सोमवार, 27 जुलाई 2020

शिव मूल मंत्र - ॐ नमः शिवाय॥


यह भगवान शिव का मूल मंत्र हैं। मंत्रों में सबसे लोकप्रिय मंत्र भी है जिसे हिंदू धर्म में आस्था रखने वाला हर शिव उपासक जपता है। इस मंत्र की खास बात यह है कि यह बहुत ही सरल मंत्र है जिसके द्वारा कोई भी भगवान शिव की उपासना कर सकता है। इस मंत्र में भगवान शिव को नमन करते हुए उनसे स्वयं के साथ-साथ जगत के कल्याण की कामना की जाती है।

महामृत्युंजय मंत्र
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनानत् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

यह माना जाता है कि इस महामृत्युंजय मंत्र के जाप से भगवान शिव को प्रसन्न कर उनकी असीम कृपा तो प्राप्त होती ही है साथ ही यदि साधक इस मंत्र का सवा लाख बार निरंतर जप कर ले तो वर्तमान अथवा भविष्य की समस्त शारीरिक व्याधियां एवं अनिष्टकारी ग्रहों के दुष्प्रभाव समाप्त किये जा सकते हैं। यह भी माना जाता है कि इस मंत्र की साधना से अटल मृत्यु को भी टाला जा सकता है। इस मंत्र का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। मंत्र में कहा गया है कि जो त्रिनेत्र हैं एवं हर सांस में जो प्राण शक्ति का संचार करने वाले हैं जिसकी शक्ति समस्त जगत का पालन-पोषण कर रही है हम उन भगवान शंकर की पूजा करते हैं। उनसे प्रार्थना करते हैं कि हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्ति दें ताकि मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो। जिस प्रकार ककड़ी पक जाने पर बेल के बंधन से मुक्त हो जाती है उसी प्रकार हमें भी ककड़ी की तरह इस बेल रुपी संसार से सदा के लिए मुक्त मिले एवं आपके चरणामृत का पान करते हुए देहत्याग कर आप में ही लीन हो जांए।

इस महामृत्युंजय मंत्र के 33 अक्षर हैं। महर्षि वशिष्ठ के अनुसार ये 33 अक्षर 33 देवताओं के प्रतीक हैं जिनमें 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्यठ, 1 प्रजापति एवं 1 षटकार हैं। इसलिए माना जाता है कि इस मंत्र सभी देवताओं की संपूर्ण शक्तियां विद्यमान होती हैं जिससे इसका पाठ करने वाले को दीर्घायु के साथ-साथ निरोगी एवं समृद्ध जीवन प्राप्त होता है।

कुछ साधक इस महामृत्युंजय मंत्र में संपुट लगाकर भी इसका उच्चारण करते हैं जो निम्न है:
ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुवः स्वः
ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ
रुद्र गायत्री मंत्र
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥

भगवान रुद्र अर्थात शिव साक्षात महाकाल हैं। सृष्टि के अंत का कार्य इन्हीं के हाथों है। उन्हें सृष्टि का संहारकर्ता माना जाता है। सभी देवताओं सहित तमाम दानव, मानव, किन्नर सब भगवान शिव की आराधना करते हैं। लेकिन मानसिक रुप से विचलित रहने वालों को मन की शांति के लिए रुद्र गायत्री मंत्र से भगवान शिव की आराधना करनी चाहिए। जिन जातकों की जन्म पत्रिका अर्थात कुंडली में कालसर्प, पितृदोष एवं राहु-केतु अथवा शनि का कोप है इस मंत्र के नियमित जाप एवं नित्य शिव की आराधना से सारे दोष दूर हो जाते हैं। इस मंत्र का कोई विशेष विधि-विधान भी नहीं है। इस मंत्र को किसी भी सोमवार से प्रारंभ किया जा सकता हैं। अगर उपासक सोमवार का व्रत करें तो श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। ध्यान रहे कोई भी आराधना तभी फलदायी होती है जब वो सच्चे मन से की जाती है।

शनिवार, 18 जुलाई 2020

लक्ष्मी जी के 108 नाम



देवी माँ लक्ष्मी के 108 नाम बहुत पवित्र और शुभ माने जाते है । इन नामो का जाप करने से व्यक्ति अपने जीवन मे शांति , खुशी और संतोष भरता है ।


लक्ष्मी जी के 108 नाम!


1 प्रकृति = प्रकृति
2 विकृति = दो रूपी प्रकृति
3 विद्या = बुद्धिमत्ता
4 सर्वभूतहितप्रदा= ऐसा व्यक्ति जो संसार के सारे सुख दे सके
5 श्रद्धा = जिसकी पूजा होती है
6 विभूति = धन की देवी
7 सुरभि स्वर्गीय = देवी
8 परमात्मिका = सर्वव्यापी देवी
9 वाची = जिसके पास अमृत भाषण की तरह हो
10 पद्मालया = जो कमल पर रहती है
11 पद्मा = कमल
12 शुचि = पवित्रता की देवी
13 स्वाहा = शुभ
14 स्वधा = एस अव्यक्ति जो अशुभता को दूर करे
15 सुधा = अमृत की देवी
16 धन्या =आभार का अवतार
17 हिरण्मयीं = जिसकी दिखावट गोल्डन है
18 लक्ष्मी =धन और समृद्धि की देवी
19 नित्यपुष्ट = जिससे दिन पे दिन शक्ति मिलती है
20 विभा जिसका चेहरा दीप्तिमान है
21 अदिति = जिसकी चमक सूरज की तरह है
22 दीत्य =जो प्रार्थना का जवाब देता है
23 दीप्ता =लौ की तरह
24 वसुधा = पृथ्वी की देवी
25 वसुधारिणी = पृथ्वी की रक्षक
26 कमला = कमल
27 कांता = भगवान विष्णु की पत्नी
28 कामाक्षी = आकर्षक आंखवाली देवी
29 कमलसम्भवा = जो कमल मे से उपस्तित होती है
30 अनुग्रहप्रदा = जो शुभकामनाओ का आशीर्वाद देती है
31 बुद्धि = बुद्धि की देवी
32 अनघा = निष्पाप या शुद्ध की देवी
33 हरिवल्लभी = भगवान विष्णु की पत्नी
34 अशोक = दुःख को दूर करने वाली
35 अमृता = अमृत की देवी
36 दीपा = दितिमान दिखने वाली
37 लोकशोकविनाशिनी = सांसारिक मुसीबतों को निअक्लने वाली
38 धर्मनिलया = अनन्त कानून स्थापित करने वाली
39 करुणा = अनुकंपा देवी
40 लोकमट्री = ब्रह्माण्ड की देवि
41 पद्मप्रिया = कमल की प्रेमी
42 पद्महस्ता = जिसके हाथ कमल की तरह है
43 पद्माक्ष्य = जिसकी आँख कमल के जैसी है
44 पद्मसुन्दरी = कमल की तरह सुंदर
45 पद्मोद्भवा = कमल से उपस्तित होने वलि
46 पद्ममुखी = कमल के दीप्तिमान जैसी देवि
47 पद्मनाभप्रिया = पद्मनाभ की प्रेमिका - भगवान विष्णु
48 रमा = भगवान विष्णु को खुश करने वाले
49 पद्ममालाधरा = कमल की माला पहनने वाली
50 देवी = देवी
51 पद्मिनी = कमल की तरह
52 पद्मगन्धिनी = कमल की तरह खुशनु है जिसकी
53 पुण्यगन्धा = दिव्य सुगंधित देवी
54 सुप्रसन्ना = अनुकंपा देवी
55 प्रसादाभिमुखी = वरदान और इच्छाओं को अनुदान देने वाली
56 प्रभा = देवि जिसका दीप्तीमान सूरज की तरह हो
57 चंद्रवंदना = जिसका दीप्तिमान चन्द्र की तरह हो
58 चंदा = चन्द्र की तरह शांत
59 चन्द्रसहोदरी = चंद्रमा की बहन
60 चतुर्भुजा = चार सशस्त्र देवी
61 चन्द्ररूपा = चंद्रमा की तरह सुंदर
62 इंदिरा = सूर्य की तरह चमक
63 इन्दुशीतला = चाँद की तरह शुद्ध
64 अह्लादजननी = ख़ुशी देने वाली
65 पुष्टि = स्वास्थ्य की देवी
66 शिव = शुभ देवी
67 शिवाकारी = शुभ का अवतार
68 सत्या = सच्चाई
69 विमला = शुद्ध
70 विश्वजननी = ब्रह्माण्ड की देवि
71 पुष्टि = धन का स्वामी
72 दरिद्रियनशिनी = गरीबी को निकलने वाली
73 प्रीता पुष्करिणी = देवि ज्सिजी आँखें सुखदायक है
74 शांता = शांतिपूर्ण देवी
75 शुक्लमालबारा = सफ़द वस्त्र पेहेंने वलि
76 भास्करि = सूरज की तरह चमकदार
77 बिल्वनिलया = जो बिल्व पेड़ के निच्चे रहता है
78 वरारोहा = देवि जो इच्छाओ का दान देने वलि
79 यशस्विनी = प्रसिद्धि और भाग्य की देवी
80 वसुंधरा = धरती माता की बेटी
81 उदरंगा = जिसका शरीर सुंदर है
82 हरिनी = हिरण की तरह है जो
83 हेमामालिनी = जिसके पास स्वर्ण हार है
84 धनधान्यकी = स्वास्थ प्रदान करने वलि
85 सिद्धी = रक्षक
86 स्टरीनासौम्य = महिलाओं पर अच्छाई बरसाने वाली
87 शुभप्रभा = जो शुभता प्रदान करे
88 नृपवेशवगाथानंदा = महलों में रहता है जो
89 वरलक्ष्मी = समृद्धि की दाता
90 वसुप्रदा = धन को प्रदान करने वाली
91 शुभा = शुभ देवी
92 हिरण्यप्राका = सोने मे
93 समुद्रतनया = महासागर की बेटी
94 जया = विजय की देवी
95 मंगला = सबसे शुभ
96 देवी = देवता या देवी
97 विष्णुवक्षः = जिसके के साइन भगवान् विष्णु रहते है
98 विष्णुपत्नी = भगवान विष्णु की पत्नी
99 प्रसन्नाक्षी = जीवंत आंखवाले
100 नारायण समाश्रिता = जो भगवान् नारायण के चरण मेइन जान चाहता है
101 दरिद्रिया ध्वंसिनी = गरीबी समाप्त करने वाली
102 डेवलष्मी = देवी
103 सर्वपद्रवनिवर्णिनी = दुःख दूर करने वाली
104 नवदुर्गा = दुर्गा के सभी नौ रूप
105 महाकाली = काली देवी का एक रूप
106 ब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मिका = ब्रह्मा विष्णु शिव के रूप में देवी
107 त्रिकालज्ञानसम्पन्ना = जिससे अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में पता है
108 भुवनेश्वराय = ब्रह्माण्ड की देवि या देवता 

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

तिरुपति बालाजी की कथा


वैंकटेश भगवान को कलियुग में बालाजी नाम से भी जाना गया है। पौराणिक गाथाओं और परम्पराओं से जु़डा संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है-

प्रसिद्ध पौराणिक सागर-मंथन की गाथा के अनुसार जब सागर मंथन किया गया था तब कालकूट विष के अलावा चौदह रत्‍‌न निकले थे। इन रत्‍‌नों में से एक देवी लक्ष्मी भी थीं। लक्ष्मी के भव्य रूप और आकर्षण के फलस्वरूप सारे देवता, दैत्य और मनुष्य उनसे विवाह करने हेतु लालायित थे, किन्तु देवी लक्ष्मी को उन सबमें कोई न कोई कमी लगी।

अत: उन्होंने समीप निरपेक्ष भाव से खड़े हुए विष्णुजी के गले में वरमाला पहना दी। विष्णु जी ने लक्ष्मी जी को अपने वक्ष पर स्थान दिया।

यह रहस्यपूर्ण है कि विष्णुजी ने लक्ष्मीजी को अपने ह्वदय में स्थान क्यों नहीं दिया? महादेव शिवजी की जिस प्रकार पत्‍‌नी अथवा अर्धाग्नि पार्वती हैं, किन्तु उन्होंने अपने ह्वदयरूपी मानसरोवर में राजहंस राम को बसा रखा था उसी समानांतर आधार पर विष्णु के ह्वदय में संसार के पालन हेतु उत्तरदायित्व छिपा था। उस उत्तरदायित्व में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हो इसलिए संभवतया लक्ष्मीजी का निवास वक्षस्थल बना।

एक बार धरती पर विश्व कल्याण हेतु यज्ञ का आयोजन किया गया। तब समस्या उठी कि यज्ञ का फल ब्रम्हा, विष्णु, महेश में से किसे अर्पित किया जाए। इनमें से सर्वाधिक उपयुक्त का चयन करने हेतु ऋषि भृगु को नियुक्त किया गया। भृगु ऋषि पहले ब्रम्हाजी और तत्पश्चात महेश के पास पहुंचे किन्तु उन्हें यज्ञ फल हेतु अनुपयुक्त पाया।

अंत में वे विष्णुलोक पहुंचे। विष्णुजी शेष शय्या पर लेटे हुए थे और उनकी दृष्टि भृगु पर नहीं जा पाई। भृगु ऋषि ने आवेश में आकर विष्णु जी के वक्ष पर ठोकर मार दी। अपेक्षा के विपरीत विष्णु जी ने अत्यंत विनम्र होकर उनका पांव पक़ड लिया और नम्र वचन बोले- हे ऋषिवर! आपके कोमल पांव में चोट तो नहीं आई?

विष्णुजी के व्यवहार से प्रसन्न भृगु ऋषि ने यज्ञफल का सर्वाधिक उपयुक्त पात्र विष्णुजी को घोषित किया। उस घटना की साक्षी विष्णुजी की पत्‍‌नी लक्ष्मीजी अत्यंत क्रुद्व हो गई कि विष्णुजी का वक्ष स्थान तो उनका निवास स्थान है और वहां धरतीवासी भृगु को ठोकर लगाने का किसने अधिकार दिया?

उन्हें विष्णुजी पर भी क्रोध आया कि उन्होंने भृगु को दंडित करने की अपेक्षा उनसे उल्टी क्षमा क्यों मांगी? परिणामस्वरूप लक्ष्मीजी विष्णुजी को त्याग कर चली गई। विष्णुजी ने उन्हें बहुत ढूंढा किन्तु वे नहीं मिलीं।

अंतत: विष्णुजी ने लक्ष्मी को ढूंढते हुए धरती पर श्रीनिवास के नाम से जन्म लिया और संयोग से लक्ष्मी ने भी पद्मावती के रूप में जन्म लिया। घटनाचक्र ने उन दोनों का अंतत: परस्पर विवाह करवा दिया। सब देवताओं ने इस विवाह में भाग लिया और भृगु ऋषि ने आकर एक ओर लक्ष्मीजी से क्षमा मांगी तो साथ ही उन दोनों को आशीर्वाद प्रदान किया।

लक्ष्मीजी ने भृगु ऋषि को क्षमा कर दिया किन्तु इस विवाह के अवसर पर एक अनहोनी घटना हुई। विवाह के उपलक्ष्य में लक्ष्मीजी को भेंट करने हेतु विष्णुजी ने कुबेर से धन उधार लिया जिसे वे कलियुग के समापन तक ब्याज सहित चुका देंगे।

ऐसी मानता है कि जब भी कोई भक्त तिरूपति बालाजी के दर्शनार्थ जाकर कुछ चढ़ाता है तो वह न केवल अपनी श्रद्धा भक्ति अथवा आर्त प्रार्थना प्रस्तुत करता है अपितु भगवान विष्णु के ऊपर कुबेर के ऋण को चुकाने में सहायता भी करता है। अत: विष्णुजी अपने ऐसे भक्त को खाली हाथ वापस नहीं जाने देते हैं।

जिस नगर में यह मंदिर बना है उसका नाम तिरूपति है और नगर की जिस पहाड़ी पर मंदिर बना है उसे तिरूमला (श्री+मलय) कहते हैं।

तिरूमला को वैंकट पहाड़ी अथवा शेषांचलम भी कहा जाता है। यह पहड़ी सर्पाकार प्रतीत होती हैं जिसके सात चोटियां हैं जो आदि शेष के फनों की प्रतीक मानी जाती हैं। इन सात चोटियों के नाम क्रमश: शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरू़डाद्रि, अंजनाद्रि, वृषभाद्रि, नारायणाद्रि और वैंकटाद्रि हैं।

तिरुपति बालाजी मंदिर के यह ग्यारह सच आप नहीं जानते हैं?

देश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में तिरुपति बालाजी मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। कई बड़े उद्योगपति, फिल्म सितारे और राजनेता यहां अपनी उपस्थिति देते हैं क्योंकि उनके चमत्कारों की कई कथाएं प्रचलित हैं। आइए जानें उनके ग्यारह आश्चर्यजनक चमत्कार....

1. मुख्यद्वार के दाएं और बालाजी के सिर पर अनंताळवारजी के द्वारा मारे गए निशान हैं। बालरूप में बालाजी को ठोड़ी से रक्त आया था, उसी समय से बालाजी के ठोड़ी पर चंदन लगाने की प्रथा शुरू हुई।

2. भगवान बालाजी के सिर पर आज भी रेशमी बाल हैं और उनमें उलझने नहीं आती और वह हमेशा ताजा लगते है।

3. मंदिर से 23 किलोमीटर दूर एक गांव है, उस गांव में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश निषेध है। वहां पर लोग नियम से रहते हैं। वहां की महिलाएं ब्लाउज नहीं पहनती। वहीं से लाए गए फूल भगवान को चढ़ाए जाते हैं और वहीं की ही अन्य वस्तुओं को चढाया जाता है जैसे- दूध, घी, माखन आदि।

4. भगवान बालाजी गर्भगृह के मध्य भाग में खड़े दिखते हैं मगर वे दाई तरफ के कोने में खड़े हैं बाहर से देखने पर ऎसा लगता है।

5. बालाजी को प्रतिदिन नीचे धोती और उपर साड़ी से सजाया जाता है।

6. गृभगृह में चढ़ाई गई किसी वस्तु को बाहर नहीं लाया जाता, बालाजी के पीछे एक जलकुंड है उन्हें वहीं पीछे देखे बिना उनका विसर्जन किया जाता है।

7. बालाजी की पीठ को जितनी बार भी साफ करो, वहां गीलापन रहता ही है, वहां पर कान लगाने पर समुद्र घोष सुनाई देता है।

8. बालाजी के वक्षस्थल पर लक्ष्मीजी निवास करती हैं। हर गुरुवार को निजरूप दर्शन के समय भगवान बालाजी की चंदन से सजावट की जाती है उस चंदन को निकालने पर लक्ष्मीजी की छबि उस पर उतर आती है। बाद में उसे बेचा जाता है।

9. बालाजी के जलकुंड में विसर्जित वस्तुए तिरूपति से 20 किलोमीटर दूर वेरपेडु में बाहर आती हैं।

10. गर्भगृह मे जलने वाले चिराग कभी बुझते नही हैं, वे कितने ही हजार सालों से जल रहे हैं किसी को पता भी नही है।

11. बताया जाता है सन् 1800 में मंदिर परिसर को 12 साल के लिए बंद किया गया था। किसी एक राजा ने 12 लोगों को मारकर दीवार पर लटकाया था उस समय विमान में वेंकटेश्वर प्रकट हुए थे ऎसा माना जाता है।

जानिये प्रसिद्ध मंदिर तिरुपति बालाजी के लड्डू का रहस्य !!!!!!

तिरुपति में मौजूद बालाजी का मंदिर पूरी दुनिया में मशहूर है, बाबा के दर्शन के लिए आम लोगों से लेकर दुनिया भर के अमीर लोग यहां दर्शक को आते हैं। जितना खास ये मंदिर है उतना ही खास है यहां पर प्रसाद के रूप में मिलने वाला मंदिर। आखिर ये लड्डू क्यों इतना खास है हम आपको बताते हैं उसकी कहानी।

1. प्रसाद में मिलने वाले इस लड्डू का इतिहास 300 सालों से भी पुराना है। कहा जाता है कि पहली बार 2 अगस्त 1715 में इस लड्डू को प्रसाद के तौर पर दिया गया था, उसके बाद ये लड़्डू इस मंदिर का खास प्रसाद बन गया।

2. इस लड्डू को बनाने में आटा, चीनी, घृत, इलायची और मेवे आदि का इस्तेमाल किया जाता है। इसके बाद इन्हें वेंकटेश्वर मंदिर में पूजा के दौरान भगवान को अर्पित किया जाता है।

3. इस लड्डू की कीमत की कुछ खास ज्यादा नहीं है। साथ ही ये कई दिनों तक चलता है, इसलिए यहां आने वाला हर शख्स इस लड्डू को यहां से खरीदकर जरूर ले जाता है।

4. इस लड्डू को बनाने के लिए भी एक खास जगह है, जहां हर शख्स के जाने की इजाजत नहीं हैं। इस लड्डू को बनाने के लिए रसोईया भी खास है। एक दिन में करीब 3 लाख लड्डू तैयार किए जाते हैं और भगवान को प्रसाद में रोज ताजे लड्डू ही चढ़ाए जाते हैं।

5. यहां मिलने वाले लड्डू का जो स्वाद है हो आपको दुनिया में कही भी नहीं मिलेगा।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

आखिर ! कैसा था "राम राज्य"


 श्रीरामचरितमानस' में तुलसीदास जी ने इस बात पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय-शोक दूर हो गए एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई। इसका प्रमुख कारण यह है कि रामराज्य में किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं था। इसीलिए कोई भी अल्पमृत्यु, रोग-पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे।

राम राज बैठे त्रैलोका।
हरषित भए गए सब सोका।।
बयस न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।
सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
राम राज नभगेस सुनु
सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत
दुख काहुहि नाहिं।।

वाल्मीकि रामायण में श्रीभरत जी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, "राघव! आपके राज्य पर अभिषिक्त हुए एक मास से अधिक समय हो गया। तब से सभी लोग निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े प्राणियों के पास भी मृत्यु नहीं फटकती है। स्त्रियाँ बिना कष्ट के प्रसव करती हैं। सभी मनुष्यों के शरीर हृष्ट-पुष्ट दिखाई देते हैं। राजन! पुरवासियों में बड़ा हर्ष छा रहा है। मेघ अमृत के समान जल गिराते हुए समय पर वर्षा करते हैं। हवा ऐसी चलती है कि इसका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन नगर तथा जनपद के लोग इस पुरी में कहते हैं कि हमारे लिए चिरकाल तक ऐसे ही प्रभावशाली राजा रहें।"

पाप से पापी की हानि ही नहीं होती अपितु वातावरण भी दूषित होता है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रामराज्य में पाप का अस्तित्व नहीं है, इसलिए दु:ख लेशमात्र भी नहीं है। पर्यावरण की शुद्धि तथा उसके प्रबंधन के लिए रामराज्य में सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ की जाती रहीं। वृक्षारोपण, बाग-बगीचे, फल-फूलवाले पौधे तथा सुगंधित वाटिका लगाने में सब लोग रुचि लेते थे। नगर के भीतर तथा बाहर का दृश्य मनोहारी था -

सुमन बाटिका सबहिं लगाईं।
बिबिध भाँति करि जतन बनाईं।।
लता ललित बहु जाति सुहाई।
फूलहिं सदा बसंत कि नाईं।।
बापीं तड़ाग अनूप कूद मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं।।
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।
रमानाथ जहं राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।

अर्थात सभी लोगों ने विविध प्रकार के फूलों की वाटिकाएँ अनेक प्रकार के यत्न करके लगा रखीं हैं। बहुत प्रकार की सुहावनी ललित बेलें सदा वसंत की भाँति फूला करती हैं। नगर की शोभा का जहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता, वहाँ बाहर चारों ओर का दृश्य भी अत्यंत रमणीय है। रामराज्य में बावलियाँ और कूप जल से भरे रहते थे, जलस्तर भी काफ़ी ऊपर था। तालाब तथा कुओं की सीढ़ियाँ भी सुंदर और सुविधाजनक थीं। जल निर्मल था। अवधपुरी में सूर्य-कुंड, विद्या-कुंड, सीता-कुंड, हनुमान-कुंड, वसिष्ठ-कुंड, चक्रतीर्थ आदि तालाब थे, जो प्रदुषण से पूर्णत: मुक्त थे। नगर के बाहर- अशोक, संतानक, मंदार, पारिजात, चंदन, चंपक, प्रमोद, आम्र, पनस, कदंब एवं ताल-वृक्षों से संपन्न अनेक वन थे।

'गीतावली' में भी सुंदर वनों-उपवनों के मनोहारी दृश्यों का वर्णन मिलता है -

 श्रीरामचरितमानस' में तुलसीदास जी ने इस बात पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया, सारे भय-शोक दूर हो गए एवं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई। इसका प्रमुख कारण यह है कि रामराज्य में किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं था। इसीलिए कोई भी अल्पमृत्यु, रोग-पीड़ा से ग्रस्त नहीं था, सभी स्वस्थ, बुद्धिमान, साक्षर, गुणज्ञ, ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे।

राम राज बैठे त्रैलोका।
हरषित भए गए सब सोका।।
बयस न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप विषमता खोई।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।
सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।
सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
राम राज नभगेस सुनु
सचराचर जग माहिं।
काल कर्म सुभाव गुन कृत
दुख काहुहि नाहिं।।


वाल्मीकि रामायण में श्रीभरत जी रामराज्य के विलक्षण प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, "राघव! आपके राज्य पर अभिषिक्त हुए एक मास से अधिक समय हो गया। तब से सभी लोग निरोग दिखाई देते हैं। बूढ़े प्राणियों के पास भी मृत्यु नहीं फटकती है। स्त्रियाँ बिना कष्ट के प्रसव करती हैं। सभी मनुष्यों के शरीर हृष्ट-पुष्ट दिखाई देते हैं। राजन! पुरवासियों में बड़ा हर्ष छा रहा है। मेघ अमृत के समान जल गिराते हुए समय पर वर्षा करते हैं। हवा ऐसी चलती है कि इसका स्पर्श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन नगर तथा जनपद के लोग इस पुरी में कहते हैं कि हमारे लिए चिरकाल तक ऐसे ही प्रभावशाली राजा रहें।"

पाप से पापी की हानि ही नहीं होती अपितु वातावरण भी दूषित होता है, जिससे अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। रामराज्य में पाप का अस्तित्व नहीं है, इसलिए दु:ख लेशमात्र भी नहीं है। पर्यावरण की शुद्धि तथा उसके प्रबंधन के लिए रामराज्य में सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ की जाती रहीं। वृक्षारोपण, बाग-बगीचे, फल-फूलवाले पौधे तथा सुगंधित वाटिका लगाने में सब लोग रुचि लेते थे। नगर के भीतर तथा बाहर का दृश्य मनोहारी था।

सुमन बाटिका सबहिं लगाईं।
बिबिध भाँति करि जतन बनाईं।।
लता ललित बहु जाति सुहाई।
फूलहिं सदा बसंत कि नाईं।।

बापीं तड़ाग अनूप कूद मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं।।
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं।।
रमानाथ जहं राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ।।

अर्थात सभी लोगों ने विविध प्रकार के फूलों की वाटिकाएँ अनेक प्रकार के यत्न करके लगा रखीं हैं। बहुत प्रकार की सुहावनी ललित बेलें सदा वसंत की भाँति फूला करती हैं। नगर की शोभा का जहाँ वर्णन नहीं किया जा सकता, वहाँ बाहर चारों ओर का दृश्य भी अत्यंत रमणीय है। रामराज्य में बावलियाँ और कूप जल से भरे रहते थे, जलस्तर भी काफ़ी ऊपर था। तालाब तथा कुओं की सीढ़ियाँ भी सुंदर और सुविधाजनक थीं। जल निर्मल था। अवधपुरी में सूर्य-कुंड, विद्या-कुंड, सीता-कुंड, हनुमान-कुंड, वसिष्ठ-कुंड, चक्रतीर्थ आदि तालाब थे, जो प्रदुषण से पूर्णत: मुक्त थे। नगर के बाहर- अशोक, संतानक, मंदार, पारिजात, चंदन, चंपक, प्रमोद, आम्र, पनस, कदंब एवं ताल-वृक्षों से संपन्न अनेक वन थे।

'गीतावली' में भी सुंदर वनों-उपवनों के मनोहारी दृश्यों का वर्णन मिलता है -
बन उपवन नव किसलय,
कुसुमित नाना रंग।
बोलत मधुर मुखर खग
पिकबर, गुंजत भृंग।।


अर्थात अयोध्या के वन-उपवनों में नवीन पत्ते और कई रंग के पुष्प खिलते रहते थे, चहचहाते हुए पपीहा और सुंदर कोकिल सुमधुर बोली बोलते हैं और भौरें गुंजार करते रहते थे।
रामराज्य में जल अत्यंत निर्मल एवं शुद्ध रहता था, दोषयुक्त नहीं। स्थान-स्थान पर पृथक-पृथक घाट बँधे हुए थे। कीचड़ कहीं भी नहीं होता था। पशुओं के उपयोग हेतु घाट नगर से दूर बने हुए थे और पानी भरने के घाट अलग थे, जहाँ कोई भी व्यक्ति स्नान नहीं करता था। नहाने के लिए राजघाट अलग से थे, जहाँ चारों वर्णों के लोग स्नान करते थे ।

उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बांधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।
दूरि फराक रुचिर सो घाटा।
जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना।
तहां न पुरुष करहिं अस्नाना।।

रामराज्य में शीतल, मंद तथा सुगंधित वायु सदैव बहती रहती थी -
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर।
मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर।।

पक्षी-प्रेम रामराज्य में अद्वितीय था। पक्षी के पैदा होते ही उसका पालन-पोषण किया जाता था। बचपन से ही पालन करने से दोनों ओर प्रेम रहता था। बड़े होने पर पक्षी उड़ते तो थे किंतु कहीं जाते नहीं थे। पक्षियों को रामराज्य में पढ़ाया और सुसंस्कारित किया जाता था।

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक।
कहहु राम रघुपति जनपालक।।


रामराज्य की बाजार-व्यवस्था भी अतुलनीय थी। राजद्वार, गली, चौराहे और बाजार स्वच्छ, आकर्षक तथा दीप्तिमान रहते थे। विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करनेवाले कुबेर के समान संपन्न थे। रामराज्य में वस्तुओं का मोलभाव नहीं होता था। सभी दुकानदार सत्यवादी एवं ईमानदार थे।

बाज़ार स्र्चिर न बनइ बरनत
बस्तु बिनु गथ पाइए।


रामराज्य में तो यहाँ तक ध्यान रखा जाता था कि जो पौधे चरित्र-निर्माण में सहायक हैं, उनका रोपण अधिक किया जाना चाहिए। पर्यावरण-विशेषज्ञों तथा आयुर्वेदशास्त्र की मान्यता है कि तुलसी का पौधा जहाँ सभी प्रकार से स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है वहाँ चरित्र-निर्माण में भी सहायक है। यही कारण है कि रामराज्य में ऋषि-मुनि नदियों के तथा तालाबों के किनारे तुलसी के पौधे लगाते थे।

तीर तीर तुलसिका सुहाई।
बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।


रामराज्य में सब लोग सत्साहित्य का अनुशीलन करते थे। चरित्रवान और संस्कारवान थे। सबके घरों में सुखद वातावरण था और सभी लोग शासन से संतुष्ट थे। जहाँ राजा अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत करता हो वहाँ का समाज निश्चित ही सदा प्रसन्न एवं समृद्ध रहता है। उन अवधपुरवासियों की सुख-संपदा का वर्णन हज़ार शेष जी भी नहीं कर सकते, जिनके राजा श्रीरामचंद्र जी हैं ।

सब के गृह गृह होहिं पुराना।
रामचरित पावन बिधि नाना।
नर अस्र् नारि राम गुन गानहिं।
करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहं नृप राम बिराज।।


इस प्रकार रामराज्य में किसी भी प्रकार का दूषित परिवेश नहीं था। राजा तथा प्रजा में परस्पर अटूट स्नेह, सम्मान और सामंजस्य था। मनुष्यों में जहाँ वैरभाव नहीं रहता वहाँ पशु-पक्षी भी अपने सहज वैरभाव को त्याग देते हैं। हाथी और सिंह एक साथ रहते हैं - परस्पर प्रेम रखते हैं। वन में पक्षियों के अनेक झुंड निर्भय होकर विचरण करते हैं। उन्हें शिकारी का भय नहीं रहता। गौएँ कामधेनु की तरह मनचाहा दूध देती हैं।

रामराज्य में पृथ्वी सदा खेती से हरी-भरी रहती थी। चंद्रमा उतनी ही शीतलता और सूर्य उतना ही ताप देते थे जितनी ज़रूरत होती थी। पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दी थीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल, स्वादिष्ट और सुख देनेवाला जल बहाती थीं। जब जितनी ज़रूरत होती थी, मेघ उतना ही जल बरसाते थे।

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन।
रहहिं एक संग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई।
सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा।
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।
लता बिटप मागें मधु चवहिं।
मनभावतो धेनु पय स्रवहीं।।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज।।


रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने सूत्ररूप में यह संकेत दिया है कि पर्यावरण-संतुलन तथा पर्यावरण-प्रबंधन में शासक और प्रजा का संयुक्त उत्तरदायित्व होता है। दोनों के परस्पर सहयोग, स्नेह, सम्मान, सौहार्द तथा सामंजस्य से ही समाज एवं राष्ट्र को दोषमुक्त किया जा सकता है। पर्यावरण-चेतना का शासक और प्रजा दोनों में पर्याप्त विकास होना चाहिए। राज्य की व्यवस्था में प्रजा का पूर्ण सहयोग हो और प्रजा की सुख-सुविधा का शासक पूरा-पूरा ध्यान रखे - यही रामराज्य का संदेश है।

अर्थात अयोध्या के वन-उपवनों में नवीन पत्ते और कई रंग के पुष्प खिलते रहते थे, चहचहाते हुए पपीहा और सुंदर कोकिल सुमधुर बोली बोलते हैं और भौरें गुंजार करते रहते थे।

रामराज्य में जल अत्यंत निर्मल एवं शुद्ध रहता था, दोषयुक्त नहीं। स्थान-स्थान पर पृथक-पृथक घाट बँधे हुए थे। कीचड़ कहीं भी नहीं होता था। पशुओं के उपयोग हेतु घाट नगर से दूर बने हुए थे और पानी भरने के घाट अलग थे, जहाँ कोई भी व्यक्ति स्नान नहीं करता था। नहाने के लिए राजघाट अलग से थे, जहाँ चारों वर्णों के लोग स्नान करते थे।

उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर।
बांधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर।।
दूरि फराक रुचिर सो घाटा।
जहं जल पिअहिं बाजि गज ठाटा।।
पनिघट परम मनोहर नाना।
तहां न पुरुष करहिं अस्नाना।।

रामराज्य में शीतल, मंद तथा सुगंधित वायु सदैव बहती रहती थी।

गुंजत मधुकर मुखर मनोहर।
मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर।।

पक्षी-प्रेम रामराज्य में अद्वितीय था। पक्षी के पैदा होते ही उसका पालन-पोषण किया जाता था। बचपन से ही पालन करने से दोनों ओर प्रेम रहता था। बड़े होने पर पक्षी उड़ते तो थे किंतु कहीं जाते नहीं थे। पक्षियों को रामराज्य में पढ़ाया और सुसंस्कारित किया जाता था।

सुक सारिका पढ़ावहिं बालक।
कहहु राम रघुपति जनपालक।।

रामराज्य की बाजार-व्यवस्था भी अतुलनीय थी। राजद्वार, गली, चौराहे और बाजार स्वच्छ, आकर्षक तथा दीप्तिमान रहते थे। विभिन्न वस्तुओं का व्यापार करनेवाले कुबेर के समान संपन्न थे। रामराज्य में वस्तुओं का मोलभाव नहीं होता था। सभी दुकानदार सत्यवादी एवं ईमानदार थे।

बाज़ार स्र्चिर न बनइ बरनत
बस्तु बिनु गथ पाइए।

रामराज्य में तो यहाँ तक ध्यान रखा जाता था कि जो पौधे चरित्र-निर्माण में सहायक हैं, उनका रोपण अधिक किया जाना चाहिए। पर्यावरण-विशेषज्ञों तथा आयुर्वेदशास्त्र की मान्यता है कि तुलसी का पौधा जहाँ सभी प्रकार से स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है वहाँ चरित्र-निर्माण में भी सहायक है। यही कारण है कि रामराज्य में ऋषि-मुनि नदियों के तथा तालाबों के किनारे तुलसी के पौधे लगाते थे।

तीर तीर तुलसिका सुहाई।
बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई।।

रामराज्य में सब लोग सत्साहित्य का अनुशीलन करते थे। चरित्रवान और संस्कारवान थे। सबके घरों में सुखद वातावरण था और सभी लोग शासन से संतुष्ट थे। जहाँ राजा अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत करता हो वहाँ का समाज निश्चित ही सदा प्रसन्न एवं समृद्ध रहता है। उन अवधपुरवासियों की सुख-संपदा का वर्णन हज़ार शेष जी भी नहीं कर सकते, जिनके राजा श्रीरामचंद्र जी हैं ।

सब के गृह गृह होहिं पुराना।
रामचरित पावन बिधि नाना।
नर अस्र् नारि राम गुन गानहिं।
करहिं दिवस निसि जात न जानहिं।
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहं नृप राम बिराज।।

इस प्रकार रामराज्य में किसी भी प्रकार का दूषित परिवेश नहीं था। राजा तथा प्रजा में परस्पर अटूट स्नेह, सम्मान और सामंजस्य था। मनुष्यों में जहाँ वैरभाव नहीं रहता वहाँ पशु-पक्षी भी अपने सहज वैरभाव को त्याग देते हैं। हाथी और सिंह एक साथ रहते हैं - परस्पर प्रेम रखते हैं। वन में पक्षियों के अनेक झुंड निर्भय होकर विचरण करते हैं। उन्हें शिकारी का भय नहीं रहता। गौएँ कामधेनु की तरह मनचाहा दूध देती हैं।

रामराज्य में पृथ्वी सदा खेती से हरी-भरी रहती थी। चंद्रमा उतनी ही शीतलता और सूर्य उतना ही ताप देते थे जितनी ज़रूरत होती थी। पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दी थीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल, स्वादिष्ट और सुख देनेवाला जल बहाती थीं। जब जितनी ज़रूरत होती थी, मेघ उतना ही जल बरसाते थे ।

सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा।
अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।।
लता बिटप मागें मधु चवहिं।
मनभावतो धेनु पय स्रवहीं।।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज।।

रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने सूत्ररूप में यह संकेत दिया है कि पर्यावरण-संतुलन तथा पर्यावरण-प्रबंधन में शासक और प्रजा का संयुक्त उत्तरदायित्व होता है। दोनों के परस्पर सहयोग, स्नेह, सम्मान, सौहार्द तथा सामंजस्य से ही समाज एवं राष्ट्र को दोषमुक्त किया जा सकता है। पर्यावरण-चेतना का शासक और प्रजा दोनों में पर्याप्त विकास होना चाहिए। राज्य की व्यवस्था में प्रजा का पूर्ण सहयोग हो और प्रजा की सुख-सुविधा का शासक पूरा-पूरा ध्यान रखे - यही रामराज्य का संदेश है।