गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

क्या आप जानते हैं कि भगवान शिव के छः पुत्र थे!!!


वैसे तो जब शिवपुत्र की बात आती है तो हमारे ध्यान में कार्तिकेय और गणेश ही आते हैं। वैसे तो भगवान शिव के किसी भी पुत्र ने माता पार्वती के गर्भ से जन्म नहीं लिया है किन्तु फिर भी कार्तिकेय और गणेश को शिव-पार्वती का ही पुत्र माना जाता है और इनकी प्रसिद्धि सबसे अधिक है।

किन्तु इसके अतिरिक्त भी चार व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हे शिवपुत्र होने का गौरव प्राप्त है। हालाँकि ये इतने प्रसिद्ध नहीं हैं और पुराणों में भी इनके शिवपुत्र होने के विषय में अधिक वर्णन नहीं किया गया है किन्तु इन्हे भगवान शिव और माता पार्वती का पुत्र ही माना जाता है। तो आइये उनके बारे में कुछ जानते हैं:

कार्तिकेय: - इन्हे ज्येष्ठ शिवपुत्र माना जाता है। देवी सती की मृत्यु के पश्चात शिव बैरागी हो गए। तब देवी पार्वती ने उन्हें पति रूप में पाने के लिए तप शुरू किया। शिव विवाह नहीं करना चाहते थे किन्तु तारकासुर नामक राक्षस ने ब्रह्मदेव से ये वरदान प्राप्त किया कि उसका वध केवल शिवपुत्र के हांथों ही हो। इसीलिए कामदेव ने महादेव को देवी पार्वती की ओर आकर्षित करने के लिए उनपर कामबाण चलाया और उनकी क्रोधाग्नि में भस्म हो गए। अंततः विवाह तो हुआ किन्तु शिवजी के तेज को माता पार्वती अपने गर्भ में धारण नहीं कर सकी और उसे समुद्र में डाल दिया।

वहां छः कृतिकाओं ने उस वीर्य को छः भागों में बाँट लिया जिससे एक पुत्र की उत्पत्ति हुई जो छः मुख वाला था। कृतिकाओं द्वारा पाले जाने के कारण उनका नाम कार्तिकेय पड़ा। अंततः वे कैलाश अपने माता पिता के पास लौटे और देवसेना के सेनापति के रूप में तारकासुर का वध किया। पूरे भारत, विशेषकर दक्षिण भारत में उनकी बड़ी मान्यता है जहाँ उन्हें मुरुगण और स्कन्द के नाम से भी जानते हैं।

गणेश: -गणेशजी की उत्पत्ति देवी पार्वती के शरीर के मैल से हुई थी। एक बात स्नान करते हुए उनके मन में एक पुत्र की कामना हुई और उन्होंने अपने शरीर पर लगे उबटन से एक बालक की मूर्ति बनायीं और उसे जीवित किया। उन्होंने उसे द्वार की रक्षा करने का आदेश दिया और स्वयं स्नान करने चली गयी।
दैववश उधर महादेव आ निकले और उन्होंने कक्ष में प्रवेश करने का प्रयास किया तो गणेश ने उन्हें रोक दिया। शिवगण सारे मिलकर भी उसे परास्त नहीं कर सके। अंततः क्रोध में आकर महादेव ने अपने त्रिशूल से उस बालक का शीश काट दिया। जब माँ पार्वती बाहर आयी तो अपने पुत्र को मृत देख कर विलाप करने लगी। तब महादेव ने उसके कटे शीश पर हांथी का सर लगा कर उसे जीवित किया और उसे सभी गानों का प्रधान बनाया। तभी से वे गणपति कहलाये।

सुकेश: - ब्रह्माजी से हेति-प्रहेति नामक दो राक्षसों की उत्पत्ति हुई। हेति का पुत्र विद्युत्केश हुआ जिसका विवाह सालकण्टका नामक राक्षसी से हुआ। उससे उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई किन्तु दोनों कामक्रीड़ा में इतने व्यस्त थे कि अपने पुत्र से उनके सुख में व्यवधान आने के कारण उन्होंने उसे त्याग दिया। उसी समय भगवान शिव और माता पार्वती वहाँ से गुजरे तो एक रोते हुए बालक को देख कर माता का ह्रदय द्रवित हो गया। उन्होंने उसे अपना पुत्र माना और सुकेश नाम दिया। प्रसन्न होकर महादेव ने उसे अमरता का वरदान भी दिया और उससे आगे राक्षस वंश चला।

जलंधर: - एक बार भगवान शिव ने अपना तेज समुद्र में फेक दिया जिससे जलंधर की उत्पत्ति हुई। उसे मालूम नहीं था कि वो शिवपुत्र है। उसका विवाह वृन्दा से हुआ जो महान सती थी। उसे वरदान प्राप्त था कि जब तक उसका सतीत्व अखंड रहेगा, उसके पति का कोई वध नहीं कर पायेगा। जलंधर ने एक बार देवी पार्वती को देखा और मुग्ध हो गया। उसे पता नहीं था कि वो उसकी माता है। उसने उसे पाने के लिए कैलाश पर चढ़ाई की जहाँ उसका युद्ध महादेव से हुआ।

वरदान के कारण शिव उसका वध नहीं कर रहे थे और तब भगवान विष्णु जलंधर के वेश में वृन्दा के पास पहुँचे और उसके साथ रमण किया जिससे उसका सतीत्व टूट गया और तब महारुद्र ने जलंधर का वध कर दिया। वृन्दा को जब सत्य पता चला तो उसने नारायण को पत्थर हो जाने का श्राप दिया और स्वयं सती हो गयी। नारायण का पाषाण रूप शालिग्राम कहलाया और वृन्दा की राख से तुलसी की उत्पत्ति हुई। इसी से शालिग्राम के साथ तुलसी चढ़ाना अत्यंत पुण्यकारी माना जाता है।

अयप्पा: - एक बार महादेव ने भगवान विष्णु से उनके मोहिनी रूप को देखने का अनुरोध किया। जब श्रीहरि मोहिनी रूप में आये तो उनके रूप को देख कर शिव का वीर्यपात हो गया। उससे एक पुत्र "सस्तव" की उत्पति हुई जिसे अयप्पा कहा जाता है। दक्षिण भारत में उनके बड़े मात्रा में अनुयायी हैं और केरल के शबरीमला में स्वामी अयप्पा का विश्वप्रसिद्ध मंदिर है।

भूमा: - एक बार तपस्या करते समय भगवान शिव के पसीने की कुछ बूंदें भूमि पर गिरी जिससे एक रक्तवर्णीय बालक का जन्म हुआ जिसकी चार भुजाएं थी। उसका पालन पोषण धरती ने किया और भूमि से उत्पन्न होने के कारण उसे भूमा नाम से जाना गया और पृथ्वी का पुत्र माना गया। जब शिव समाधि से उठे तो उसे मंगल नाम दिया। मंगल ने काशी में भगवान शिव की घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने भूमा को मंगल ग्रह प्रदान किया।

इनके अतिरिक्त दैत्यराज बलि के पुत्र बाणासुर को भी शिव ने अपना पुत्र माना और उसके राज्य की रक्षा का वचन दिया। इसी कारण अश्वमेघ यज्ञ के समय श्रीराम को भगवान शंकर से युद्ध करना पड़ा। इसके बारे में आप यहाँ विस्तार से पढ़ सकते हैं। शिव-पार्वती की एक कन्या "अशोकसुन्दरी" भी थी जिसका विवाह नहुष से हुआ और उनके पुत्र ययाति से ही समस्त राजवंश चले। 

बुधवार, 30 दिसंबर 2020

अकस्मात मृत्यु से रक्षा करता है " मृतसञ्जीवन स्तोत्र " (अर्थ सहित)

 

ये स्तोत्र महर्षि वशिष्ठ द्वारा रचित है। इस स्तोत्र को कवच रूप में पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र में महेश्वर से सभी प्रकार से रक्षा करने की प्रार्थना की जाती है।

।। श्री मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ।।

एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥

गौरीपति मृत्युञ्जयेश्र्वर भगवान् शंकर की विधिपूर्वक आराधना करने के पश्र्चात भक्तको सदा मृतसञ्जीवन नामक कवचका सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये।


सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥

महादेव भगवान् शङ्कर का यह मृतसञ्जीवन नामक कवच का तत्त्वका भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है गुह्य और मङ्गल प्रदान करनेवाला है।


समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं।
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥

[आचार्य शिष्य को उपदेश करते हैं कि – हे वत्स! ] अपने मनको एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवच को सुनो। यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है। इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना।


वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥

जरा से अभय करने वाले, निरन्तर यज्ञ करनेवाले, सभी देवतओं से आराधित हे मृत्युञ्जय महादेव ! आप पर्व-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें।


दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः।
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥

अभय प्रदान करने वाली शक्ति को धारण करने वाले, तीन मुखोंवाले तथा छ: भुजओं वाले, अग्रिरूपी प्रभु सदाशिव अग्रिकोण में मेरी सदा रक्षा करें।


अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः।
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु ॥६

अट्ठारह भुजाओं से युक्त, हाथ में दण्ड और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सर्वत्र व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें।


खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥७॥

हाथमें खड्ग और अभयमुद्रा धारण करने वाले, धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित रक्षोरुपी महेश नैर्ऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।


पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥८॥

हाथमें अभयमुद्रा और पाश धाराण करनेवाले, शभी रत्नाकरों से सेवित, वरुणस्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।


गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥

हाथों में गदा और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, प्राणो के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।


शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥

हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करने वाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओं के मध्यमें मेरी रक्षा करें।


शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥

हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सभी विद्याओं के स्वामी, ईशानस्वरूप भगवान् परमेश्व शिव ईशानकोण में मेरी रक्षा करें।


ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः ॥१२॥

ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभाग में तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभागमें मेरी सदा रक्षा करें। शंकर मेरे सिर की और चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें।
भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु।


भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥

मेरे भौंहों के मध्य में सर्वलोकेश और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों को रक्षा भगवान् महेश्वर करें।


नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥

महादेव मेरी नासीकाकी तथा वृषभध्वज मेरे दोनों ओठों की सदा रक्षा करें। दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे दाँतों की रक्षा करें।


मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः।
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥१५॥

मृत्युञ्जय मेरे मुखकी एवं नागभूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठकी रक्षा करें। पिनाकी मेरे दोनों हाथोंकी तथा त्रिशूली मेरे हृदय की रक्षा करें।


पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः।
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥१६॥

पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनो की और जगदीश्वर मेरे उदरकी रक्षा करें। विरूपाक्ष नाभिकी और पार्वतीपति पार्श्वभागकी रक्षा करें।


कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः॥१७॥

गिरीश मेरे दोनों कटिभाग की तथा प्रमथाधिप पृष्टभाग की रक्षा करें। महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों ऊरुओं की रक्षा करें।


जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥

जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनों की, जगदम्बिका मेरे दोनों जंघोकी तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरोंकी रक्षा करें।


गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥१९॥

गिरीश मेरी भार्याकी रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रोंकी रक्षा करें । मृत्युञ्जय मेरे आयुकी गणनायक मेरे चित्तकी रक्षा करें।


सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिव:।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥

कालोंके काल सदाशिव मेरे सभी अंगोकी रक्षा करें। [ हे वत्स ! ] देवताओंके लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवचका वर्णन मैंने तुमसे किया है।


मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम्।
सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥

हादेवजीने मृतसञ्जीवन नामक इस कवचको कहा है। इस कवचकी सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है।


यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः।
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥

जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथावा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्युको जीतकर पूर्ण आयुका उपयोग करता है।


हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ।
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥

जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवचका पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है। फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं।


कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥

यह मृतसञ्जीवन कवच कालके गाल में गये हुए व्यक्तिको भी जीवन प्रदान कर ‍देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणोंसे युक्त ऐश्वर्यको प्राप्त करता है।


युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं।
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥

युद्ध आरम्भ होनेके पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवचका २८ बार पाठ करके रणभूमिमें उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुऔंसे अदृश्य रहता है।


न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै।
विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥

यदि देवताओ के भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है।


प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥

जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोकमें भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है !


सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥

वह सम्पूर्ण व्याधियोंसे मुक्त हो जाता है, सब प्रकारके रोग उसके शरीरसे भाग जाते हैं। वह अजर-अमर होकर सदाके लिये सोलह वर्षवाला व्यक्ति बन जाता है।


विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥

इस लोकमें दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करता रहता है। इसलिये इस महागोपनीय कवच को मृतसञ्जीवन नाम से कहा है।


मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥

यह देवतओं के लिय भी दुर्लभ है।


॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् सम्पूर्णम्॥

इस प्रकार वसिष्ठजी द्वारा रचित मृतसञ्जीवनी स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

पत्नी वामांगी क्यों कहलाती है?

शास्त्रों में पत्नी को वामंगी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है बाएं अंग का अधिकारी। इसलिए पुरुष के शरीर का बायां हिस्सा स्त्री का माना जाता है।


इसका कारण यह है कि भगवान शिव के बाएं अंग से स्त्री की उत्पत्ति हुई है जिसका प्रतीक है शिव का अर्धनारीश्वर शरीर। यही कारण है कि हस्तरेखा विज्ञान की कुछ पुस्तकों में पुरुष के दाएं हाथ से पुरुष की और बाएं हाथ से स्त्री की स्थिति देखने की बात कही गयी है।

शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री पुरुष की वामांगी होती है इसलिए सोते समय और सभा में, सिंदूरदान, द्विरागमन, आशीर्वाद ग्रहण करते समय और भोजन के समय स्त्री पति के बायीं ओर रहना चाहिए। इससे शुभ फल की प्राप्ति होती।

वामांगी होने के बावजूद भी कुछ कामों में स्त्री को दायीं ओर रहने के बात शास्त्र कहता है। शास्त्रों में बताया गया है कि कन्यादान, विवाह, यज्ञकर्म, जातकर्म, नामकरण और अन्न प्राशन के समय पत्नी को पति के दायीं ओर बैठना चाहिए।

पत्नी के पति के दाएं या बाएं बैठने संबंधी इस मान्यता के पीछे तर्क यह है कि जो कर्म संसारिक होते हैं उसमें पत्नी पति के बायीं ओर बैठती है। क्योंकि यह कर्म स्त्री प्रधान कर्म माने जाते हैं।

यज्ञ, कन्यादान, विवाह यह सभी काम पारलौकिक माने जाते हैं और इन्हें पुरुष प्रधान माना गया है। इसलिए इन कर्मों में पत्नी के दायीं ओर बैठने के नियम हैं।


क्या आप जानते हैं?

सनातन धर्म में पत्नी को पति की वामांगी कहा गया है, यानी कि पति के शरीर का बांया हिस्सा, इसके अलावा पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है पत्नी, पति के शरीर का आधा अंग होती है, दोनों शब्दों का सार एक ही है, जिसके अनुसार पत्नी के बिना पति अधूरा है।

पत्नी ही पति के जीवन को पूरा करती है, उसे खुशहाली प्रदान करती है, उसके परिवार का ख्याल रखती है, और उसे वह सभी सुख प्रदान करती है जिसके वह योग्य है, पति-पत्नी का रिश्ता दुनिया भर में बेहद महत्वपूर्ण बताया गया है, चाहे सोसाइटी कैसी भी हो, लोग कितने ही मॉर्डर्न क्यों ना हो जायें, लेकिन पति-पत्नी के रिश्ते का रूप वही रहता है, प्यार और आपसी समझ से बना हुआ।

हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत में भी पति-पत्नी के महत्वपूर्ण रिश्ते के बारे में काफी कुछ कहा गया है, भीष्म पितामह ने कहा था कि पत्नी को सदैव प्रसन्न रखना चाहिये, क्योंकि, उसी से वंश की वृद्धि होती है, वह घर की लक्ष्मी है और यदि लक्ष्मी प्रसन्न होगी तभी घर में खुशियां आयेगी, इसके अलावा भी अनेक धार्मिक ग्रंथों में पत्नी के गुणों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है।

आज हम आपको गरूड पुराण, जिसे लोक प्रचलित भाषा में गृहस्थों के कल्याण की पुराण भी कहा गया है, उसमें उल्लिखित पत्नी के कुछ गुणों की संक्षिप्त व्याख्या करेंगे, गरुण पुराण में पत्नी के जिन गुणों के बारे में बताया गया है, उसके अनुसार जिस व्यक्ति की पत्नी में ये गुण हों, उसे स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिये, कहते हैं पत्नी के सुख के मामले में देवराज इंद्र अति भाग्यशाली थे, इसलिये गरुण पुराण के तथ्य यही कहते हैं।

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।।


गरुण पुराण में पत्नी के गुणों को समझने वाला एक श्लोक मिलता है, यानी जो पत्नी गृहकार्य में दक्ष है, जो प्रियवादिनी है, जिसके पति ही प्राण हैं और जो पतिपरायणा है, वास्तव में वही पत्नी है, गृह कार्य में दक्ष से तात्पर्य है वह पत्नी जो घर के काम काज संभालने वाली हो, घर के सदस्यों का आदर-सम्मान करती हो, बड़े से लेकर छोटों का भी ख्याल रखती हो।

जो पत्नी घर के सभी कार्य जैसे- भोजन बनाना, साफ-सफाई करना, घर को सजाना, कपड़े-बर्तन आदि साफ करना, यह कार्य करती हो वह एक गुणी पत्नी कहलाती है, इसके अलावा बच्चों की जिम्मेदारी ठीक से निभाना, घर आये अतिथियों का मान-सम्मान करना, कम संसाधनों में भी गृहस्थी को अच्छे से चलाने वाली पत्नी गरुण पुराण के अनुसार गुणी कहलाती है, ऐसी पत्नी हमेशा ही अपने पति की प्रिय होती है।

प्रियवादिनी से तात्पर्य है मीठा बोलने वाली पत्नी, आज के जमाने में जहां स्वतंत्र स्वभाव और तेज-तरार बोलने वाली पत्नियां भी है, जो नहीं जानती कि किस समय किस से कैसे बात करनी चाहियें, इसलिए गरुण पुराण में दिए गए निर्देशों के अनुसार अपने पति से सदैव संयमित भाषा में बात करने वाली, धीरे-धीरे व प्रेमपूर्वक बोलने वाली पत्नी ही गुणी पत्नी होती है।

पत्नी द्वारा इस प्रकार से बात करने पर पति भी उसकी बात को ध्यान से सुनता है, व उसके इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश करता है, परंतु केवल पति ही नहीं, घर के अन्य सभी सदस्यों या फिर परिवार से जुड़े सभी लोगों से भी संयम से बात करने वाली स्त्री एक गुणी पत्नी कहलाती है, ऐसी स्त्री जिस घर में हो वहां कलह और दुर्भाग्य कबीनहीं आता।

पतिपरायणा यानी पति की हर बात मानने वाली पत्नी भी गरुण पुराण के अनुसार एक गुणी पत्नी होती है, जो पत्नी अपने पति को ही सब कुछ मानती हो, उसे देवता के समान मानती हो तथा कभी भी अपने पति के बारे में बुरा ना सोचती हो वह पत्नी गुणी है, विवाह के बाद एक स्त्री ना केवल एक पुरुष की पत्नी बनकर नये घर में प्रवेश करती है, वरन् वह उस नये घर की बहु भी कहलाती है, उस घर के लोगों और संस्कारों से उसका एक गहरा रिश्ता बन जाता है।

इसलिए शादी के बाद नए लोगों से जुड़े रीति-रिवाज को स्वीकारना ही स्त्री की जिम्मेदारी है, इसके अलावा एक पत्नी को एक विशेष प्रकार के धर्म का भी पालन करना होता है, विवाह के पश्चात उसका सबसे पहला धर्म होता है कि वह अपने पति व परिवार के हित में सोचे, व ऐसा कोई काम न करे जिससे पति या परिवार का अहित हो।

गरुण पुराण के अनुसार जो पत्नी प्रतिदिन स्नान कर पति के लिए सजती-संवरती है, कम बोलती है, तथा सभी मंगल चिह्नों से युक्त है, जो निरंतर अपने धर्म का पालन करती है तथा अपने पति का ही हीत सोचती है, उसे ही सच्चे अर्थों में पत्नी मानना चाहियें, जिसकी पत्नी में यह सभी गुण हों, उसे स्वयं को देवराज इंद्र ही समझना चाहियें।

जय श्री राम!
जय महादेव

सोमवार, 21 दिसंबर 2020

भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार

                           


एक समय की बात है। हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ। उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर भगवती महामाया की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाए भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामंत्र का जाप करता रहा। उसकी इंद्रियां उसके वश में हो चुकी थीं।

सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था। उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया। भगवती महामाया ने उससे कहा, ‘‘महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई। मैं तुम पर परम प्रसन्न हूं। तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूं। वत्स वर मांगो।’’ भगवती की दया और प्रेम से ओत-प्रोत वाणी सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए। उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा, ‘‘कल्याणमयी देवि! आपको नमस्कार है। आप महामाया हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें।

देवी ने कहा, ‘‘दैत्य राज! संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता। किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है। अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है। अत: तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर मांगो।’’ हयग्रीव बोला, ‘‘अच्छा तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो। दूसरे मुझे न मार सकें। मेरे मन की यही अभिलाषा है। आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें।’’ ‘ऐसा ही हो’। यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं। हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वह दुष्ट देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया। त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके। उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा।

यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगडऩे लगी। ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गए, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे। उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी। ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी। उस समय बड़ा भयंकर शब्द हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया। सिर रहित भगवान के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही। सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की। भगवती प्रकट हुई। उन्होंने कहा, ‘‘देवताओ चिंता मत करो।

मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा। ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें। इससे भगवान का हयग्रीवावतार होगा। वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे।’’ ऐसा कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गई। भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया। भगवती के कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया। फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ। अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई। हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुन: समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों का संकट निवारण किया।

सोमवार, 14 दिसंबर 2020

खाटू श्याम बाबा की कहानी




राजस्थान के सीकर जिले में श्री खाटू श्याम जी का सुप्रसिद्ध मंदिर है. वैसे तो खाटू श्याम बाबा के भक्तों की कोई गिनती नहीं लेकिन इनमें खासकर वैश्य, मारवाड़ी जैसे व्यवसायी वर्ग अधिक संख्या में है. श्याम बाबा कौन थे, 

उनके जन्म और जीवन चरित्र के बारे में जानते हैं इस लेख में.

खाटू श्याम बाबा कौन हैं?


खाटू श्याम जी का असली नाम बर्बरीक है. महाभारत की एक कहानी के अनुसार बर्बरीक का सिर राजस्थान प्रदेश के खाटू नगर में दफना दिया था. इसीलिए बर्बरीक जी का नाम खाटू श्याम बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुआ. वर्तमान में खाटूनगर सीकर जिले के नाम से जाना जाता है. खाटू श्याम बाबा जी कलियुग में श्री कृष्ण भगवान के अवतार के रूप में माने जाते हैं.


खाटू श्याम बाबा की कहानी.

श्याम बाबा घटोत्कच और नागकन्या नाग कन्या मौरवी के पुत्र हैं. पांचों पांडवों में सर्वाधिक बलशाली भीम और उनकी पत्नी हिडिम्बा बर्बरीक के दादा दादी थे. कहा जाता है कि जन्म के समय बर्बरीक के बाल बब्बर शेर के समान थे, अतः उनका नाम बर्बरीक रखा गया. बर्बरीक का नाम श्याम बाबा कैसे पड़ा, आइये इसकी कहानी जानते हैं.


श्री खाटू श्याम बाबा जी

बर्बरीक बचपन में एक वीर और तेजस्वी बालक थे. बर्बरीक ने भगवान श्री कृष्ण और अपनी माँ मौरवी से युद्धकला, कौशल सीखकर निपुणता प्राप्त कर ली थी. बर्बरीक ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, जिसके आशीर्वादस्वरुप भगवान ने शिव ने बर्बरीक को 3 चमत्कारी बाण प्रदान किए. इसी कारणवश बर्बरीक का नाम तीन बाणधारी के रूप में भी प्रसिद्ध है. भगवान अग्निदेव ने बर्बरीक को एक दिव्य धनुष दिया था, जिससे वो तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने में समर्थ थे.

जब कौरवों-पांडवों का युद्ध होने का सूचना बर्बरीक को मिली तो उन्होंने भी युद्ध में भाग लेने का निर्णय लिया. बर्बरीक अपनी माँ का आशीर्वाद लिए और उन्हें हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन देकर निकल पड़े. इसी वचन के कारण हारे का सहारा बाबा श्याम हमारा यह बात प्रसिद्ध हुई.

जब बर्बरीक जा रहे थे तो उन्हें मार्ग में एक ब्राह्मण मिला. यह ब्राह्मण कोई और नहीं, भगवान श्री कृष्ण थे जोकि बर्बरीक की परीक्षा लेना चाहते थे. ब्राह्मण बने श्री कृष्ण ने बर्बरीक से प्रश्न किया कि वो मात्र 3 बाण लेकर लड़ने को जा रहा है ? मात्र 3 बाण से कोई युद्ध कैसे लड़ सकता है. बर्बरीक ने कहा कि उनका एक ही बाण शत्रु सेना को समाप्त करने में सक्षम है और इसके बाद भी वह तीर नष्ट न होकर वापस उनके तरकश में आ जायेगा. अतः अगर तीनों तीर के उपयोग से तो सम्पूर्ण जगत का विनाश किया जा सकता है.

ब्राह्मण ने बर्बरीक से एक पीपल के वृक्ष की ओर इशारा करके कहा कि वो एक बाण से पेड़ के सारे पत्तों को भेदकर दिखाए. बर्बरीक ने भगवान का ध्यान कर एक बाण छोड़ दिया. उस बाण ने पीपल के सारे पत्तों को छेद दिया और उसके बाद बाण ब्राह्मण बने कृष्ण के पैर के चारों तरफ घूमने लगा. असल में कृष्ण ने एक पत्ता अपने पैर के नीचे छिपा दिया था. बर्बरीक समझ गये कि तीर उसी पत्ते को भेदने के लिए ब्राह्मण के पैर के चक्कर लगा रहा है. बर्बरीक बोले – हे ब्राह्मण अपना पैर हटा लो, नहीं तो ये आपके पैर को वेध देगा.

श्री कृष्ण बर्बरीक के पराक्रम से प्रसन्न हुए. उन्होंने पूंछा कि बर्बरीक किस पक्ष की तरफ से युद्ध करेंगे. बर्बरीक बोले कि उन्होंने लड़ने के लिए कोई पक्ष निर्धारित किया है, वो तो बस अपने वचन अनुसार हारे हुए पक्ष की ओर से लड़ेंगे. श्री कृष्ण ये सुनकर विचारमग्न हो गये क्योकि बर्बरीक के इस वचन के बारे में कौरव जानते थे. कौरवों ने योजना बनाई थी कि युद्ध के पहले दिन वो कम सेना के साथ युद्ध करेंगे. इससे कौरव युद्ध में हराने लगेंगे, जिसके कारण बर्बरीक कौरवों की तरफ से लड़ने आ जायेंगे. अगर बर्बरीक कौरवों की तरफ से लड़ेंगे तो उनके चमत्कारी बाण पांडवों का नाश कर देंगे.

कौरवों की योजना विफल करने के लिए ब्राह्मण बने कृष्ण ने बर्बरीक से एक दान देने का वचन माँगा. बर्बरीक ने दान देने का वचन दे दिया. अब ब्राह्मण ने बर्बरीक से कहा कि उसे दान में बर्बरीक का सिर चाहिए. इस अनोखे दान की मांग सुनकर बर्बरीक आश्चर्यचकित हुए और समझ गये कि यह ब्राह्मण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है. बर्बरीक ने प्रार्थना कि वो दिए गये वचन अनुसार अपने शीश का दान अवश्य करेंगे, लेकिन पहले ब्राह्मणदेव अपने वास्तविक रूप में प्रकट हों.

भगवान कृष्ण अपने असली रूप में प्रकट हुए. बर्बरीक बोले कि हे देव मैं अपना शीश देने के लिए बचनबद्ध हूँ लेकिन मेरी युद्ध अपनी आँखों से देखने की इच्छा है. श्री कृष्ण बर्बरीक ने बर्बरीक की वचनबद्धता से प्रसन्न होकर उसकी इच्छा पूरी करने का आशीर्वाद दिया. बर्बरीक ने अपना शीश काटकर कृष्ण को दे दिया. श्री कृष्ण ने बर्बरीक के सिर को 14 देवियों के द्वारा अमृत से सींचकर युद्धभूमि के पास एक पहाड़ी पर स्थित कर दिया, जहाँ से बर्बरीक युद्ध का दृश्य देख सकें. इसके पश्चात कृष्ण ने बर्बरीक के धड़ का शास्त्रोक्त विधि से अंतिम संस्कार कर दिया.

महाभारत का महान युद्ध समाप्त हुआ और पांडव विजयी हुए. विजय के बाद पांडवों में यह बहस होने लगी कि इस विजय का श्रेय किस योद्धा को जाता है. श्री कृष्ण ने कहा – चूंकि बर्बरीक इस युद्ध के साक्षी रहे हैं अतः इस प्रश्न का उत्तर उन्ही से जानना चाहिए. तब परमवीर बर्बरीक ने कहा कि इस युद्ध की विजय का श्रेय एकमात्र श्री कृष्ण को जाता है, क्योकि यह सब कुछ श्री कृष्ण की उत्कृष्ट युद्धनीति के कारण ही सम्भव हुआ. विजय के पीछे सबकुछ श्री कृष्ण की ही माया थी.

बर्बरीक के इस सत्य वचन से देवताओं ने बर्बरीक पर पुष्पों की वर्षा की और उनके गुणगान गाने लगे. श्री कृष्ण वीर बर्बरीक की महानता से अति प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा – हे वीर बर्बरीक आप महान है. मेरे आशीर्वाद स्वरुप आज से आप मेरे नाम श्याम से प्रसिद्ध होओगे. कलियुग में आप कृष्णअवतार रूप में पूजे जायेंगे और अपने भक्तों के मनोरथ पूर्ण करेंगे.

भगवान श्री कृष्ण का वचन सिद्ध हुआ और आज हम देखते भी हैं कि भगवान श्री खाटू श्याम बाबा जी अपने भक्तों पर निरंतर अपनी कृपा बनाये रखते हैं. बाबा श्याम अपने वचन अनुसार हारे का सहारा बनते हैं. इसीलिए जो सारी दुनिया से हारा सताया गया होता है वो भी अगर सच्चे मन से बाबा श्याम के नामों का सच्चे मन से नाम ले और स्मरण करे तो उसका कल्याण अवश्य ही होता है. श्री खाटू श्याम बाबा की महिमा अपरम्पार है, सश्रद्धा विनती है कि बाबा श्याम इसी प्रकार अपने भक्तों पर अपनी कृपा बनाये रखें.

सोमवार, 7 दिसंबर 2020

गणेश नामवली-108 - नाम के अर्थ

 


1. बालगणपति: सबसे प्रिय बालक

2. भालचन्द्र: जिसके मस्तक पर चंद्रमा हो

3. बुद्धिनाथ: बुद्धि के भगवान

4. धूम्रवर्ण: पुं० उक्त प्रकार का रंग

5. एकाक्षर: एकल अक्षर

6. एकदन्त: एक दांत वाले

7. गजकर्ण: हाथी की तरह आंखें वाला

8. गजानन: हाथी के मुँख वाले भगवान

9. गजनान: हाथी के मुख वाले भगवान

10. गजवक्र: हाथी की सूंड वाला

11. गजवक्त्र: जिसका हाथी की तरह मुँह है

12. गणाध्यक्ष: सभी जणों का मालिक

13. गणपति: सभी गणों के मालिक

14. गौरीसुत: माता गौरी का बेटा

15. लम्बकर्ण: बड़े कान वाले देव

16. लम्बोदर: बड़े पेट वाले

17. महाबल: अत्यधिक बलशाली वाले प्रभु

18. महागणपति: देवातिदेव

19. महेश्वर: सारे ब्रह्मांड के भगवान

20. मंगलमूर्त्ति: सभी शुभ कार्य के देव

21. मूषकवाहन: जिसका सारथी मूषक है

22. निदीश्वरम: धन और निधि के दाता

23. प्रथमेश्वर: सब के बीच प्रथम आने वाला

24. शूपकर्ण: बड़े कान वाले देव

25. शुभम: सभी शुभ कार्यों के प्रभु

26. सिद्धिदाता: इच्छाओं और अवसरों के स्वामी

27. सिद्दिविनायक: सफलता के स्वामी

28. सुरेश्वरम: देवों के देव

29. वक्रतुण्ड: घुमावदार सूंड

30. अखूरथ: जिसका सारथी मूषक है

31. अलम्पता: अनन्त देव

32. अमित: अतुलनीय प्रभु

33. अनन्तचिदरुपम: अनंत और व्यक्ति चेतना

34. अवनीश: पूरे विश्व के प्रभु

35. अविघ्न: बाधाओं को हरने वाले

36. भीम: विशाल

37. भूपति: धरती के मालिक

38. भुवनपति: देवों के देव

39. बुद्धिप्रिय: ज्ञान के दाता

40. बुद्धिविधाता: बुद्धि के मालिक

41. चतुर्भुज: चार भुजाओं वाले

42. देवादेव: सभी भगवान में सर्वोपरी

43. देवांतकनाशकारी: बुराइयों और असुरों के विनाशक

44. देवव्रत: सबकी तपस्या स्वीकार करने वाले

45. देवेन्द्राशिक: सभी देवताओं की रक्षा करने वाले

46. धार्मिक: दान देने वाला

47. दूर्जा: अपराजित देव

48. द्वैमातुर: दो माताओं वाले

49. एकदंष्ट्र: एक दांत वाले

50. ईशानपुत्र: भगवान शिव के बेटे

51. गदाधर: जिसका हथियार गदा है

52. गणाध्यक्षिण: सभी पिंडों के नेता

53. गुणिन: जो सभी गुणों क ज्ञानी

54. हरिद्र: स्वर्ण के रंग वाला

55. हेरम्ब: माँ का प्रिय पुत्र

56. कपिल: पीले भूरे रंग वाला

57. कवीश: कवियों के स्वामी

58. कीर्त्ति: यश के स्वामी

59. कृपाकर: कृपा करने वाले

60. कृष्णपिंगाश: पीली भूरी आंखवाले

61. क्षेमंकरी: माफी प्रदान करने वाला

62. क्षिप्रा: आराधना के योग्य

63. मनोमय: दिल जीतने वाले

64. मृत्युंजय: मौत को हरने वाले

65. मूढ़ाकरम: जिन्में खुशी का वास होता है

66. मुक्तिदायी: शाश्वत आनंद के दाता

67. नादप्रतिष्ठित: जिसे संगीत से प्यार हो

68. नमस्थेतु: सभी बुराइयों और पापों पर विजय प्राप्त करने वाले

69. नन्दन: भगवान शिव का बेटा

70. सिद्धांथ: सफलता और उपलब्धियों की गुरु

71. पीताम्बर: पीले वस्त्र धारण करने वाला

72. प्रमोद: आनंद

73. पुरुष: अद्भुत व्यक्तित्व

74. रक्त: लाल रंग के शरीर वाला

75. रुद्रप्रिय: भगवान शिव के चहीते

76. सर्वदेवात्मन: सभी स्वर्गीय प्रसाद के स्वीकार्ता

77. सर्वसिद्धांत: कौशल और बुद्धि के दाता

78. सर्वात्मन: ब्रह्मांड की रक्षा करने वाला

79. ओमकार: ओम के आकार वाला

80. शशिवर्णम: जिसका रंग चंद्रमा को भाता हो

81. शुभगुणकानन: जो सभी गुण के गुरु हैं

82. श्वेता: जो सफेद रंग के रूप में शुद्ध है

83. सिद्धिप्रिय: इच्छापूर्ति वाले

84. स्कन्दपूर्वज: भगवान कार्तिकेय के भाई

85. सुमुख: शुभ मुख वाले

86. स्वरुप: सौंदर्य के प्रेमी

87. तरुण: जिसकी कोई आयु न हो

88. उद्दण्ड: शरारती

89. उमापुत्र: पार्वती के बेटे

90. वरगणपति: अवसरों के स्वामी

91. वरप्रद: इच्छाओं और अवसरों के अनुदाता

92. वरदविनायक: सफलता के स्वामी

93. वीरगणपति: वीर प्रभु

94. विद्यावारिधि: बुद्धि की देव

95. विघ्नहर: बाधाओं को दूर करने वाले

96. विघ्नहर्त्ता: बुद्धि की देव

97. विघ्नविनाशन: बाधाओं का अंत करने वाले

98. विघ्नराज: सभी बाधाओं के मालिक

99. विघ्नराजेन्द्र: सभी बाधाओं के भगवान

100. विघ्नविनाशाय: सभी बाधाओं का नाश करने वाला

101. विघ्नेश्वर: सभी बाधाओं के हरने वाले भगवान

102. विकट: अत्यंत विशाल

103. विनायक: सब का भगवान

104. विश्वमुख: ब्रह्मांड के गुरु

105. विश्वराजा: संसार के स्वामी

105. यज्ञकाय: सभी पवित्र और बलि को स्वीकार करने वाला

106. यशस्कर: प्रसिद्धि और भाग्य के स्वामी

107. यशस्विन: सबसे प्यारे और लोकप्रिय देव

108. योगाधिप: ध्यान के प्रभु


दत्तात्रेय अवतार




धर्म ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है-

एक बार माता लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती को अपने पातिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान ने इनका अंहकार नष्ट करने के लिए लीला रची। उसके अनुसार एक दिन नारदजी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों को बारी-बारी जाकर कहा कि ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूइया के सामने आपका सतीत्व कुछ भी नहीं। तीनों देवियों ने यह बात अपने स्वामियों को बताई और उनसे कहा कि वे अनुसूइया के पातिव्रत्य की परीक्षा लें।

तब भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा साधु वेश बनाकर अत्रि मुनि के आश्रम आए। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। तीनों ने देवी अनुसूइया से भिक्षा मांगी मगर यह भी कहा कि आपको निर्वस्त्र होकर हमें भिक्षा देनी होगी। अनुसूइया पहले तो यह सुनकर चौंक गई, लेकिन फिर साधुओं का अपमान न हो इस डर से उन्होंने अपने पति का स्मरण किया और बोला कि यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ:-छ: मास के शिशु हो जाएं।

ऐसा बोलते ही त्रिदेव शिशु होकर रोने लगे। तब अनुसूइया ने माता बनकर उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और पालने में झूलाने लगीं। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई। तीनों देवियां अनुसूइया के पास आईं और क्षमा मांगी। तब देवी अनुसूइया ने त्रिदेव को अपने पूर्व रूप में कर दिया। प्रसन्न होकर त्रिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि हम तीनों अपने अंश से तुम्हारे गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ।


गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

अग्नि सूक्त

 



अग्नि सूक्त" ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है, इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र है, इसके देवता "अग्नि" हैं, इसका छन्द "गायत्री-छन्द" है ।इस सूक्त का स्वर "षड्जकृ" है ।

गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं । इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का छन्द होता है।.


अग्नि-सूक्त में कुल नौ मन्त्र है ।

संख्या की दृष्टि से सम्पूर्ण वैदिक संस्कृत में इऩ्द्र के बाद अग्नि  का ही स्थान है , किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है ।

स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है । सामूहिक रूप से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है ।अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है । इनका पृथिवीलोक में प्रमुख स्थान है
अग्नि का स्वरूपअग्नि शब्द "अगि गतौ" धातु से बना है । गति के तीन अर्थ हैंःज्ञान, गमन और प्राप्ति ।

इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है ।
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता हैः---"अग्निर्वै सर्वा देवता ।"अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है । अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा हैः---"अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा ।"


आचार्य यास्क ने अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति दिखाई हैः---

(क) अग्रणीर्भवतीति अग्निः ।" मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
(ख) "अयं यज्ञेषु प्रणीयते ।" यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(ग) "अङ्गं नयति सन्नममानः ।" अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।
(घ) "अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः । न क्नोपयति न स्नेहयति ।" निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं ।
(ङ) त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।" शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से "अ", अञ्जू से या दह् से "ग" और णीञ् से "नी" लेकर बना है ।

कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है । याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैंःगार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि । "गार्हपत्याग्नि" सदैव प्रज्वलित रहती है । शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता ।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है ।


अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है
(1.) अग्नि का रूप
अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है---"घृतपृष्ठ"।
इसका मुख घृत से युक्त हैः--"घृतमुख" । इसकी जिह्वा द्युतिमान् है । दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान है । केश और दाढी भूरे रंग के हैं । जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है । इसके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं । इसके नेत्र घृतयुक्त हैंः--"घृतम् में चक्षुः ।" इसका रथ युनहरा और चमकदार है । उसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं । अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं । वह अपने उपासकों का सदैव सहायक होता है ।

(2.) अग्नि का जन्म
अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है । यह अपने आप से उत्पन्न होता है । अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होता है । इसके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है । इसका अभिप्राय है कि अग्नि का जन्म अग्नि से ही हुआ है । प्रकृति के मूल में अग्नि है । ऋग्वेद के "पुरुष-सूक्त" में अग्नि की उत्पत्ति "विराट्-पुरुष" के मुख से बताई गई हैः--"मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च ।"

(3.) भोजन
अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है । "आज्य" उसका प्रिय पेय पदार्थ है । यह यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करता है ।

(4.) अग्नि कविक्रतु है
अग्नि कवि तुल्य है । वह अपना कार्य विचारपूर्वक करता है । कवि का अर्थ हैः--क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी । वह ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी है । उसमें अन्तर्दृष्टि है । ऐसा व्यक्ति ही सुखी होता हैः---"अग्निर्होता कविक्रतुः ।"

(5.) गमन
अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है । विद्युत् रथ पर सवार होकर चलता है । जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है । वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है , जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है ।

(6.) अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक है :
अग्नि रोग-शोक , पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं । वह व्यक्ति पराजित नहीं होता ---"देवम् अमीवचातनम् ।"  और "प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः ।"

(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :
यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है । उसे यज्ञ का "ऋत्विक्" कहा जाता है । वह "पुरोहित" और "होता" है । वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता हैः---"अग्निमीऴे पुरोहितम् ।"

(8.) देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध
अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं । मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि अपनी ऊर्जाएँ फैलाए हुए हैं । अश्विनी प्राण-अपान वायु है । इससे ही मानव जीवन चलता है इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं । अग्नि वायु का मित्र है । जब अग्नि प्रदीप्त होकर जलती है, तब वायु उसका साथ देता हैः---"आदस्य वातो अनु वाति शोचिः ।"

(9.) मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :
अग्नि मनुष्य का रक्षक पिता हैः---"स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव ।" (ऋग्वेदः--1.1.9) उसे दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है।

(10.) पशुओं से तुलना :
यह आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होती है । यह हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहती है । यह उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करता हैः----"हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः ।"

(11.) अग्नि अतिथि है
अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहता है और सत्यनिष्ठा से रक्षा करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी हैं, वह उसकी रक्षा करता है । यह अतिथि के समान इस शरीर में रहता है, जब उसकी इच्छा होती है, प्रस्थान कर जाता हैः--"अतिथिं मानुषाणाम् ।"

(12.) अग्नि अमृत है
संसार नश्वर है । इसमें अग्नि ही अजर-अमर है । यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है । अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है । जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता हैः---"विश्वास्यामृत भोजन ।"

(13.) अग्नि के तीन शरीर :
अग्नि के तीन शरीर हैः--- स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर । हमारा अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला शरीर स्थूल शरीर है । मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है । आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर हैः---"तिस्र उ ते तन्वो देववाता ।"


अग्नि-सूक्त के मन्त्र :
(1.) ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ।।
(2.) ॐ अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।।
(3.) ॐ अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ।।
(4.) ॐ अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ।।
(5.) ॐ अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरागमत् ।।
(6.) ॐ यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।।
(7.) ॐ उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
मनो भरन्त एमसि ।।
(8.) ॐ राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ।।
(9.) ॐ स नः पितेव सूनवेSग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ।।

१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥
हम अग्निदेव की स्तुति करते है (कैसे अग्निदेव?)
जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ),
देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है

२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति
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जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥

३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्
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(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥

४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति

हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥

५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत्

हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥

६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर:
हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥

७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥

८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥

९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥
हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥