बुधवार, 29 अप्रैल 2020

शिव के डमरू की नाद (आवाज) में होती हैं ये अद्भूत क्षमतायें!


सनातन धर्म संस्कृति मानता है कि ध्वनि और शुद्ध प्रकाश से ही ब्रह्मांड की रचना हुई है! आत्मा इस जगत का कारण है! सनातन धर्म में कुछ ध्वनियों को पवित्र और रहस्यमयी माना गया है, जैसे- मन्दिर की घंटी, शंख, बांसुरी, वीणा, मंजीरा, करतल, पुंगी या बीन, ढोल, नगाड़ा, मृदंग, चिमटा, तुनतुना, घाटम, दोतार, तबला और डमरू!

डमरू या डुगडुगी एक छोटा संगीत वाद्य यंत्र होता है! डमरू को हिन्दू, तिब्बती और बौद्ध धर्म में बहुत महत्व दिया गया है! भगवान शंकर के हाथों में डमरू को दर्शाया गया है! साधु और मदारियों के पास अक्सर डमरू मिल जाएगा!

शंकु आकार के बने इस ढोल के बीच के तंग हिस्से में एक रस्सी बंधी होती है जिसके पहले और दूसरे सिरे में पत्थर या कांसे का एक-एक टुकड़ा लगाया जाता है! जब डमरू को मध्य से पकड़ कर हिलाया जाता है तो यह डला (टुकड़ा) पहले एक मुख की खाल पर प्रहार करता है और फिर उलट कर दूसरे मुख पर, जिससे 'डुग-डुग' की आवाज उत्पन्न होती है, इसीलिए इसे डुगडुगी भी कहते हैं!

डमरू की 14 आवाजें 

वेबदुनिया की रिसर्च अनुसार जब डमरू बजता है तो उसमें से 14 प्रकार की ध्वनि निकलती हैं! पुराणों में इसे मंत्र माना गया! यह ध्वनि इस प्रकार है:- 'अइउण्‌, त्रृलृक, एओड्, ऐऔच, हयवरट्, लण्‌, ञमड.णनम्‌, भ्रझभञ, घढधश्‌, जबगडदश्‌, खफछठथ, चटतव, कपय्‌, शषसर, हल्‌ ! उक्त आवाजों में सृजन और विध्वंस दोनों के ही स्वर छिपे हुए हैं! यही स्वर व्याकरण की रचना के सूत्र धार भी है! सद्ग्रन्थों की रचना भी इन्ही सूत्रों के आधार पर हुई !

डमरू बजने का लाभ

पुराणानुसार भगवान शिव नटराज के डमरू से कुछ अचूक और चमत्कारी मंत्र निकले थे! कहते हैं कि यह मंत्र कई बीमारियों का इलाज कर सकते हैं! कोई भी कठिन कार्य हो शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है! उक्त मंत्र या सूत्रों के सिद्ध होने के बाद जपने से सर्प, बिच्छू के काटे का जहर उतर जाता है! ऊपरी बाधा हट जाती है! माना जाता है कि इससे ज्वर, सन्निपात आदि को भी उतारा जा सकता है!

रहस्य

डमरू की ध्वनि जैसी ही ध्वनि हमारे अन्दर भी बजती रहती है, जिसे अ, उ और म या ओम् कहते हैं! हृदय की धड़कन व ब्रह्माण्ड की आवाज में भी डमरू के स्वर मिश्रित हैं!

डमरू की आवाज लय में सुनते रहने से मस्तिष्क को शांति मिलती है और हर तरह का तनाव हट जाता है!इसकी आवाज से आस-पास की नकारात्मक ऊर्जा व शक्तियों का पलायन हो जाता है! डमरू भगवान शिव का वाद्ययंत्र ही नहीं यह बहुत कुछ है! इसे बजाकर भूकम्प लाया जा सकता है व बादलों में भरा पानी भी बरसाया जा सकता है!

डमरू की आवाज यदि लगातर एक जैसी बजती रहे तो इससे चारों ओर का वातावरण बदल जाता है! यह बहुत भयानक भी हो सकता है और और सुखदायी भी! डमरू के भयानक आवाज से लोगों के हृदय भी फट सकते हैं! कहते हैं कि भगवान शंकर इसे बजाकर प्रलय भी ला सकते हैं! यह बहुत ही प्रलयंकारी आवाज सिद्ध हो सकती है! डमरू की आवाज में अनेक गुप्त रहस्य छिपे हुए हैं! महादेव की पूजार्चना में डमरु की ध्वनि का विशेष महत्त्व हैं!

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

क्यों चढ़ाते हैं शिवलिंग पर भस्म?


शिवजी के पूजन में भस्म अर्पित करने का विशेष महत्व है। बारह ज्योर्तिलिंग में से एक उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर में प्रतिदिन भस्म आरती विशेष रूप से की जाती है। यह प्राचीन परंपरा है। आइए जानते है शिवपुराण के अनुसार शिवलिंग पर भस्म क्यों अर्पित की जाती है ?

भस्म का रहस्य?

शिवजी का प्रमुख वस्त्र भस्म यानी राख है, क्योंकि उनका पूरा शरीर भस्म से ढंका रहता है। शिवपुराण के अनुसार भस्म सृष्टि का सार है, एक दिन संपूर्ण सृष्टि इसी राख के रूप में परिवर्तित हो जानी है। ऐसा माना जाता है कि चारों युग (त्रेता युग, सत युग, द्वापर युग और कलियुग) के बाद इस सृष्टि का विनाश हो जाता है और पुन: सृष्टि की रचना ब्रह्माजी द्वारा की जाती है। यह क्रिया अनवरत चलती रहती है। इस सृष्टि के सार भस्म यानी राख को शिवजी सदैव धारण किए रहते हैं। इसका यही अर्थ है कि एक दिन यह संपूर्ण सृष्टि शिवजी में विलीन हो जानी है।

ऐसे तैयार की जाती है भस्म.

शिवपुराण के लिए अनुसार भस्म तैयार करने के लिए कपिला गाय के गोबर से बने कंडे, शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर के वृक्ष की लकडिय़ों को एक साथ जलाया जाता है। इस दौरान उचित मंत्रोच्चार किए जाते हैं। इन चीजों को जलाने पर जो भस्म प्राप्त होती है, उसे कपड़े से छान लिया जाता है। इस प्रकार तैयार की गई भस्म शिवजी को अर्पित की जाती है।

भस्म से बढ़ता है आकर्षण.

ऐसा माना जाता है कि इस प्रकार तैयार की गई भस्म को यदि कोई इंसान भी धारण करता है तो वह सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त करता है। शिवपुराण के अनुसार ऐसी भस्म धारण करने से व्यक्ति का आकर्षण बढ़ता है, समाज में मान-सम्मान प्राप्त होता है। अत: शिवजी को अर्पित की गई भस्म का तिलक लगाना चाहिए।


भस्म से होती है शुद्धि.

जिस प्रकार भस्म यानी राख से कई प्रकार की वस्तुएं शुद्ध और साफ की जाती है, ठीक उसी प्रकार यदि हम भी शिवजी को अर्पित की गई भस्म का तिलक लगाएंगे तो अक्षय पुण्य की प्राप्ति होगी और कई जन्मों के पापों से मुक्ति मिल जाएगी।

भस्म की विशेषता.

भस्म की यह विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसे शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्म, त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम भी करती है। शिवजी का निवास कैलाश पर्वत पर बताया गया है, जहां का वातावरण एकदम प्रतिकूल है। इस प्रतिकूल वातावरण को अनुकूल बनाने में भस्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भस्म धारण करने वाले शिव संदेश देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढाल लेना चाहिए। जहां जैसे हालात बनते हैं, हमें भी स्वयं को उसी के अनुरूप बना लेना चाहिए।

जब शनि देव के सामने हार मानी भगवान शिव ने !


पौराणिक कथा के अनुसार एक समय शनि देव भगवान शंकर के धाम हिमालय पहुंचे। उन्होंने अपने गुरुदेव भगवान शंकर को प्रणाम कर उनसे आग्रह किया," हे प्रभु! मैं कल आपकी राशि में आने वाला हूं अर्थात मेरी वक्र दृष्टि आप पर पड़ने वाली है।

शनिदेव की बात सुनकर भगवान शंकर हतप्रभ रह गए और बोले, "हे शनिदेव! आप कितने समय तक अपनी वक्र दृष्टि मुझ पर रखेंगे।"

शनिदेव बोले, "हे नाथ! कल सवा प्रहर के लिए आप पर मेरी वक्र दृष्टि रहेगी। शनिदेव की बात सुनकर भगवन शंकर चिंतित हो गए और शनि की वक्र दृष्टि से बचने के लिए उपाय सोचने लगे।"

शनि की दृष्टि से बचने हेतु अगले दिन भगवन शंकर मृत्युलोक आए। भगवान शंकर ने शनिदेव और उनकी वक्र दृष्टि से बचने के लिए एक हाथी का रूप धारण कर लिया। भगवान शंकर को हाथी के रूप में सवा प्रहर तक का समय व्यतीत करना पड़ा तथा शाम होने पर भगवान शंकर ने सोचा, अब दिन बीत चुका है और शनिदेव की दृष्टि का भी उन पर कोई असर नहीं होगा। इसके उपरांत भगवान शंकर पुनः कैलाश पर्वत लौट आए। भगवान शंकर प्रसन्न मुद्रा में जैसे ही कैलाश पर्वत पर पहुंचे उन्होंने शनिदेव को उनका इंतजार करते पाया। भगवान शंकर को देख कर शनिदेव ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। भगवान शंकर मुस्कराकर शनिदेव से बोले,"आपकी दृष्टि का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ।"

यह सुनकर शनि देव मुस्कराए और बोले," मेरी दृष्टि से न तो देव बच सकते हैं और न ही दानव यहां तक कि आप भी मेरी दृष्टि से बच नहीं पाए।"

यह सुनकर भगवान शंकर आश्चर्यचकित रह गए। शनिदेव ने कहा, मेरी ही दृष्टि के कारण आपको सवा प्रहर के लिए देव योनी को छोड़कर पशु योनी में जाना पड़ा इस प्रकार मेरी वक्र दृष्टि आप पर पड़ गई और आप इसके पात्र बन गए।

शनि देव की न्यायप्रियता देखकर भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और शनिदेव को हृदय से लगा लिया।

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

ब्रह्मकमल


ब्रह्मकमल का अर्थ है ‘ब्रह्मा का कमल’। यह माँ नन्दा का प्रिय पुष्प है। ब्रह्मकमल 3000-5000 मीटर की ऊँचाई में पाया जाता है। ब्रह्मकमल उत्तराखंड का राज्य पुष्प है। और इसकी भारत में लगभग 61 प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमें से लगभग 58 तो अकेले हिमालयी इलाकों में ही होती हैं। 

ब्रह्मकमल का वानस्पतिक नाम सोसेरिया ओबोवेलाटा है। यह एसटेरेसी वंश का पौंधा है। इसका नाम स्वीडन के वैज्ञानिक डी सोसेरिया के नाम पर रखा गया था। ब्रह्मकमल को अलग-अगल जगहों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे उत्तरखंड में ब्रह्मकमल, हिमाचल में दूधाफूल, कश्मीर में गलगल और उत्तर-पश्चिमी भारत में बरगनडटोगेस नाम से इसे जाना जाता है। 

ब्रह्मकमल भारत के उत्तराखंड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश, कश्मीर में पाया जाता है। भारत के अलावा यह नेपाल, भूटान, म्यांमार, पाकिस्तान में भी पाया जाता है। उत्तराखंड में यह पिण्डारी, चिफला, रूपकुंड, हेमकुण्ड, ब्रजगंगा, फूलों की घाटी, केदारनाथ आदि जगहों में इसे आसानी से पाया जा सकता है। 

इस फूल के कई औषधीय उपयोग भी किये जाते हैं। इस के राइज़ोम में एन्टिसेप्टिक होता है इसका उपयोग जले-कटे में उपयोग किया जाता है। गर्मकपड़ों में डालकर रखने से यह कपड़ों में कीड़ों को नही लगने देता है। इस पुष्प का इस्तेमाल सर्दी-ज़ुकाम, हड्डी के दर्द आदि में भी किया जाता है।

 इस फूल की संगुध इतनी तीव्र होती है कि इल्का सा छू लेने भर से ही यह लम्बे समय तक महसूस की जा सकती है और कभी-कभी इस की महक से मदहोशी सी भी छाने लगती है। इस फूल की धार्मिक मान्यता भी बहुत हैं। इसे नन्दाष्टमी के समय में तोड़ा जाता है और इसके तोड़ने के भी सख्त नियम होते हैं जिनका पालन किया जाना अनिवार्य होता है। यह फूल अगस्त के समय में खिलता है और सितम्बर-अक्टूबर के समय में इसमें फल बनने लगते हैं। इसका जीवन 5-6 माह का होता है।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

कैसे पहुंचे कैलाश मानसरोवर?


हिंदुओं के लिए कैलाश मानसरोवर का मतलब भगवान का साक्षात दर्शन करना है। कैलाश मानसरोवर को ब्रह्मांड का केंद्र माना जाता है।

हिंदुओं के लिए कैलाश मानसरोवर का मतलब भगवान का साक्षात दर्शन करना है। कैलाश मानसरोवर को ब्रह्मांड का केंद्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि पहाड़ों की चोटी वास्तव में सोने के बने कमल के फूल की पंखुड़ियां हैं जिन्हें भगवान विष्णु ने सृष्टि की संरचना में सबसे पहले बनाया था। इन पंखुड़ियों के शिखरों में से एक है कैलाश पर्वत। इस पर्वत पर भगवान शिव ध्यान की अवस्था में लीन हैं। उनके इस अध्यात्म से ही चारों तरफ वातावरण बेहद शुद्ध है और कहा जाता है कि अपनी किरणों से उन्होंने सृष्टि को संतुलित रखा हुआ है।

कहा जाता है कि कैलाश पर्वत पर साक्षात शिव और पार्वती निवास करते हैं। इस अद्भुत और अलौकिक नजारे को देखकर ही लोगों का शिव की मौजूदगी का मानो एहसास हो जाता है। सदियों से भक्त यहां अपने परमेश्वर की दर्शन करने के लिए आते हैं। जिंदगी में एक बार स्वर्ग में भगवान के दर्शन का एहसास यहीं मिलता है। इसलिए लोग हर साल हजारों की तादाद में अपने प्रिय शिव और पार्वती के दर्शन करने कैलाश आते हैं। लेकिन कैलाश मानसरोवर जाने का मन बनाने में और वहां तक पहुंचने में बहुत फर्क है। क्योंकि ये यात्रा बहुत मुश्किल कही जाती है। हिमालय की चोटियों के बीच से गुजरता ये रास्ता बेहद ही खतरनाक होता है। साथ ही मौसम बिगड़ने का खतरा अक्सर बना रहता है।

कैलाश पर्वत तक जाने के लिए दो रास्ते हैं। एक रास्ता भारत में उत्तराखंड से होकर गुज़रता है लेकिन ये रास्ता बहुत मुश्किल है क्योंकि यहां ज़्यादातर पैदल चलकर ही यात्रा पूरी हो पाती है। दूसरा रास्ता जो थोड़ा आसान है वो है नेपाल की राजधानी काठमांडू से होकर कैलाश जाने का रास्ता। भगवान शिव और माता पार्वती ने अपने भक्तों के लिए जून से सितंबर तक के लिए अपना रास्ता खोल दिया है।

हम आपको बताते हैं कि नेपाल के रास्ते भगवान शिव के घर कैलाश मानसरोवर कैसे पहुंचे।

यात्रा का पहला दिन
सबसे पहले दिल्ली में सारी औपचारिकताएं पूरी की जाती है फिर हेल्थ चैकअप के बाद आपको सीधे काठमांडू ले जाया जाएगा। आप चाहें तो काठमंडू में एक दिन रुक कर अगले दिन से यात्रा आगे बढ़ा सकते हैं। लेकिन अक्सर लोग यहां पशुपतिनाथ जी के दर्शन के बाद ही कैलाश के दर्शन के लिए आगे का सफर शुरू करते हैं।

यात्रा का दूसरा दिन
काठमांडू से सुबह-सुबह कैलाश के लिए सफर शुरू हो जाता है। काठमांडू से तकरीबन एक घंटे की यात्रा के बाद फ्रेंडशिप ब्रिज पर मानसरोवर यात्रियों की यहीं पर कस्टम क्लियरेंस और पासपोर्ट की जांच चीनी अधिकारी करते हैं। यह पुल नेपाल-चीन की सीमा पर है और सभी कागजात की जांच होने के बाद यात्रा आगे बढ़ती है। यात्रा का पहला पड़ाव नायलम होता है। नायलम तिब्बत में है और समुद्र तल से इसकी ऊंचाई 3700 मीटर है। नायलम पहुंचने के बाद अक्सर लोग एक दिन यहां अपने शरीर को वातावरण के अनुकूल करने के लिए रुकते हैं।

यात्रा का तीसरा दिन
कहते हैं कि आस्था में इतनी ताकत होती है कि मुश्किल से मुश्किल रास्ता भी आसान हो जाता है। और श्रद्धालुओं को इसका एहसास भी होने लगता है। गाड़ी से आपको कारवां प्रतिदिन 260-270 किलोमीटर की दूरी तय करने का लक्ष्य लेकर चलता है। दूर-दूर तक फैला सन्नाटा और वीरानी, खामोशी का ऐसा मंजर पैदा कर देती है कि हर यात्री खुद-ब-खुद खामोश भगवान शिव के एहसास को महसूस करने लगता है। शाम तक आप सागा पहुंचेंगे।

यात्रा का चौथा दिन
सागा से चौथे दिन आपका सफर प्रयाग के लिए शुरू हो जाएगा। सागा से प्रयाग की दूरी 270 किलोमीटर के करीब है। दस घंटे की यात्रा के बाद प्रयाग में रात बितानी पड़ती है। चारों और अद्भुत नजारा और भगवान शिव के दर्शन की ललक शायद ही आपको थकान का एहसास भी होने देगी। क्योंकि पांचवें दिन मानसरोवर के दर्शन के होने वाले हैं।

यात्रा का पांचवां दिन
दिल्ली से महज चार दिन के सफर के बाद पांचवें दिन आप अद्भुत, अनोखा, पारलौकिक और एहसास की धरती मानसरोवर झील के सामने होंगे। मानसरोवर की छटा ही निराली होता है। दूर-दूर गहरा नीला पानी शान्त, निर्मल व स्वच्छता से परिपूर्ण फैला होता है और सामने ही होता है ओम पर्वत। 85 किलोमीटर में फैले मानसरोवर झील की विशालता ये एहसास कराती है कि धरती पर अगर स्वर्ग है तो कैलाश में ही है। कहा जाता है कि भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी शेषनाग की शय्या पर मानसरोवर पर विश्राम करते हैं। यही नहीं, ओम पर्वत की छटा देखकर आपको यूं लगेगा मानो साक्षात शिव अपनी छटा बिखेर रहे हैं। मानसरोवर के इस किनारे से कैलाश पर्वत का दक्षिणी हिस्सा दिखाई देता है।

मानसरोवर में स्नान करने का अद्भुत अनुभव अलौकिक होता है। लेकिन यहां से ओम पर्वत के दर्शन के बाद एक ललक जाग जाती है शिव और पार्वती के दर्शन की। कैलाश की परिक्रमा करने की। इसके लिए पहले मानसरोवर झील से 60 किलोमीटर दूर तारचंद का बेस कैम्प आपको पहुंचना होगा। वहां से सभी यात्रियों को कैलाश पर्वत की परिक्रमा करने की तैयारी करनी होती है और परिक्रमा आप या तो पैदल कीजिए या फिर घोड़े की सवारी के जरिए। 54 किलोमीटर की परिक्रमा करना आसान नहीं होता है, लेकिन कैलाश के आसपास का वातावरण ही इतना अद्भुत होता है कि आपको न तो थकान का एहसास होगा और न ही किसी डर का।

कैलाश दर्शन का छठा दिन
19800 फीट की ऊंचाई, फिर रास्ता सीढी़ की तरह कभी ऊंचाई तो कभी एकदम ढलान। समुद्रतल से ऊंचाई अधिक होने के कारण वहां ऑक्सीजन की थोडी कमी है। कई यात्रियों को सांस लेने में तकलीफ होने लगती है लेकिन उनके लिए ऑक्सीजन सिलेंडरों का इंतजाम होता है।

कैलाश दर्शन का सातवां दिन
मानसरोवर से तारचेन के लिए जाना होगा जो 40 किलोमीटर दूर है। ये कैलाश मानसरोवर की परिक्रमा का बेस कैंप माना जाता है। देहारा पुक के लिए पदयात्रा शुरू करनी होगी जहां की वादियों में आपको बेहद पवित्र अनुभव होने लगेगा। आसापास झरने और ठंडी हवाएं आपकी सारी थकान मिटा देंगी और आपकी पद यात्रा को सुखद बनाएंगी, जैसे ही जैसे आप आगे बढ़ते जाएंगे कैलाश पर्वत का मुख आपको नज़र आने लगेगा। परिक्रमा के दूसरे दिन आपको गौरी कुण्ड के दर्शन होंगे। माना जाता है कि माता पार्वती इसी कुण्ड में स्नान करती हैं। पुराणों में लिखा है कि गौरी कुण्ड के जलस्पर्श मात्र से ही सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। स्नान के बाद परिक्रमा फिर से शुरू हो जाती है। इस दिन 24 किलोमीटर की दूरी तय की जाती है। परिक्रमा के दौरान कैलाश पर्वत के पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी मुख के दर्शन होते हैं।

यकीन मानिए, सोने की चमक और चांदी की आभा कैलाश पर्वत पर देखकर आपको वापस अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में वापस लौटने का शायद ही मन करे। ये दिन सबसे मुश्किल लेकिन बेहद आध्यात्मिक और मन को शांति देने वाला होने वाला है। डोलमा ला पास पहुंचने के लिए आपको यमस्थल से शिवस्थल तक पहुंचना होगा, यहां पहुंचते ही आप बस सब कुछ भुला कर आंखें बंद करके बैठ जाइए। आपको लगेगा आप स्वर्ग में आ गए हैं और इतनी शांति शायद ही आपके मन को और कहीं नसीब हो पाई होगी।

इसके इलावा भी कई रास्तें है जिसके द्वारा हम कैलाश मानसरोवर पहुंच सकते है ।
ज्यादा जानकारी के लिए आप कैलाश मानसरोवर की भारत सरकार की आधिकारिक वेबसाइट पर सम्पर्क कर सकते हैं ।

जय कैलाशपति