनुष की प्रत्यंचा और हिमालय पर्वत बना धनुष, फिर भगवान शिव इस रथ में सवार होकर सही समय पर उन तीनो भाइयो के समक्ष खड़े हो गये । जैसे ही वो तीनो भाई एक सीध में खड़े हुए तभी शिवजी ने अपना धनुष से तीर चला दिया। ऐसा दिव्य तीर देखकर दैत्यों में हाहाकार मच गया। तीर तीनो भाइयो (त्रिपुरो ) को लगा और क्षण भर में ही उनके प्राण निकल गये। सभी देवी देवताओ ने शिवजी की जयजयकार त्रिपुरारी के नाम से लगाईं।

जय हो त्रिपुरो का अंत करने वाले शिव त्रिपुरारी जी की।
।। हर हर त्रिपुरारी महादेव ।।

रविवार, 1 दिसंबर 2019

श्री दुर्गा चालीसा


 ॥चौपाई॥

नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो अम्बे दुःख हरनी॥
निराकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥
शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥
रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥

तुम संसार शक्ति लय कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥
अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥
प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥

रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि-मुनिन उबारा॥
धरा रूप नरसिंह को अम्बा। प्रगट भईं फाड़कर खम्बा॥
रक्षा कर प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥

क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥
मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥

केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥
कर में खप्पर-खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजे॥
सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥
नगर कोटि में तुम्हीं विराजत। तिहुंलोक में डंका बाजत॥

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥
रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥
परी गाढ़ सन्तन पर जब-जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥

अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥
प्रेम भक्ति से जो यश गावै। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥

जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥
शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥
शक्ति रूप को मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥

शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥
मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥
आशा तृष्णा निपट सतावे। मोह मदादिक सब विनशावै॥

शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥
करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दे करहु निहाला॥
जब लगि जियउं दया फल पाऊं। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं॥
दुर्गा चालीसा जो नित गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥
देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥