मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

वैष्णव और शैव की अद्भुत कथा, ॐ हरि हराय् नमः


एक समय की बात है की महर्षि गौतम ने भगवान शंकर को खाने पर आमंत्रित किया। उनके इस आग्रह को शिव जी ने स्वीकार कर लिया उनके साथ चलने के लिए भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी भी तैयार हो गए। महर्षि के आश्रम मे पहुच कर तीनो वहाँ बैठ गए।

भोले बाबा और श्री हरी विष्णु एक शैय्या पर लेटकर बहुत देर तक प्रेमालाप करते रहे। इसके बाद उन दोनो ने आश्रम के पास ही एक तालाब मे नहाने चले गए वहा पर भी वे बहुत देर तक जलक्रीडा करते रहे। भगवान शिव जी ने पानी मे खडे श्री हरी पर जल की कोमल बूंदों से प्रहार किया इस प्रहार को विष्णु जी सहन ना कर सके और अपनी आँखें मुँद ली। इस पर भी भगवान शिव जी को संतोष नही मिला और वे झट से कुदकर वे विष्णु जी के कंधे पर चढ गए और भगवान विष्णु को कभी पानी मे दबा देते तो कभी पानी के ऊपर ले आते इस प्रकार बार-बार तंग करने पर विष्णु जी ने भी अब शिव जी को पानी मे दे मारा।

दोनो के इस प्रकार के खेल को देखकर देवता गण हर्षित हो रहे थे और दोनो की लीला को देखकर मन ही मन उन्हे प्रणाम कर रहे थे। उसी समय नारद जी वहाँ से गुजर रहे थे ये लीला देखकर वे सुंदर वीणा बजाने लगे और गाना भी गाने लगे उनके साथ शिव जी भी भीगे शरीर मे ही सुर से सुर मिलाने लगे फिर तो विष्णु जी भी पानी से बाहर आकर म्रदंग बजाने लगे। जब ब्रह्मा जी ने स्वर सुना तो फिर वे भी मस्ती के इस क्रम मे शामिल हो गए।

बची-खुची जो भी कसर थी वो श्री हनुमान जी ने पुरी कर दी जब वे राग आलापने लगे तो सभी चुप हो कर शान्ति से उनका संगीत सुनने लगे। सभी देव, नाग, किन्नर, गन्धर्व आदि उस अलौकिक लीला को देख रहे थे और अपनी आँखें धन्य कर रहे थे। उधर महर्षि गौतम ये सोचकर परेशान थे कि स्नान को गए मेरे पुज्य अतिथि गण अब तक क्यो नही आए उन्हे चिन्ता हो रही थी और इधर तो भगवान को धमाचौकड़ी मचाने से फुर्सत कहाँ।

सब एक दुसरे के गाने बजाने मे इतने मगन थे कि उन्हे ये भी याद न रहा कि वे महर्षि गौतम के अतिथि बन यहाँ आए हैं। फिर महर्षि गौतम ने बड़ी ही मुश्किल से उन्हे भोजन के लिए मनाया आश्रम लेकर आए और भोजन परोसा।

तीनो ने भोजन करना शुरु किया। इसके बाद हनुमान जी ने फिर संगीत गाना शुरु कर दिया। सुर मे मस्त शिव जीने अपने एक पैर को हनुमान जी के हाथों पर और दुसरे पैर को हनुमान जी सीने, पेट, नाक,आँख आदि अंगो का स्पर्श कर वही लेट गये। यह देखकर भगवान विष्णु ने हनुमान से कहा – “हनुमान तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो शिव जी के चरण तुम्हारे शरीर को स्पर्श कर रहे है। जिस चरणो की छाँव पाने के लिए सभी देव-दानव आदि लालायीत रहते है।

उन चरणो की छाँव सहज ही तुम्हे प्राप्त हो गये है। अनेक साधु-संत और कई साधक जन्मो तक तपस्या और साधना करते है फिर भी उन्हे ये सौभाग्य प्राप्त नही होता। मैंने भी सहस्त्र कमलों से इनकी अर्चना की थी पर ये सुख मुझे भी न मिला। आज मुझे तुमसे ईष्या का अनुभव हो रहा हैं। सभी लोको मे यह बात सब जानते है कि नारायण भगवान शंकर के परम प्रितीभाजन है पर यह देखकर मुझे संदेह-सा हो रहा है।” यह सुन कर भगवान शिव शंकर बोल उठे- “हे नारायण ये क्या कह रहे है आप तो मुझे प्राणो से भी प्यारे है।

औरो की क्या बात है देवी पार्वती भी आपसे अधिक प्रिय नही है मेरे लिए आप तो जानते ही है।” भगवती पार्वती जी उधर कैलाश मे ये सोचकर परेशान हो रही थीं कि आज कैलाशपति शिव जी कहाँ चले गये कही मुझे से रुठकर तो नही चले गये। यह सोचकर देवी पार्वती शिव जी को ढुढते- ढुढते आश्रम पहुचे और पता चला कि मेरे स्वामी शिव जी, विष्णु जी और ब्रह्मा जी महर्षि गौतम के यहा मेहमानी मे गये हैं। उन्होनें भी महर्षि गौतम का परोसा खाना खाया। इसके बाद विनोदवश देवी पार्वती ने शिव जी के वेश-भूषा को लेकर हंसी उड़ाई और बहुत सी ऐसी बातें कही जो अक्सर पति पत्नि प्रेम से एक दुसरे को कुछ भला बुरा कहते रहते हैं।

ये बात सुनकर भगवान विष्णु जी से रहा नही गया और वे बोल उठे- “देवी! ये आप क्या कह रही है। मुझसे आपकी बात सही नही जा रही। जहाँ शिव निन्दा होती है वहाँ मैं प्राण धारण कर नही रह सकता।” इतना कहकर श्री हरी ने अपने नाखुनो से अपने ही सिर को फाड़ने लगे। यह देखकर सभी ने उन्हें रोकने की कोशिश की पर वे नही मान रहे थे फिर शिव जी के अनुरोध पर वे रुके। इनके इस प्रेम को देखकर हमे ये समझना चाहिए कि ये दोनो किसी भी प्रकार से अलग नहीं हैं, फिर हम किस कारण विवाद करते है किसी को श्रेष्ठ और किसी को निम्न कहते है।

हिन्दू धर्म में, विष्णु (=हरि) तथा शिव (=हर) का सम्मिलित रूप हरिहर कहलाता है। इनको 'शंकरनारायण' तथा 'शिवकेशव' भी कहते हैं। विष्णु तथा शिव दोनों का सम्मिलित रूप होने के कारण हरिहर वैष्णव तथा शैव दोनों के लिये पूज्य हैं।
ॐ हरि हराय् नमः
💓महादेव💓☘️ हरि हर🌿💓 महादेव

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

शनि देव जी की कथा



 एक बार सभी ग्रह एक साथ इकट्ठे हुए और आपस में बाते करने लगे | कुछ विषयों पर बात करते करते वो एक विषय पर आकर रुक गये कि “सबसे सम्मानित ग्रह कौनसा है ” | वो सब आपस में तर्क वितर्क करने लगे लेकिन कोई नतीजा नही निकला इसलिए उन्होंने इंद्र देव के पास जाने का विचार किया | तो सभी ग्रह इंद्र देव के पास गये और वो भी विस्मय में पड़ गये क्योंकि अगर वो किसी को उचा नीचा दिखायेंगे तो किसी भी ग्रह का कोप उन पर गिर सकता था | कुछ देर बाद विचार करने के बाद इंद्र देव ने कहा “मान्यवरो , मै इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हु लेकिन उज्जैयनी नगर में विक्रमादित्य नाम का राजा है जो आपके प्रश्न का उत्तर दे सकता है ” | इस तरह इंद्र देव के कहने पर सभी ग्रह राजा विक्रम के दरबार में गये |

विक्रमादित्य उस समय का सबसे पसंदीदा राजा था क्योंकि वो अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध था | जब उसने देखा कि सभी ग्रह उसके दरबार में आ रहे है तो वो तुंरत अपने सिंहासन से उठ गया और उन्हें अपने आसनों पर बैठने को कहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया | उन्होंने कहा “हम यहा तब तक आसनों पर नही बैठेंगे जब तक तुम ये न्याय ना कर दो कि हम सब में से सबसे ऊचा ग्रह कौनसा है ” | विक्रमादित्य भी ऐसा प्रश्न सुनकर विस्मय में पड़ गया लेकिन फिर उसने एक योजना बनाई | उसने आसनों की एक कतार उसके सिंहासन से द्वार तक बनाई और उन्हें बैठने को कहा जब तक कि वो इसका निर्णय करते है |

विक्रम के सबसे निकट वाले आसन पर बृहस्पति जी दौड़ते हुए जाकर बैठ गये | अगले आसन पर सूर्य , उसके बाद चन्द्रमा ,उसके बाद मंगल , फिर राहू ओर फिर केतु बैठ गये | शुक्र देव आठवे आसन पर बैठ गये और अब अंतिम आसन बचा था और शनि देव बच गये थे | लेकिन वो आसन सबसे अंतिम था और द्वार के नजदीक था इसलिए शनि देव ने वहा बैठने से मना कर दिया | विक्रम ने सोचा कि जो भी उस अंतिम आसन पर बैठकर विनम्रता दर्शायेगा उसे ही वो सबसे महान घोषित करेंगे लेकिन शनि देव के वहा नही बैठने से सब गडबड हो गया |

शनि देव एक क्रोध वाले देवता है | जब वो वहा पर नही बैठे तो सभी ग्रह हसने लग गये | शनि देव ने इसे अपना अपमान मानते हुए बहुत क्रोधित हुए और विक्रम से कहा “तुमने इस तरह मेरा अपमान करके अच्छा नही किया , तुम मुझे क्या मानते हो ? तुम मुझे अंत में बिठाने के लिए बुलाया है ? एक बात ध्यान रखना कि किसी भी राशि में चन्द्रमा सवा दो दिन ; सूर्य , बुध और शुक्र केवल 15 दिन ; मंगल 2 महीने ; गुरु 13 महीने और राहू-केतु 18 महीने तक रहते है लेकिन मै साढ़े सात साल तक किसी भी राशि में रहता हु | इसलिए तुम अब अपना ध्यान रखो , तुम्हे भी मेरे अपमान का दंड सहना पड़ेगा | ”

राजा विक्रम कुछ दिनों तक बिना कीसी मुसीबत के दिन गुजारे लेकिन जल्द ही राजा के साढ़े साती शुरू हो गये | उन दिनों में एक अश्व व्यापारी वहा आया और वहा घोड़े बेचने के लिए रुका | राजा ने भी कुछ सुंदर घोड़े खुद के लिए खरीदे | उनमे से एक घोड़े का नाम भंवर था जिसे राजा बहुत पसंद करता था | राजा उस घोड़े पर सवार हो गया और इधर उधर घुमने लगा तभी कुछ देर बाद वो दौड़ता हुआ राजा को एक घने जंगल में छोडकर भाग गया | राजा को ये देखकर बहुत आश्चर्य हुआ और अब वो उस जंगल में भूखा-प्यासा भटकने लगा |

जब रात हुयी तो राजा को बड़ी जोरो की प्यास लगी जिससे वो जोर जोर से चिल्लाने लगा | एक दूधवाला उस रास्ते से गुजर रहा था उसने विक्रम को देख लिया | वो विक्रम को पास की नदी पर लेकर गया और उसे शीतल जल पिलाया | विक्रम बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उस दूधवाले को अपनी सोने की अंगूठी निकालकर दे दी और कहा “मै उज्जैन रहता हु और रास्ता भटक गया हु , क्या तुम मुझे रास्ता बता सकते हो ” | वो दूधवाला उसको गाँव में लेकर आया और उसको एक दुकानदार ने भोजन कराया | विक्रम ने दुकानदार को भी एक अंगूठी दी और उसको भी विक्रम ने रास्ता भटकने वाली बात बताई |

अब वो उस दुकानदार के साथ पुरे दिन बाते करता रहा और उस दिन दुकानदार को खूब आमदनी हुयी | उसने सोचा इस आदमी की वजह से उसकी आज अच्छी आमदनी हुयी इसलिए उसने विक्रम को उसके साथ शाम को घर चलने को कहा | विक्रम उसके साथ घर गया और दुकानदार ने उसकी खूब खातिरदारी की | अब खाना खाते वक़्त एक अजीब घटना हुयी , जब विक्रम खाना खा रहा था तो वहा पर दीवार पर रखा हुआ सोने का हार गायब हो गया | दुकानदार की नौकरानी ने उसकी पत्नी को गले का हार चोरी होने की खबर दी | जब दुकानदार ने ये बात सूनी तो उसने विक्रम से हार के बारे में पूछा तो विक्रम के हार के बारे में कुछ भी पता होने से इंकार कर दिया |

दुकानदार ने कहा “जब हार चोरी हुआ तक तुम्हारे अलावा यहा कोई बाहर का व्यक्ति नही था , तुम जल्दी बताओ कि वो हार कहा है ” | विक्रम ने कहा “मै हार के बारे में कुछ नही जानता हु और मैंने हार नही चुराया है “| दुकानदार विक्रम को राजा के पास लेकर गये | जब राजा ने विक्रम के भोले चेहरे को देखा तो उसने कहा “ये आदमी कुछ चोरी नही कर सकता है ” | इस तरह राजा ने विक्रम को आजाद कर दिया | अब विक्रम शहर में घूम रहा था तभी के तेली ने उसे देखा और उसको अपने यहाँ काम करने के लिए पुछा | उस तेली ने विक्रम को काम के बदले रहने खाने की व्यवस्था देने को कहा | विक्रम राजी हो गया और वो तेली विक्रम को घर लेकर आ गया |
अब विक्रम कोल्हू के बैल को चलाने का काम करने लगा और वो तेली तेल को बाजार में बेचने जाता था | जब बारिश का मौसम आया तब विक्रम तेज आवाज में गाना गाने लगा | उसकी आवाज पास ही राजा के महल तक पहुच गयी और राजकुमारी इस मधुर स्वर पर मोहित हो गयी | उसने अपनी दासी को भेजकर उस आदमी का पता लगाने को कहा | दासी वहा गयी और उसने राजकुमारी को बताया कि एक नौजवान अपनी आंखे बंद कर गा रहा था | राजकुमारी उसके प्यार में खाना पीना भूल गयी थी | उसकी माँ ने उससे अपनी इस दशा का कारण पूछा | राजकुमारी ने कहा कि वो अगर वो विवाह करेगी तो सिर्फ उस मधुर गाना गाने वाले तेली से विवाह करेगी |

जब राजा ने अपनी पुत्री की ये मांग सूनी तो वो बहुत क्रोधित हुआ | उसने विक्रम को बुलाया और उसके हाथ काटकर उसे जंगल में फेंक दिया | जब राजकुमारी को इस बात का पता चला तो उसने अपने मन को मजबूत करते हुए कहा कि अगर वो विवाह करेगी तो सिर्फ उसी तेली से चाहे उसके हाथ हो या ना हो | अपनी बेटी की जिद को देखते हुए राजा ने विक्रम को बुलाया और उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया | राजा ने उनके रहने के लिए एक साधारण घर भी दिया |

एक दिन विक्रम सो रहा था और शनि देव उसके स्वप्न में आये , उसने शनि देव को प्रणाम किया और गलती की माफी माँगी | शनि देव ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा “अब तुम्हारे साढ़े साती खत्म होते है ” | और विक्रम के दोनों हाथ वापस आ गये | विक्रम ने अपनी पत्नी को नही जगाया और सुबह उसकी पत्नी उसके दोनों हाथ देखकर बहुत खुश हुयी | राजा को भी इस खबर का पता चल गया तो वो भी विक्रम को देखने आया और उसने बताया कि वो शनि देव का कोप झेल रहा था और उन्ही की दयालुता से उसके दोनों हाथ वापस आ गये | तब उसने राजा को अपना पूरा परिचय दिया | विक्रम का परिचय सुनकर राजा उसके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा |

जब दुकानदार को इस बात का पता चला तो वो भी दौड़ता हुआ विक्रम के चरणों में गिर गये | विक्रम ने उस दुकानदार से कहा “घर जाओ , तुम्हे तुम्हारा हार वापस वही मिल जाएगा ” | दुकानदार घर गया और हार उसी जगह पर टंगा हुआ मिला |विक्रम ने राजा को वापस अपने प्रदेश लौटने को कहा | राजा ने उसे उपहारस्वरुप कई घोड़े ,हाथी और दसिया देकर विदा किया | विक्रमादित्य की जनता अपने राजा के वापस लौटने पर बहुत प्रसन्न हुयी | विक्रम ने अब नवग्रह की पूजा की और शनि देव को सबसे उच्च स्थान दिया।

शिव त्रिपुरारी


भगवान शिव को उनके भक्त त्रिपुरारी के नाम से पूजते है इसके पीछे शिवपुराण की एक कथा है।

शिवपुराण के अनुसार एक बार एक महादैत्य हुआ जिसका नाम था तारकासुर। इन दैत्य के तीन पुत्र हुए जिनके नाम तारकाक्ष, कमलाक्ष व विद्युन्माली था। शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया । इस घटना से तीनो पुत्रो ने बदला लेने के लिए घोर तपस्या की और ब्रह्माजी को प्रसन्न कर दिया । उन्होंने अमरता का वरदान माँगा पर ब्रह्माजी ने इसमे असमर्था दिखाई और अन्य कोई वरदान मांगने के लिए कहा।

तब तीनो ने ब्रह्माजी से कहा की हम तीनो के लिए ऐसे तीन नगर बसाये जो आकाश में उड़ते हो और एक हजार साल बाद हम तीनो जब मिले तब एक ही बाण से हम एक साथ मर सके , बस इसके अलावा हमारी मृत्यु नही हो। ब्रह्माजी ने उन्हें यह वरदान दे दिया ।

वरदान पाकर उन तीनो भाइयो ने हर लोक में अलग अलग होकर अपना आतंक फैलाना शुरू कर दिया, मनुष्य देवता सभी उनसे भय खाने लगे। सभी त्राहिमाम त्राहिमाम करते करते भगवान शिव के पास गये और अपने भय और दुःख और उनके समक्ष प्रकट किया। उनकी करुणामई विनती पर शिवजी उन तीनो का वध करने के लिए तैयार हो गये ।

विश्वकर्मा ने भगवान शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया।

कैसा था यह दिव्य रथ 
इस दिव्य रथ में सभी देवी देवताओ की शक्ति समाहित थी। सूर्य चन्द्र इस रथ के पहिये बने, यम कुबेर इंद्र अरुण आदि देवता इस रथ के घोड़े बन गये। भगवान विष्णु वो दिव्य तीर बने और शेषनाग बना धनुष की प्रत्यंचा और हिमालय पर्वत बना धनुष, फिर भगवान शिव इस रथ में सवार होकर सही समय पर उन तीनो भाइयो के समक्ष खड़े हो गये । जैसे ही वो तीनो भाई एक सीध में खड़े हुए तभी शिवजी ने अपना धनुष से तीर चला दिया। ऐसा दिव्य तीर देखकर दैत्यों में हाहाकार मच गया। तीर तीनो भाइयो (त्रिपुरो ) को लगा और क्षण भर में ही उनके प्राण निकल गये। सभी देवी देवताओ ने शिवजी की जयजयकार त्रिपुरारी के नाम से लगाईं।

जय हो त्रिपुरो का अंत करने वाले शिव त्रिपुरारी जी की।
।। हर हर त्रिपुरारी महादेव ।।

रविवार, 1 दिसंबर 2019

श्री दुर्गा चालीसा


 ॥चौपाई॥

नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो अम्बे दुःख हरनी॥
निराकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥
शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥
रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥

तुम संसार शक्ति लय कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥
अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥
प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥

रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि-मुनिन उबारा॥
धरा रूप नरसिंह को अम्बा। प्रगट भईं फाड़कर खम्बा॥
रक्षा कर प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥

क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥
मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥

केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥
कर में खप्पर-खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजे॥
सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥
नगर कोटि में तुम्हीं विराजत। तिहुंलोक में डंका बाजत॥

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥
रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥
परी गाढ़ सन्तन पर जब-जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥

अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥
प्रेम भक्ति से जो यश गावै। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥

जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥
शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥
शक्ति रूप को मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥

शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥
मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥
आशा तृष्णा निपट सतावे। मोह मदादिक सब विनशावै॥

शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥
करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दे करहु निहाला॥
जब लगि जियउं दया फल पाऊं। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं॥
दुर्गा चालीसा जो नित गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥
देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

भगवान शंकर का तांडव नृत्य क्या है?


पुराणों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जब शिव प्रकट हुए तो उनके साथ 'सत', 'रज' और 'तम' ये तीनों गुण भी जन्मे थे। यही तीनों गुण शिव के 'तीन शूल' यानी 'त्रिशूल' कहलाए।

संगीत प्रकृति के हर कण में मौजूद है। भगवान शिव को 'संगीत का जनक' माना जाता है। शिवमहापुराण के अनुसार शिव के पहले संगीत के बारे में किसी को भी जानकारी नहीं थी। नृत्य, वाद्य यंत्रों को बजाना और गाना उस समय कोई नहीं जानता था, क्योंकि शिव ही इस ब्रह्मांड में सर्वप्रथम आए हैं।

भगवान भोलेनाथ दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं। पहला जब वो गुस्सा होते हैं, तब बिना डमरू के तांडव नृत्य करते हैं। लेकिन दूसरे तांडव नृत्य करते समय जब, वह डमरू भी बजाते हैं तो प्रकृति में आनंद की बारिश होती थी। ऐसे समय में शिव परम आनंद से पूर्ण रहते हैं। लेकिन जब वो शांत समाधि में होते हैं तो नाद करते हैं।

नाद और भगवान शिव का अटूट संबंध है। दरअसल नाद एक ऐसी ध्वनि है जिसे 'ऊं' कहा जाता है। पौराणिक मत है कि 'ऊं' से ही भगवान शिव का जन्म हुआ है। संगीत के सात स्वर तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनके केंद्रीय स्वर नाद में ही हैं। नाद से ही 'ध्वनि' और ध्वनि से ही 'वाणी की उत्पत्ति' हुई है। शिव का डमरू 'नाद-साधना' का प्रतीक माना गया है।

नटराज, भगवान शिव का ही रूप है, जब शिव तांडव करते हैं तो उनका यह रूप नटराज कहलता है। नटराज शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। 'नट' और 'राज', नट का अर्थ है 'कला' और राज का अर्थ है 'राजा'। भगवान शंकर का नटराज रूप इस बात का सूचक है कि 'अज्ञानता को सिर्फ ज्ञान, संगीत और नृत्य से ही दूर किया जा सकता है।'

नाट्य शास्त्र में उल्लेखित संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान आदि के प्रवर्तक शिव ही हैं। शिवमहापुराण भी 29 उप-पुराणों में से एक है। इसमें 24,000 श्लोक हैं। जिनमें शिव का संगीत के प्रति स्नेह के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है।

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

कौन सी समस्याओं से रक्षा करते हैं हनुमानजी!



ज्योतिष की मानें तो घटना-दुर्घटना को राहु-केतु और शनि अंजाम देते हैं। हनुमानजी आपको सभी तरह की घटना और दुर्घटना से बचा लेते हैं। इसके लिए आप सदा उनकी शरण में रहकर प्रतिदिन हनुमान चालीसा पढ़ते रहें। कभी कभी सुंदरकांड भी पढ़ें और बजरंग बाण भी।

हनुमान जी का शाबर मंत्र अत्यंत ही सिद्ध मंत्र है। इसके प्रयोग से हनुमानजी तुरंत ही आपके मन की बात सुन लेते हैं। यह मंत्र आपके जीवन के सभी संकटों और कष्टों को तुरंत ही चमत्कारिक रूप से समाप्त करने की क्षमता रखता है। हनुमानजी के कई शाबर मंत्र हैं तथा अलग-अलग कार्यों के लिए हैं।

मंगल दोष :
बहुत से लोग मंगलदोष के भय से ग्रसित हैं। ऐसा माना जाता है कि 28 वर्ष की उम्र के बाद यह दोष समाप्त होना शुरू हो जाता है। मंगलवार के दिन व्रत रखकर सिंदूर से हनुमानजी की पूजा करने एवं हनुमान चालीसा का पाठ करने से मंगली दोष शांत होता है। इसके अलावा लाल वस्त्र में मसूर दाल, रक्त चंदन, रक्त पुष्प, मिष्टान एवं द्रव्य लपेट कर नदी में प्रवाहित करने से मंगल का अमंगल दूर होता है।

कर्ज से मुक्ति :
यदि किसी कारणवश आप कर्ज में डूब गए हैं या कर्ज से परेशान हैं तो हनुमान भक्ति से कर्ज से छुटकारा पा सकते हैं। कर्ज से मुक्त होना आसान नहीं लेकिन कठिन भी नहीं। हनुमानजी की कृपा हुई तो तुरंत ही इससे मुक्त हो जाएंगे।

मंगलवार का दिन हनुमानजी का माना जाता है। यह दिन कर्ज से मुक्ति के लिए सबसे उत्तम है। यदि किसी से कर्ज लिया है तो उसे मंगलवार के दिन चुकाने के बारे में सोचे। मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ करके हनुमान मंदिर में नारियल रखना अच्छा माना जाता है।

* मंगलवार को इन चीजों के प्रयोग व दान का विशेष महत्व है- तांबा, मतान्तर से सोना, केसर, कस्तूरी, गेहूं, लाल चंदन, लाल गुलाब, सिन्दूर, शहद, लाल पुष्प, शेर, मृगछाला, मसूर की दाल, लाल कनेर, लाल मिर्च, लाल पत्थर, लाल मूंगा।

* आटे के बने दीपक को बढ़ के पत्ते पर रखकर जलाएं। ऐसे पांच पत्तों पर पांच दीपक रखें और उसे ले जाकर हनुमानजी के मंदिर में रख दें। ऐसा कम से कम 11 मंगलवार को करें।

* शुक्लपक्ष के किसी मंगलवार की रात को हनुमानजी के मंदिर में दो दीपक जलाएं और हनुमान चालीसा का 11 बार पाठ करें।

नौकरी और रोजगार :
आप बेरोजगार है या आपका व्यापार नहीं चल रहा है तो आप मंदिर में मंगलवार के दिन सुंदरकांड का पाठ करें। प्रतिदिन हनुमान चालीसा का पाठ करें और प्रति मंगालवार को हनुमानजी के मंदिर जाएं। हो सके तो पांच शनिवार को हनुमानजी को चोला चढ़ाएं। यदि यह संभाव नहीं हो तो पांच बार कभी भी किसी भी शनिवार को चोला चढ़ाएं।

चिंता :
बहुत से लोगों को अनावश्यक भय और चिंता सताती रहती है जिसके कारण वे तनाव में रहने लगते हैं। तनाव में रहने की आदत भी हो जाती है जिसके चलते व्यक्ति कई तरह के रोग से भी घिर सकता है।

ऐसे व्यक्ति को मन ही मन हनुमानजी के मंत्र 'ॐ हनुमते नम:' का जप करते रहना चाहिए। रात में सोते समय उसे 108 बार इस मंत्र का जप करके सो जाना चाहिए और सुबह उठकर नित्यकर्म से निपटने के बाद एक आसन पर बैठकर इस मंत्र का जप करना चाहिए। धीरे-धीरे भय, चिंता, तनाव और आशंका मिटने लगेंगे। 

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

भोलेनाथ को क्यों प्रिय है भस्म, जानेंगे तो श्रद्धा से भावुक हो जाएंगे!


आप अक्सर सोचते होंगे कि आखिर भगवान भोलेनाथ को विचित्र सामग्री ही प्रिय क्यों है। चाहे वह जहरीला धतूरा हो, गण भी उनके भूत, गले में लिपटे नागदेव. इसी तरह वे अपने तन पर भस्म रमाए रहते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि उनके शरीर पर लिपटी सौंधी भस्म का क्या कारण है.

भगवान शिव ने अपने तन पर जो भस्म रमाई है वह उनकी पत्नी सती की चिता की भस्म थी जो कि अपने पिता द्वारा भगवान शिव के अपमान से आहत हो वहां हो रहे यज्ञ के हवनकुंड में कूद गई थी। भगवान शिव को जब इसका पता चला तो वे बहुत बेचैन हो गए। जलते कुंड से सती के शरीर को निकालकर प्रलाप करते हुए ब्रह्माण्ड में घूमते रहे। उनके क्रोध व बेचैनी से सृष्टि खतरे में पड़ गई।

जहां-जहां सती के अंग गिरे वहां शक्तिपीठ की स्थापना हो गई। फिर भी शिव का संताप जारी रहा। तब श्री हरि ने सती के शरीर को भस्म में परिवर्तित कर दिया। शिव ने विरह की अग्नि में भस्म को ही सती की अंतिम निशानी के तौर पर तन पर लगा लिया।

पहले भगवान श्री हरि ने देवी सती के शरीर को छिन्न-भिन्न कर दिया था। जहां-जहां उनके अंग गिरे वहीं शक्तिपीठों की स्थापना हुई। लेकिन पुराणों में भस्म का विवरण भी मिलता है।

भगवान शिव के तन पर भस्म रमाने का एक रहस्य यह भी है कि राख विरक्ति का प्रतीक है। भगवान शिव चूंकि बहुत ही लौकिक देव लगते हैं। कथाओं के माध्यम से उनका रहन-सहन एक आम सन्यासी सा लगता है। एक ऐसे ऋषि सा जो गृहस्थी का पालन करते हुए मोह माया से विरक्त रहते हैं और संदेश देते हैं कि अंत काल सब कुछ राख हो जाना है।

एक रहस्य यह भी है चूंकि भगवान शिव को विनाशक भी माना जाता है। ब्रह्मा जहां सृष्टि की निर्माण करते हैं तो श्री विष्णु पालन-पोषण लेकिन जब सृष्टि में नकारात्मकता बढ़ जाती है तो भगवान शिव विध्वंस कर डालते हैं। विध्वंस यानि की समाप्ति और भस्म इसी अंत इसी विध्वंस की प्रतीक भी है। शिव हमेशा याद दिलाते रहते हैं कि पाप के रास्ते पर चलना छोड़ दें अन्यथा अंत में सब राख ही होगा।

शिव का शरीर पर भस्म लपेटने का दार्शनिक अर्थ यही है कि यह शरीर जिस पर हम घमंड करते हैं, जिसकी सुविधा और रक्षा के लिए ना जाने क्या-क्या करते हैं एक दिन इसी इस भस्म के समान हो जाएगा। शरीर क्षणभंगुर है और आत्मा अनंत।

कई सन्यासी तथा नागा साधु पूरे शरीर पर भस्म लगाते हैं। यह भस्म उनके शरीर की कीटाणुओं से तो रक्षा करता ही है तथा सब रोम कूपों को ढंककर ठंड और गर्मी से भी राहत दिलाती है।

रोम कूपों के ढंक जाने से शरीर की गर्मी बाहर नहीं निकल पाती इससे शीत का अहसास नहीं होता और गर्मी में शरीर की नमी बाहर नहीं होती। इससे गर्मी से रक्षा होती है। मच्छर, खटमल आदि जीव भी भस्म रमे शरीर से दूर रहते हैं।

💀 महाकाल की भस्मार्ती 💀

उज्जैन स्थित महाकालेश्वर की भस्मार्ती विश्व भर में प्रसिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि वर्षों पहले श्मशान भस्‍म से भूतभावन भगवान महाकाल की भस्‍म आरती होती थी लेकिन अब यह परंपरा खत्म हो चुकी है और अब कंडे की भस्‍म से आरती-श्रृंगार किया जा रहा है। वर्तमान में महाकाल की भस्‍म आरती में कपिला गाय के गोबर से बने औषधियुक्त उपलों में शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर की लकड़‌ियों को जलाकर बनाई भस्‍म का प्रयोग क‌िया जाता है।

जलते कंडे में जड़ीबूटी और कपूर-गुगल की मात्रा इतनी डाली जाती है कि यह भस्म ना सिर्फ सेहत की दृष्टि से उपयुक्त होती है बल्कि स्वाद में भी लाजवाब हो जाती है। श्रौत, स्मार्त और लौकिक ऐसे तीन प्रकार की भस्म कही जाती है। श्रुति की विधि से यज्ञ किया हो वह भस्म श्रौत है, स्मृति की विधि से यज्ञ किया हो वह स्मार्त भस्म है तथा कण्डे को जलाकर भस्म तैयार की हो वह लौकिक भस्म है।

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

श्री गणेश चालीसा



जय गणपति सद्गुण सदन कविवर बदन कृपाल।

विघ्न हरण मंगल करण जय जय गिरिजालाल॥

जय जय जय गणपति राजू। मंगल भरण करण शुभ काजू॥

जय गजबदन सदन सुखदाता। विश्व विनायक बुद्धि विधाता॥

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन। तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥

राजित मणि मुक्तन उर माला। स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥

पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं। मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥

सुन्दर पीताम्बर तन साजित। चरण पादुका मुनि मन राजित॥

धनि शिवसुवन षडानन भ्राता। गौरी ललन विश्व-विधाता॥

ऋद्धि सिद्धि तव चँवर डुलावे। मूषक वाहन सोहत द्वारे॥

कहौ जन्म शुभ कथा तुम्हारी। अति शुचि पावन मंगल कारी॥

एक समय गिरिराज कुमारी। पुत्र हेतु तप कीन्हा भारी॥

भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा। तब पहुंच्यो तुम धरि द्विज रूपा।

अतिथि जानि कै गौरी सुखारी। बहु विधि सेवा करी तुम्हारी॥

अति प्रसन्न ह्वै तुम वर दीन्हा। मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥

मिलहि पुत्र तुहि बुद्धि विशाला। बिना गर्भ धारण यहि काला॥

गणनायक गुण ज्ञान निधाना। पूजित प्रथम रूप भगवाना॥

अस कहि अन्तर्धान रूप ह्वै। पलना पर बालक स्वरूप ह्वै॥

बनि शिशु रुदन जबहि तुम ठाना। लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना॥

सकल मगन सुख मंगल गावहिं। नभ ते सुरन सुमन वर्षावहिं॥

शम्भु उमा बहुदान लुटावहिं। सुर मुनि जन सुत देखन आवहिं॥

लखि अति आनन्द मंगल साजा। देखन भी आए शनि राजा॥

निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं। बालक देखन चाहत नाहीं॥

गिरजा कछु मन भेद बढ़ायो। उत्सव मोर न शनि तुहि भायो॥

कहन लगे शनि मन सकुचाई। का करिहौ शिशु मोहि दिखाई॥

नहिं विश्वास उमा कर भयऊ। शनि सों बालक देखन कह्यऊ॥

पड़तहिं शनि दृग कोण प्रकाशा। बालक शिर उड़ि गयो आकाशा॥

गिरजा गिरीं विकल ह्वै धरणी। सो दुख दशा गयो नहिं वरणी॥

हाहाकार मच्यो कैलाशा। शनि कीन्ह्यों लखि सुत को नाशा॥

तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधाए। काटि चक्र सो गज शिर लाए॥

बालक के धड़ ऊपर धारयो। प्राण मन्त्र पढ़ शंकर डारयो॥

नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे। प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हे॥

बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा। पृथ्वी की प्रदक्षिणा लीन्हा॥

चले षडानन भरमि भुलाई। रची बैठ तुम बुद्धि उपाई॥

चरण मातु-पितु के धर लीन्हें। तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥

धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे। नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥

तुम्हरी महिमा बुद्धि बड़ाई। शेष सहस मुख सकै न गाई॥

मैं मति हीन मलीन दुखारी। करहुँ कौन बिधि विनय तुम्हारी॥

भजत रामसुन्दर प्रभुदासा। लख प्रयाग ककरा दुर्वासा॥

अब प्रभु दया दीन पर कीजै। अपनी शक्ति भक्ति कुछ दीजै॥

दोहा

श्री गणेश यह चालीसा पाठ करें धर ध्यान।

नित नव मंगल गृह बसै लहे जगत सन्मान॥

सम्वत् अपन सहस्र दश ऋषि पंचमी दिनेश।

पूरण चालीसा भयो मंगल मूर्ति गणेश॥

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

श्री अर्द्धनारीश्वर शिव का रहस्य


 इस मूर्ति में आधा शरीर पुरुष अर्थात 'रुद्र' (शिव) का है और आधा स्त्री अर्थात 'उमा' (सती, पार्वती) का है।
दोनों अर्द्ध शरीर एक ही देह में सम्मिलित हैं। उनके नाम 'गौरीशंकर', 'उमामहेश्वर' और 'पार्वती परमेश्वर' हैं।

दोनों के मध्य काम संयोजक भाव है। नर (पुरुष) और नारी (प्रकृति) के बीच का संबंध अन्योन्याश्रित है।
पुरुष के बिना प्रकृति अनाथ है,प्रकृति के बिना पुरुष क्रिया रहित है। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो स्त्री में पुरुष भाव और पुरुष में स्त्री भाव रहता है और वह आवश्यक भी है।

ब्रह्मा की प्रार्थना से स्त्रीपुरुषात्मक मिथुन सृष्टि का निर्माण करने के लिए दोनों विभक्त हुए। शिव जब शक्तियुक्त होता है,तो वह समर्थ होता है। शक्ति के अभाव में शिव 'शव' के समान है। अर्द्धनारीश्वर की कल्पना भारत की अति विकसित बुद्धि का परिणाम है। भारतीय कला का यह प्रतीक स्त्री - पुरुष के अद्वैत का सूचक है।

सृष्टि के प्रारंभ में जब ब्रह्माजी द्वारा रची गई मानसिक सृष्टि विस्तार न पा सकी, तब ब्रह्माजी को बहुत दुःख हुआ।
उसी समय आकाशवाणी हुई ब्रह्मन्! अब मैथुनी सृष्टि करो। आकाशवाणी सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि रचने का निश्चय तो कर लिया, किंतु उस समय तक नारियों की उत्पत्ति न होने के कारण वे अपने निश्चय में सफल नहीं हो सके। तब ब्रह्माजी ने सोचा कि परमेश्वर शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती। अतः वे उन्हें प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने लगे। बहुत दिनों तक ब्रह्माजी अपने हृदय में प्रेमपूर्वक महेश्वर शिव का ध्यान
करते रहे।उनके तीव्र तप से प्रसन्न होकर भगवान उमा-महेश्वर ने उन्हें अर्द्धनारीश्वर रूप में दर्शन दिया।

महेश्वर शिव ने कहा- पुत्र ब्रह्मा! तुमने प्रजाओं की वृद्धि के लिए जो कठिन तप किया है, उससे मैं परम प्रसन्न हूं।
मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। ऐसा कहकर शिवजी ने अपने शरीर के आधे भाग से उमा देवी को अलग
कर दिया। ब्रह्मा ने कहा एक उचित सृष्टि निर्मित करने में अब तक मैं असफल रहा हूं। मैं अब स्त्री-पुरुष के समागम से मैं प्रजाओं को उत्पन्न कर सृष्टि का विस्तार करना चाहता हूं। परमेश्वरी शिवा ने अपनी भौंहों के मध्य भाग से अपने ही समान कांतिमती एक शक्ति प्रकट की। सृष्टि निर्माण के लिए शिव की वह शक्ति ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार दक्षकी पुत्री हो गई।

इस प्रकार ब्रह्माजी को उपकृत कर तथा अनुपम शक्ति देकर देवी शिवा महादेव जी के शरीर में प्रविष्ट हो गईं,यही अर्द्धनारीश्वर शिव का रहस्य है और इसी से आगे सृष्टि का संचालन हो पाया, जिसके नियामक शिवशक्ति ही हैं।

शिव अर्द्ध नारीश्वर क्यों ?
हिंदू धर्म के आराध्य देव भगवान शंकर को अर्द्ध नर नारीश्वर के रूप में भी दिखाया गया है, जिसमें भगवान का आधा शरीर स्त्री का तथा आधा पुरुष का है। भगवान के इस अर्द्ध नारीश्वर के रूप के पीछे वैज्ञानिक कारण भी है। विज्ञान कहता है कि मनुष्य में 46 गुणसूत्र पाए जाते हैं। गर्भाधान के समय पुरुषों के आधे क्रोमोजोम्स (23) तथा स्त्रियों के आधे क्रोमोजोम्स (23) मिलकर संतान की उत्पत्ति करते हैं। इन 23-23 क्रोमोजोम्स के संयोग से संतान उत्पन्न होती है।जो बात विज्ञान आज कह रहा है। अध्यात्म ने उसे हजारों साल पहले ही ज्ञात करके कह दी थी कि पुरुष में आधा शरीर स्त्री का तथा स्त्री में आधा शरीर पुरुष का होता है।

इसी कारण हिंदू धर्म में भगवान शंकर को अर्द्ध नारीश्वर रूप में दिखाया गया है। सृष्टि रचना में भी पुरुष एवं स्त्री के सहयोग की बात कही गई है। दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं इसलिए हिंदुओं के अधिकांश देवताओं को स्त्रियों के साथ दिखाया जाता है। हिंदू धर्म में कोई भी शुभ कार्य स्त्री के बिना पूर्ण नहीं माना जाता क्योंकि वह
उसका आधा अंग है। अकेला पुरुष अकेला है। इसी कारण पत्नी को अर्द्धांगिनी भी कहा जाता है।

अर्द्धनारीश्वर स्तोत्र
१. चाम्बेये गौरार्थ शरीराकायै कर्पूर गौरार्थ
शरीरका तम्मिल्लकायै च जटाधराय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .
चपंगी फूल सा हरित पार्वतिदेविको अपने अर्द्ध शरीर को जिसने दिया है
कर्पूर रंग -सा जटाधारी शिव को मेरा नमस्कार.

२. कस्तूरिका कुंकुम चर्चितायै चितारजः पुंज
विचर्चिताय कृतस्मारायै विकृतस्मराय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .
कस्तूरी -कुंकुम धारण कर अति सुन्दर लगनेवाली पार्वती देवी को जिसने
अपने अर्द्ध देह दिया हैं,उस शिव को नमस्कार.
अपने सम्पूर्ण शरीर पर विभूति मलकर दर्शन देनेवाले शिव को नमस्कार.
मन्मथ के विकार नाशक शिव को नमकार.

३. जणत क्वणत कंगण नूपुरायै पादाप्ज
राजत पणी नूपुराय .हेमांगदायै च पुजंगदाय
नमः शिवायै च नमः शिवाय
कंकन -नूपुर आदि आभूषण पहने पार्वती देवी को पंकज पाद के परमेश्वर ने
अपने अर्द्ध शरीर दिया है.स्वर्णिम वर्ण के उस शिव को नमस्कार.

४. विशाल नीलोत्पल लोचनायै विकासी पंकेरुह
लोचनाय.समेक्षणायै विशामेक्षनाय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .
विशालाक्षी पार्वती देवी को अपने अर्ध शरीर दिए त्रिनेत्र परमेश्वर को नमस्कार .

५. मंदार माला कलितालकायै कपालमालंगित
सुन्दराय दियाम्बरायै च दिगम्बराय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .
मंदार पुष्प माला पहनी अति रूपवती दिव्य वस्त्र धारिणी पार्वती देवी को
कपाल मालाधारी शिव ने अपने अर्द्ध शरीर दिया है.
उस परमेश्वर को नमस्कार.

६.अम्बोधर -श्यामल कुंतालायै तडित्प्रभा
ताम्ब्र जटाधराय निरीश्वराय निखिलेश्वराय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .
श्याम बालों से ज्वलित पार्वतिदेवी को लाल जटाधारी परमेश्वर ने अपने
अर्द्ध शरीर दिया है.उस परमेश्वर को नमस्कार है.

७. प्रपंच सृष्टयुन्मुख लास्य्कायै समस्त संहारक
तांडवाय.जगज्जनन्यै जग देहपितरे
नमः शिवायै च नमः शिवाय .
प्रपंच स्रुष्टिकर्त्री शोभित सुन्दर नाट्य कलाकारिण जगत जननी पार्वती देवी
को अखिल लोक के साहार के अघोर तांडव नृत्य के परमेश्वर ने अपने अर्द्ध
तन दिया है.उस परमेश्वर को मेरा नमस्कार.

८.प्रदीप्त रत्नोज्ज्वल कंठलायै स्फुरन महापन्नग
भूषणाय शिवान वितायै च शिवान विधाय
नमः शिवायै च नमः शिवाय .
प्रकाशपूर्ण रत्न कुंडल पहनी पार्वती देवी के साथ नागाभरण भूषित शिव मिश्रित हैं.
उस परमेश्वर को मेरा नमस्कार.

९. एतत्पट तष्ठ्क मिष्ट्तम यो भक्त्या स मान्यो पुवी दीर्घजीवी .
प्राप्नोति सौभाग्य मनंतकालम भूयात सदा तस्य समस्त सिद्धिः
यह अष्ठक सभी इच्छा पूर्ती करने वाला है. इस को जो भक्ति सहित पढेंगे
उनको सकल सौभाग्य प्राप्त होंगे और सभी सिद्धियाँ भी प्राप्त होंगी

नमः सर्वहितार्थाय जगदाधारहेतवे।
साष्टाङ्गोऽयं प्रणामस्ते प्रयत्नेन मया कृतः।।
पापोऽहं पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः।
त्राहि मां पार्वतीनाथ सर्वपापहरो भव।।

ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीनर्मदेश्वरसाम्बसदाशिवाय नमः
प्रार्थनापूर्वक नमस्कारान् समर्पयामि
ॐ पार्वतीपतये नमः
ॐ नमः शिवाय
कष्ट हरो,काल हरो,दुःख हरो,दारिद्रय हरो,
हर,हर,महादेव

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

शिव के नाम अर्थ नाममंत्र


1. शिव कल्याण स्वरुप ॐ शिवाय नमः
2. महेश्वर माया के अधीश्वर ॐ महेश्वराय नमः
3. शम्भु आंनद स्वरुप वाले ॐ शम्भवे नमः
4. पिनाकी पिनाक धानुष धारण ॐ पिनाकिने नमः
5. शशिशेखर सिर पर चंद्र्मा धारण करने वाले ॐ शशिशेखराय नमः
6. वामदेव अत्यन्त सुन्दर स्वरुप धारण करने वाले ॐ वामदेवाय नमः
7. विरूपाक्ष भौंडे आँख वाले ॐ विरूपाक्षाय नमः
8. कपर्दी जटाजूट धारण करने वाले ॐ कपर्दिने नमः
9. नीललोहित नीले और लाल रंग वाले ॐ नीललोहिताय नमः
10. शर सबका कल्याण करने वाले ॐ शंकराय नमः
11. शूलपाणि हाथ में त्रिशुल धारण करने वाले ॐ शूलपाणये नमः
12. खट्वी खटिया का एक पाया रखने वाला ॐ खट्वांगिने नमः
13. विष्णुवल्लभ भगवान विष्णु के अतिप्रेमी ॐ विष्णुवल्लभाय नमः
14. शिपिविष्ट सितुहा में प्रवेश करने वाले ॐ शिपिविष्टाय नमः
15. अम्बिकानाथ भगवती के पति ॐ अम्बिकानाथा नमः
16. श्रीकण्ठ सुन्दर कण्ठ वाले ॐ श्रीकण्ठाय नमः
17. भक्तवत्सल भक्तों को अत्यन्त स्नेह करने वाले ॐ भक्तवत्सलाय नमः
18. भव संसार के रूप में प्रकट होने वाले ॐ भवाय नमः
19. शर्व कष्टों को नष्ट करने वाले ॐ शर्वाय नमः
20. त्रिलोकेश तीनों लोकों के स्वामी ॐ त्रिलोकेशाय नम
21. शितिकण्ठ सफेद कण्ठ वाले ॐ शितिकण्ठाय नमः
22. शिवाप्रिय पार्वती के प्रिय ॐ शिवाप्रियाय नमः
23. उग्र: अत्यन्त उग्र रूप वाले ॐ उग्राय नमः
24. कपाली कपाल धारण करने वाले ॐ कपालिने नमः
25. कामारी कामदेव के शत्रु ॐ कामारये नमः
26. अन्धकासुरसूदन: अंधक दैत्य को मारने वाले ॐ अन्धकासुरसूदनाय नमः
27. गङ्गाधर गंगा जी को धारण करने वाले ॐ गंगाधराय नमः
28. ललाटाक्ष लिलार में आँख वाले ॐ ललाटाक्षाय नमः
29. कालकाल काल के भी काल ॐ कालकालाय नमः
30. कृपानिधि करुणा के खान ॐ कृपानिधये नमः
31. भीम भयंकर रूप वाले ॐ भीमाय नमः,
32. परशुहस्त हाथ में फरसा धारण करने वाले ॐ परशुहस्ताय नमः
33. मृगपाणी हाथ में हिरण धारण करने वाले ॐ मृगपाण्ये नमः
34. जटाधर: जटा रखने वाले ॐ जटाधराय नमः
35. कैलाशवासी कैलास के निवासी ॐ कैलाशवासिने नमः
36. कवची कवच धारण करने वाले ॐ कवचिने नमः
37. कठोर अत्यन्त मजबूत देह वाले ॐ कठोराय नमः
38. त्रिपुरान्तक त्रिपुरासुर को मारने वाले ॐ त्रिपुरान्तकाय नमः
39. वृषांक बैल के चिन्ह वाली झ्ण्डा वाले ॐ वृषांकाय नमः
40. वृषभारूढ बैल की सवारी वाले ॐ वृषभारूढाय नमः
41. भस्मोद्धूलितविग्रह सारे शरीर में भस्म लगाने वाले ॐ भस्मोद्धूलितविग्रहाय नमः
42. सामप्रिय सामगान से प्रेम करने वाले ॐ सामप्रियाय नमः
43. स्वरमय सातो स्वरों में निवास करने वाले ॐ स्वरमयाय नमः
44. त्रयीमूर्ति वेदरूपी विग्रह वाले ॐ त्रयीमूर्तये नमः
45. अनीश्वर जिसका और कोई मालिक नहीं है ॐ अनीश्वराय नमः
46. सर्वज्ञ सब कुछ जानने वाले ॐ सर्वज्ञाय नमः
47. परमात्मा सबका अपना आपा ॐ परमात्मने नमः
48. सोमसूर्याग्निलोचन चन्द्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले ॐ सोमसूर्याग्निलोचनाय नमः
49. हवि आहुति रूपी द्रव्य वाले ॐ हवये नमः
50. यज्ञमय यज्ञस्वरूप वाले ॐ यज्ञमयाय नमः

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

शिवलिंग के 10 रहस्य


1.ब्रह्मांड का प्रतीक : संपूर्ण ब्रह्मांड उसी तरह है जिस तरह कि शिवलिंग का रूप है जिसमें जलाधारी और ऊपर से गिरता पानी है। शिवलिंग का आकार-प्रकार ब्रह्मांड में घूम रही हमारी आकाशगंगा और उन पिंडों की तरह है, जहां जीवन होने की संभावना है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनंत ब्रह्माण्ड (ब्रह्माण्ड गतिमान है) का अक्स/धुरी ही शिवलिंग है।
वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे सृष्टि प्रकट होती है उसे शिवलिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही शिवलिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। यही सबका आधार है। बिंदु एवं नाद अर्थात ऊर्जा और ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है।

2.शिव का आदि और अनादी रूप : ईश्वर निराकार है। शिवलिंग उसी का प्रतीक है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भगवान शंकर या महादेव भी शिवलिंग का ही ध्यान करते हैं। शून्य, आकाश, अनंत, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे 'शिवलिंग' कहा गया है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि आकाश स्वयंलिंग है। धरती उसकी पीठ या आधार है और सब अनंत शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे शिवलिंग कहा गया है। शिव पुराण में शिव को संसार की उत्पत्ति का कारण और परब्रह्म कहा गया है। इस पुराण के अनुसार भगवान शिव ही पूर्ण पुरुष और निराकार ब्रह्म हैं।

3.निराकार ज्योति का प्रतीक : पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है, जैसे प्रकाश स्तंभलिंग, अग्नि स्तंभलिंग, ऊर्जा स्तंभलिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभलिंग आदि। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में पुराणों में अनेक मान्यताएं प्रचलित हैं। वेदानुसार ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के 12 खंड हैं। शिव पुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।

4.कब से प्रारंभ हुई शिवलिंग की पूजा : भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर हुए विवाद को सुलझाने के लिए एक दिव्य लिंग (ज्योति) को प्रकट किया था। इस ज्योतिर्लिंग का आदि और अंत ढूंढते हुए ब्रह्मा और विष्णु को शिव के परब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हुआ। इसी समय से शिव को परब्रह्म मानते हुए उनके प्रतीक रूप में ज्योतिर्लिंग की पूजा आरंभ हुई। हिन्दू धर्म में मूर्ति की पूजा नहीं होती, लेकिन शिवलिंग और शालिग्राम को भगवान शंकर और विष्णु का विग्रह रूप मानकर इसी की पूजा की जानी चाहिए।

5.आसमानी पत्थर : ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार विक्रम संवत् के कुछ सहस्राब्‍दी पूर्व संपूर्ण धरती पर उल्कापात का अधिक प्रकोप हुआ। आदिमानव को यह रुद्र (शिव) का आविर्भाव दिखा। जहां-जहां ये पिंड गिरे, वहां-वहां इन पवित्र पिंडों की सुरक्षा के लिए मंदिर बना दिए गए। इस तरह धरती पर हजारों शिव मंदिरों का निर्माण हो गया। उनमें से प्रमुख थे 108 ज्योतिर्लिंग, लेकिन अब केवल 12 ही बचे हैं। शिव पुराण के अनुसार उस समय आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेक उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे।

6.प्राचीन सभ्यता में शिवलिंग : पुरातात्विक निष्कर्षों के अनुसार प्राचीन शहर मेसोपोटेमिया और बेबीलोन में भी शिवलिंग की पूजा किए जाने के सबूत मिले हैं। इसके अलावा मोहन-जो-दड़ो और हड़प्पा की विकसित संस्कृति में भी शिवलिंग की पूजा किए जाने के पुरातात्विक अवशेष मिले हैं। सभ्यता के आरंभ में लोगों का जीवन पशुओं और प्रकृति पर निर्भर था इसलिए वह पशुओं के संरक्षक देवता के रूप में भी पशुपति की पूजा करते थे। सैंधव सभ्यता से प्राप्त एक सील पर 3 मुंह वाले एक पुरुष को दिखाया गया है जिसके आस-पास कई पशु हैं। इसे भगवान शिव का पशुपति रूप माना जाता है।

7.औषधि और सोने का रहस्य : शिवलिंग में एक पत्थर की आकृति होती है। जलाधारी पीतल की होती है और नाग या सर्प तांबे का होता है। शिवलिंग पर बेलपत्र और धतूरे या आंकड़े के फूल चढ़ते हैं। शिवलिंग पर जल गिरता रहता है। कहते हैं कि ऋषि-मुनियों ने प्रतीक रूप से या प्राचीन विद्या को बचाने के लिए शिवलिंग की रचना इस तरह की है कि कोई उसके गूढ़ रहस्य को समझकर उसका लाभ उठा सकता है, जैसे शिवलिंग अर्थात पारा, जलाधारी अर्थात पीतल की धातु, नाग अर्थात तांबे की धातु आदि को बेलपत्र, धतूरे और आंकड़े के साथ मिलाकर कुछ भी औ‍षधि, चांदी या सोना बनाया जा सकता है।

8.शिवलिंग का विन्यास : शिवलिंग के 3 हिस्से होते हैं। पहला हिस्सा जो नीचे चारों ओर भूमिगत रहता है। मध्य भाग में आठों ओर एक समान पीतल बैठक बनी होती है। अंत में इसका शीर्ष भाग, जो कि अंडाकार होता है जिसकी कि पूजा की जाती है। इस शिवलिंग की ऊंचाई संपूर्ण मंडल या परिधि की एक तिहाई होती है।
ये 3 भाग ब्रह्मा (नीचे), विष्णु (मध्य) और शिव (शीर्ष) के प्रतीक हैं। शीर्ष पर जल डाला जाता है, जो नीचे बैठक से बहते हुए बनाए गए एक मार्ग से निकल जाता है। प्राचीन ऋषि और मुनियों द्वारा ब्रह्मांड के वैज्ञानिक रहस्य को समझकर इस सत्य को प्रकट करने के लिए विविध रूपों में इसका स्पष्टीकरण दिया गया है।

9.शिवलिंग के प्रकार : प्रमुख रूप से शिवलिंग 2 प्रकार के होते हैं- पहला आकाशीय या उल्का शिवलिंग और दूसरा पारद शिवलिंग। पहला उल्कापिंड की तरह काला अंडाकार लिए हुए। ऐसे शिवलिंग को ही भारत में ज्योतिर्लिंग कहते हैं। दूसरा मानव द्वारा निर्मित पारे से बना शिवलिंग होता है। पारद विज्ञान प्राचीन वैदिक विज्ञान है। इसके अलावा पुराणों के अनुसार शिवलिंग के प्रमुख 6 प्रकार होते हैं- देवलिंग, असुरलिंग, अर्शलिंग, पुराणलिंग, मनुष्यलिंग और स्वयंभू लिंग।

10.देश के प्रमुख शिवलिंग : सोमनाथ (गुजरात), मल्लिकार्जुन (आंध्रप्रदेश), महाकाल (मध्यप्रदेश), ममलेश्वर (मध्यप्रदेश), बैद्यनाथ (झारखंड), भीमाशंकर (महाराष्ट्र), केदारनाथ (उत्तराखंड), विश्वनाथ (उत्तरप्रदेश), त्र्यम्बकेश्वर (महाराष्ट्र), नागेश्वर (गुजरात), रामेश्वरम् (तमिलनाडु), घृश्णेश्वर (महाराष्ट्र), अमरनाथ (जम्मू-कश्मीर), पशुपतिनाथ (नेपाल), कालेश्वर (तेलंगाना), श्रीकालाहस्ती (आंध्रप्रदेश), एकम्बरेश्वर (तमिलनाडु), अरुणाचल (तमिलनाडु), तिलई नटराज मंदिर (तमिलनाडु), लिंगराज (ओडिशा), मुरुदेश्वर शिव मंदिर (कर्नाटक), शोर मंदिर, महाबलीपुरम् (तमिलनाडु), कैलाश मंदिर एलोरा (महाराष्ट्र), कुम्भेश्वर मंदिर (तमिलनाडु), बादामी मंदिर (कर्नाटक) मंदसौर, मध्य प्रदेश के पशुपतिनाथ मन्दिर में आठ-मुखी मुखलिंगम्

गुरुवार, 4 जुलाई 2019

नारद जी का गुरु धारण करना




निगुरा हमको न मिले पापी मिलें हज़ार।।
इक निगुरे के सीस पर लख पापियों का भार।।

देवर्षि नारद जी के विषय में ऐसा प्रसिद्ध है कि अपने तप के प्रभाव से उन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त थी कि वे इस शरीर से ही वैकुण्ठ चले जाते थे। ऐसी शक्ति प्राप्त करके उनके ह्मदय में अहंकार प्रवेश कर गया था। एक बार देवर्षि नारद जी जब वैकुण्ठ गए तो भगवान विष्णु ने हमेशा की तरह उनका हार्दिक अभिनन्दन किया और उन्हें बैठने के लिये आसन दिया। भगवान विष्णु से कुछ देर वार्तालाप करने के उपरान्त जब नारद जी विदा हुए तो भगवान ने अपने अऩुचरों को बुलाया और जहाँ नारद जी बैठे थे, उस स्थान की ओर संकेत करते हुए कहा-नारद जी के बैठने से यह स्थान अपिवत्र हो गया है, अतएव इस स्थान को अच्छी तरह धोकर पवित्र कर दो।

अनुचर आज्ञा पालन में लग गए। इधर नारद जी को कोई बात याद आ गई। वे अभी दूर नहीं गए थे, अतः पुनः वापिस लौट आए, परन्तु अनुचरों को वह स्थान जहाँ वे बैठे थे, साफ करते देखकर विस्मय से खड़े रह गए। कुछ क्षण वे मौन खड़े रहे, फिर भगवान के चरणों में निवेदन किया-प्रभो! एक तरफ तो मेरा इतना सम्मान और दूसरी तरफ मेरा इतना अनादर कि जिस जगह पर मैं बैठा था उसे साफ कराया जा रहा है।

भगवान ने कहा-नारद जी! यह ठीक है कि आप ज्ञानी, ध्यानी और वेदों-शास्त्रों के महान ज्ञाता हैं। यह भी ठीक है कि आप महान तपस्वी हैं और तपोबल से जब चाहें वैकुण्ठ आदि देवलोकों में आ-जा सकते हैं। आपको इसके लिए कोई रोक-टोक नहीं है। परन्तु आपने चूंकि अभी गुरू की शरण ग्रहण नहीं की, इसलिए हम आपको पवित्र नहीं मानते। यही कारण है कि जब आप यहाँ आकर बैठते हैं तो आपके जाने के बाद हम वह स्थान अपवित्र समझकर स्वच्छ एवं पवित्र करवाते हैं।

नारदजी ने कहा-भगवन्! यह सत्य है कि मैने किसी को गुरु धारण नहीं किया, परन्तु तप साधना तो की है और उस तप-साधना द्वारा मैं आपको प्राप्त करने मे भी सफल हुआ हूँ। आपको प्राप्त करके क्या मैं पवित्र नहीं हो गया?

भगवान ने कहा-नारद जी! यह ठीक है, कि तप साधना द्वारा वैकुण्ठ आने के आप अधिकारी हो गए हैं, परन्तु आपका यह कहना सरासर गलत है कि आप मुझे प्राप्त कर चुके हैं। आपकी साधना मनमति की साधना है, इसीलिए आपके अन्दर अहंता एवं अहंकार ने आसन जमा रखा है। इस अहंता-अहंकार के परदे ने अभी भी आपको मुझसे अलग कर रखा है। अहंता अहंकार के इस परदे को दूर करने के लिए ही गुरु की शरण में जाना आवश्यक होता है। नारद जी ने कहा-यदि गुरु की शरण में जाना इतना ही आवश्यक है तो फिर मैं आपको ही गुरु धारण कर लेता हूँ।

भगवान ने कहा-मैं किसी प्रकार भी आपका गुरु नहीं हो सकता, क्योंकि मैं सूक्ष्म एवं निराकार हूँ, और आप स्थूल एवं साकार हैं। मनुष्य का गुरु जब भी होगा साकार ही होगा। साकार रूप गुरु से ही मनुष्य को परमार्थ का लाभ प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वह सेवक को अपने सान्निध्य में रखकर उसे भक्ति के भेद से परिचित करा सकता है। सूक्ष्म एवं निराकार भला मनुष्य को यह भेद कैसे समझा सकता है? इसीलिए सभी ऋषियों मुनियों ने साकार रुप गुरु की शरण ग्रहण करने और गुरु की भक्ति करने पर बल दिया है। इसके बिना न कोई मुझे प्राप्त कर सकता है और न ही किसी का परमार्थ सिद्ध हो सकता है।

नारद जी ने निवेदन किया कि मैं किसको अपना गुरु बनाऊँ। भगवान ने कहा-आप कल प्रातःकाल गंगा जी के किनारे चले जाएं और जो मनुष्य सबसे पहले मिले, उसे ही अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा ले लें। इसीमें आपकी भलाई है। भगवान की आज्ञा लेकर नारद जी विदा हुए और मत्र्यलोक में आए। उनके मस्तिष्क में सारी रात भगवान विष्णु की बातें ही गूँजती रहीं। प्रातः होते ही वे गंगा जी की ओर चल पड़े। गंगा जी के निकट पहुँच कर क्या देखते हैं कि एक धीवर (मछुआरा) कन्धे पर जाल रखे सामने से आ रहा है। उसे देखते ही नारद जी ने अपने माथे पर हाथ मारा और मुँह में बड़बड़ाते हुए कहा-यह कैसा अपशकुन हुआ!

भगवान ने तो कहा था कि सबसे पहले जो मनुष्य मिले, उसे ही गुरु धारण कर लेना, परन्तु सबसे पहले तो यह धीवर ही मिला, तो क्या इसे ही गुरु बनाना पड़ेगा? यह अपढ़, गंवार धीवर मुझ जैसे ज्ञानी, ध्यानी का गुरु कैसे हो सकता है? यह भला मुझे क्या ज्ञान देगा? यह सोचकर वे उलटे पाँव लौट चले। जैसे ही वे वापिस मुड़े कि पीछे से आवाज़ आई -यह नारद भी कैसा नासमझ और अज्ञानी है, क्योंकि इसे भगवान की बात पर भी विश्वास नहीं। भगवान के समझाने पर आया था गुरु धारण करने, परन्तु इसमें तो अहंता-अहंकार कूट-कूटकर भरा हुआ है।

कानों में ये शब्द पड़ते ही नारद जी ठिठक गए। कुछ पल इन शब्दों पर विचार करते रहे फिर लौटकर निवेदन किया-गुरुदेव। मुझे क्षमा करें और अपनी शरण में लीजिए। धीवर ने उसे गुरु-दीक्षा देकर विदा किया। नारद जी सीधे वैकुण्ठ पहुँचे। उन्हें देखकर भगवान विष्णु बोले। नारद जी! गुरु मिले? नारद जी ने उत्तर दिया-प्रभो! मिले तो सही पर--। भगवान ने उनकी बातबीच में ही काटते हुए कहा-""पर'' शब्द कहने का अर्थ है कि आपने मेरे कहने से गुरु धारण किया, परन्तु आपकी अपने गुरु में श्रद्धा एवं निष्ठा नहीं है। श्रद्धा रहित मनुष्य के लिए परमार्थ की दृष्टि से आपका सब किया-कराया व्यर्थ हो गया। अब तो आपको चौरासी अवश्य भुगतनी पड़ेगी। नारद जी से थोड़ी सी भूल हो गई जो गुरुदेव जी के सन्दर्भ में उन्होने "पर' शब्द लगा दिया-इस पर भगवान बोले कि ऐ नारद! तुमने गुरु के प्रसंग में "पर' शब्द का प्रयोग गिया है। इसलिये तुम्हें चौरासी भुगतनी होगी। नारद् जी ने प्रार्थना की भगवन! इस दुःख से छूटने का उपाय क्या होगा? श्री भगवान ने कथन किया कि ""चौरासी देना तो मेरा काम है और उससे छुटकारा दिलाना केवल सद्गुरु का काम है।''

कहु नानक प्रभ इहै जनाई। बिन गुरू मुकति न पाइये भाई।।

इसलिये तुम श्रद्धा और नम्रतापूर्वक सद्गुरुदेव जी की शरण में जाओ और वे जैसे कहें उनके वचन का अक्षरशः पालन करो। तब चौरासी की यातना से निस्तार हो सकता है अन्य कोई उपाय नहीं है। नारद जी बुद्धिमान थे। मन की तुला पर लगे तोलने-एक तरफ रखा चौरासी भोगने का दुःख और दूसरी तरफ रखा सद्गुरुदेव जी की आज्ञा में रहने के नियम को। और समझ लिया कि यह तो अपार लाभ का व्यापार है। मैं श्री गुरुदेव जी की आज्ञा के परिपालन से काल की जन्म जन्मान्तरों तक की पाबन्दी के दुःखों से छूट जाऊँगा। यह विचार कर अत्यन्त श्रद्धा भाव से श्री गुरुदेव जी के समीप गये। उनके चरण कमलों में पहुँच कर उन्हें साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और श्री गुरुदेव जी का हुक्मनामा पाकर उठे और विनय की कि मैं भूलनहार हूँ, आप क्षमाशील हैं, मेरी भूलचूक के लिये क्षमा करें। मुझसे जो अपराध हुआ है उसके बदले भगवान ने मुझे चौरासी भोगने का दण्ड दिया है। आप ही उससे छुड़ाने में समर्थ हो। आप ही युक्ति से मुक्ति दे सकते हो।

विशेषः- जब नारद जी श्री गुरुदेव जी के निकट जा रहे थे तो उनके गुरुमहाराज जो धीवर थे उन्हें मार्ग में मिल गये और नारद जी ने उसी जगह ही जहां धूलि बिछी थी दण्डवत् प्रणाम कर दिया। दैववश वहां एक फैशनेबल सज्जन खड़े थे उन्होने नारद जी से कहा कि भूमि पर धूलि में लेट जाना कौन सी सयानप है? नारद जी ने उससे कहा कि तुम ही बताओ कि सतगुरुदेव भगवन जी के पवित्र चरण कमलों में दण्डवत् करने से काल के आगे बार बार जन्मों तक नाक रगड़ने से जीवन बच जाता है। थोड़ी सी नम्रता दिखलाने से महान कष्ट कट जाये तो कौन सी बुरी बात है? तब वह पुरूष क्षमा मांगने लगा और कहने लगा कि भक्तों और सन्तों से अधिक बुद्धिमान तीनों लोकों के अन्दर और कोई नहीं क्योंकि वे ही लाभ-हानि को पूरी तरह पहचानते हैं।

श्री गुरुदेव जी ने नारद जी की श्रद्धा व नम्रता को देखकर बड़ी प्रसन्नता पूर्वक कहा कि नारद! गुरुदेव ने हँसते हुए कहा-तुम फिर विष्णुलोक जाओ और भगवान से कहो कि जो चौरासी मैने भोगनी है, उसका नक्शा बना कर दिखला दो जब वे नक्शा तैयार कर दें तो तुम उस पर लोट-पोट हो जाना। जब भगवान ऐसा करने का कारण पूछें तो उत्तर देना चौरासी भोग रहा हूँ, क्योंकि वह चौरासी भी आपकी बनाई हुई है और यह भी आपने ही बनाई है। भगवान की कृपा से तुम्हारी चौरासी एक पल में ही कट जायेगी। यह हमारा आशीर्वाद है। श्री गुरुदेव का आशीर्वाद पाकर नारद जी श्री भगवान जी के पास पहुँचे और आज्ञानुसार श्री भगवान से चौरासी का नक्शा बना कर दिखाने की विनय की जब वह मानचित्र पूर्ण हुआ तो नारद जी उसमें लेटनी लगाने लगे। श्री भगवान जी ने पूछा-नारद! तुम यह क्या कर रहे हो? धूलि में क्यों लेट रहे हो? नारद जी ने उत्तर दिया कि मैं गुरूदेव जी की आज्ञा मानकर थोड़ी देर मिट्टी में लेटने से यदि चौरासी कट जाये तो यह बड़े लाभ का सौदा है। श्री गुरुदेव जी ने आशीर्वाद देकर कहा है कि ऐसा करने से श्री भगवान तुम्हारी चौरासी क्षमा कर देंगे-अतएव मैं चौरासी भुगत रहा हूँ। श्री भगवान ने कथन किया कि श्री सद्गुरुदेव जी के वरदान को तो हम भी नहीं मिटा सकते। ये अधिकार तो उनको हैं जो शरण में आए हुए किसी के भी जन्म जन्मान्तर के दुःख एक पल में काट देते हैं।

गुरु की टेक रहहु दिन रात। जाकी कोई न मेटे दात।

इसलिये हे नारद जी तुम बड़े भाग्यवान हो जो गुरु भक्ति की सरल राह को अपना कर अऩेक जीवों के लिये मार्ग बना रहे हो इस पथ पर जो चलेगा उसको इस लोक में भी सुख मिलेगा। और उसका परलोक भी सँवर जायेगा।
इह लोक सुखी परलोक सुहेले। नानक हर प्रभ आपहि मेले।

तब भगवान बोले-नारद जी! आपने देखा कि गुरु ने कितनी सुगमता से आपकी चौरासी भोगने से बचा लिया। अब की बार नारद जी गुरुदेव के चरणों में उपस्थित हुए तो उनके दिल की अवस्था बदल चुकी थी। अब उनके दिल में गुरुदेव के प्रति पूर्ण श्रद्धा थी। उन्होने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक गुरुदेव के चरणों में दण्डवत्-प्रणाम किया। गुरुदेव ने उसके ह्मदय की अवस्था को जानकर कहा-अब तुम वास्तव में ही गुरुमुख बन गए हो और तुम्हारे दिल में गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा उत्पन्न हो गई है। अब बैठ जाओ और आँखें बन्द करके अपने अन्दर गुरु का ध्यान करो।

नारद जी ने आँखें बन्द करके गुरु का ध्यान किया तो अहंता-अहंकार के सब आवरण छिन्न-भिन्न हो गए और घट में निर्मल प्रकाश फैल गया। उस प्रकाश में नारद जी को गुरुदेव के ज्योतिर्मय स्वरुप के दर्शन हुए। गुरुदेव के इस अलौकिक स्वरूप के दर्शन कर वे आत्म विभोर हो गये। तभी अपने अन्दर उन्हें गुरुदेव कीआवाज़ सुनाई दी-नारद! तुम गुरु को अपढ़ समझ रहे थे, परन्तु स्मरण रखो कि गुरु परमपुरुष अथवा परमतत्त्व है। यही गुरु का वास्तविक स्वरुप है, इसलिये गुरु के अस्तित्व में तनिक भी सन्देह करना अथवा अश्रद्धा रखना कदापि उचित नहीं। अब तुमने गुरु के वास्तविक स्वरुप को जान लिया, इसलिये अब तुम निगुरे नहीं रहे, अपितु गुरुमुख बन गए हो। अब तुम जहाँ बैठोगे, वह स्थान पवित्र समझा जाएगा। नारद जी ने आँखें खोलीं। गुरुदेव को सम्मुख देखकर उन्होंने दण्डवत-वन्दना की, तत्पश्चात हाथ जोड़कर निवेदन किया गुरुदेव! मुझपर अपनी कृपा दृष्टि सदा बनाये रखें। तब गुरुदेव ने नारद जी को भक्ति के गहन रहस्य विस्तार से समझाये। भक्ति का वास्तविक भेद प्राप्त करके उनका जीवन धन्य हो गया। तत्पश्चात उन्होंने ""भक्ति सूत्र'' की रचना की जिसमें भक्ति-तत्त्व पर बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रकाश डाला गया है। अभिप्राय यह कि भक्ति-मार्ग पर चलने वाले जिज्ञासु पुरुष के लिए सद्गुरु की शरण ग्रहण करना परमावश्यक है।

श्रद्धा एवं निष्ठा के साथ सद्गुरु के वचनों पर आचरण करके ही मनुष्य इस मार्ग पर सफलता प्राप्त कर सकता और अपना जीवन धन्य बना सकता है।

गुरुवार, 20 जून 2019

अर्धनारीनटेश्वर स्तोत्र



चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

आधे शरीर में चम्पापुष्पों-सी गोरी पार्वतीजी हैं और आधे शरीर में कर्पूर के समान गोरे भगवान शंकरजी सुशोभित हो रहे हैं। भगवान शंकर जटा धारण किये हैं और पार्वतीजी के सुन्दर केशपाश सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।


कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारज:पुंजविचर्चिताय।
कृतस्मरायै विकृतस्मराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी के शरीर में कस्तूरी और कुंकुम का लेप लगा है और भगवान शंकर के शरीर में चिता-भस्म का पुंज लगा है। पार्वतीजी कामदेव को जिलाने वाली हैं और भगवान शंकर उसे नष्ट करने वाले हैं, ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।


चलत्क्वणत्कंकणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणीनूपुराय।
हेमांगदायै भुजगांगदाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

भगवती पार्वती के हाथों में कंकण और पैरों में नूपुरों की ध्वनि हो रही है तथा भगवान शंकर के हाथों और पैरों में सर्पों के फुफकार की ध्वनि हो रही है। पार्वतीजी की भुजाओं में बाजूबन्द सुशोभित हो रहे हैं और भगवान शंकर की भुजाओं में सर्प सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।


विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय।
समेक्षणायै विषमेक्षणाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी के नेत्र प्रफुल्लित नीले कमल के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर के नेत्र विकसित कमल के समान हैं। पार्वतीजी के दो सुन्दर नेत्र हैं और भगवान शंकर के (सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि) तीन नेत्र हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।


मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालांकितकन्धराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी के केशपाशों में मन्दार-पुष्पों की माला सुशोभित है और भगवान शंकर के गले में मुण्डों की माला सुशोभित हो रही है। पार्वतीजी के वस्त्र अति दिव्य हैं और भगवान शंकर दिगम्बर रूप में सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।


अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय।
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी के केश जल से भरे काले मेघ के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर की जटा विद्युत्प्रभा के समान कुछ लालिमा लिए हुए चमकती दीखती है। पार्वतीजी परम स्वतन्त्र हैं अर्थात् उनसे बढ़कर कोई नहीं है और भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।


प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय।
जगज्जनन्यैजगदेकपित्रे नम: शिवायै च नम: शिवाय।

भगवती पार्वती लास्य नृत्य करती हैं और उससे जगत की रचना होती है और भगवान शंकर का नृत्य सृष्टिप्रपंच का संहारक है। पार्वतीजी संसार की माता और भगवान शंकर संसार के एकमात्र पिता हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।


प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय।
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी प्रदीप्त रत्नों के उज्जवल कुण्डल धारण किए हुई हैं और भगवान शंकर फूत्कार करते हुए महान सर्पों का आभूषण धारण किए हैं। भगवती पार्वतीजी भगवान शंकर की और भगवान शंकर भगवती पार्वती की शक्ति से समन्वित हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।


एतत् पठेदष्टकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी।
प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात् सदा तस्य समस्तसिद्धि:।

आठ श्लोकों का यह स्तोत्र अभीष्ट सिद्धि करने वाला है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, वह समस्त संसार में सम्मानित होता है और दीर्घजीवी बनता है, वह अनन्त काल के लिए सौभाग्य व समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है।

।।इति आदिशंकराचार्य विरचित अर्धनारीनटेश्वरस्तोत्रम् सम्पूर्णम्।।

गुरुवार, 30 मई 2019

भद्रवाह कैलाश पर्वत


भद्रवाह कैलाश पर्वत, जहाँ वासुकि नाग जी देते है दर्शन जोकि वासुकि नाग का भी पवित्र स्थान माना जाता है, वहां पर स्थित कैलाश - कुण्ड आध्यात्मिक और पर्यटन की दृष्टि से कई लोक मान्यताओं को अपने में संजोए हुए है भद्रवाह का प्राचीन नाम भद्रकाशी कहा जाता है और इस घाटी में शिवजी के साथ - साथ वासुकि नाग का आवास एवं विशेष कृपा मानी जाती है। इसी के साथ - साथ इस घाटी को पार्वती जी का मायका भी माना जाता है। प्रमाणों के साथ यह भी बताया जाता है कि पांडवों ने अपना अज्ञात वास भी इन वादियों - घाटियों में व्यतीत किया था। इसलिए शिव-पार्वती और वासुकि नाग की भूमि और पांडवों की तपोभूमि होने के कारण समस्त भद्रवाही अपने को बहुत अधिक भाग्यशाली मानते हैं।

यह पवित्र कुंड वास्तव में भगवन नाग की एक अशीम हिमाछादित झील है।यहाँ प्रतिवर्ष सितम्बर मास में एक विशाल मेला लगता है। मेले में जम्मू , कश्मीर , हिमाचल , हरयाणा , पंजाब और दिल्ली तक के अशंकया लोग भाग लेते हैं। स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक होती है।

सामान्य श्रद्धालु लोग झील के बर्फीले गहरे पानी में सेब फेकते हैं। पवित्र झील में सफ़ेद रंग क विशालकाय वासुकि नाग के दर्शन भी अशंकया लोगो को प्रायः होते रहते हैं। नागराज को बर्फीले पानी में देख कर यात्री दांग रह जाते हैं।

कैलाश यात्रा वाश्तव में भारतवर्ष की कठिनतम यात्रियों में से है। कश्मीर सरकार की ओर से जगह जगह उपचार , आवास , सुरक्षा आदि समुचित यात्रियों प्रबंध आदि समुचित प्रबंध होते हैं।

वासुकि कुंड आधयात्मिक , ऎतिहासिक और रहश्यमय स्थल हैं। कहते हैं , लाखों वर्ष पूर्व गरूर और वासुकि का भयानक यूद्ध हुआ था। वासुकि गरूर से बचने के लिए भदरवाह के कैलाश परबत में चुप गए। गरूर ने वासुकि की छिपने वाली जगह में एक गड्ढा बना दिया। वह आशिम गड्ढा तत्काल दुद्घ गंगा के पवित्र जल से भर गया।

नागराज वासुकि ने उस पावित्र्य जल में छुपकर आत्मा रक्षा की थी। तभी से यह सर्वोच झील विदेशी पर्यटकों और पर्वतारोहियों आकर्षण का केंद्र हैं। आज भी पर्वतारोही कैलाश पर्वत के परवता रोहन के बिना आपने अभियानों को अपूर्ण मानते हैं।


गुरुवार, 16 मई 2019

रुद्राभिषेक पाठ एवं इसके भेद


ब्रम्हा आदि देवता भी जिस अक्षर का सार न पा सके उस आदि अनादी से रहित निर्गुण स्वरुप ॐ के स्वरुप में विराजमान जो अदितीय शक्ति भूतभावन कालो के भी काल गंगाधर भगवान महादेव को प्रणाम करते है ।

अपितु शास्त्रों और पुरानो में पूजन के कई प्रकार बताये गए है लेकिन जब हम शिव लिंग स्वरुप महादेव का अभिषेक करते है तो उस जैसा पुण्य अश्वमेघ जैसेयाग्यों से भी प्राप्त नही होता !

स्वयं श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते है तो स्वयं महादेव साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करने लगते है । संसार में ऐसी कोई वस्तु , कोई भी वैभव , कोई भी सुख , ऐसी कोई भी वास्तु या पदार्थ नही है जो हमें अभिषेक से प्राप्त न हो सके! वैसे तो अभिषेक कई प्रकार से बताये गये है । लेकिन मुख्या पांच ही प्रकार है !

(1) रूपक या षड पाठ - रूद्र के छः अंग कहे गये है इन छह अंग का यथा विधि पाठ षडंग पाठ कहा गया है।

शिव कल्प सूक्त - प्रथम हृदय रूपी अंग है

पुरुष सूक्त - द्वितीय सर रूपी अंग है ।

उत्तरनारायण सूक्त - शिखा है।

अप्रतिरथ सूक्त - कवचरूप चतुर्थ अंग है ।

मैत्सुक्त - नेत्र रूप पंचम अंग कहा गया है ।

शतरुद्रिय -  अस्तरूप षष्ठ अंग कहा गया है।

इस प्रकार - सम्पूर्ण रुद्राष्टाध्यायी के दस अध्यायों का षडडंग रूपक पाठ कहलाता है षडंग पाठ में विशेष बात है की इसमें आठवें अध्याय के साथ पांचवे अध्याय की आवृति नही होती है कर्मकाण्डी भाषा मे इसे ही नमक-चमक से अभिषेक करना कहा जाता है।

(2) रुद्री या एकादशिनि - रुद्राध्याय की ग्यारह आवृति को रुद्री या एकादिशिनी कहते है रुद्रो की संख्या ग्यारह होने के कारण ग्यारह अनुवाद में विभक्त किया गया है।

(3) लघुरुद्र- एकादशिनी रुद्री की ग्यारह अव्रितियों के पाठ को लघुरुद्र पाठ कहा गया है।

यह लघु रूद्र अनुष्ठान एक दिन में ग्यारह ब्राह्मणों का वरण करके एक साथ संपन्न किया जा सकता है। तथा एक ब्राह्मण द्वारा अथवा स्वयं ग्यारह दिनों तक एक एकादशिनी पाठ नित्य करने पर भी लघु रूद्र संपन्न होहै है।

(4) महारुद्र -- लघु रूद्र की ग्यारह आवृति अर्थात एकादशिनी रुद्री की 121 आवृति पाठ होने पर महारुद्र अनुष्ठान होता है । यह पाठ ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा 11 दिन तक कराया जाता है।

(5) अतिरुद्र - महारुद्र की 11 आवृति अर्थात एकादिशिनी रुद्री की 1331 आवृति पाठ होने से अतिरुद्र अनुष्ठान संपन्न होता है ये तीनो प्रकार से किये जा सकते है शास्त्रों में इन अनुष्ठानो का अत्यधिक फल है व तीनो का फल समान है।

(1)अनुष्ठात्मक
(2) अभिषेकात्मक
(3) हवनात्मक

रुद्राष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय मेँ - प्रथमाध्याय का प्रथम मन्त्र "गणानां त्वा गणपति गुम हवामहे " बहुत ही प्रसिद्ध है । यह मन्त्र ब्रह्मणस्पति के लिए भी प्रयुक्त होता है।

द्वितीय एवं तृतीय मन्त्र मे गायत्री आदि वैदिक छन्दोँ तथा छन्दो में प्रयुक्त चरणो का उल्लेख है । पाँचवे मन्त्र "यज्जाग्रतो से सुषारथि" पर्यन्त का मन्त्रसमूह शिवसंकल्पसूक्त कहलाता है। इन मन्त्रोँ का देवता "मन"है इन मन्त्रो में मन की विशेषताएँ वर्णित हैँ। परम्परानुसार यह अध्याय गणेश जी का है।

द्वितीयाध्याय मे सहस्रशीर्षा पुरुषः से यज्ञेन यज्ञमय तक 16 मन्त्र पुरुषसूक्त से है, इनके नारायण ऋषि एवं विराट पुरुष देवता है। 17 वे मन्त्र अद्भ्यः सम्भृतः से श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ये छः मन्त्र उत्तरनारायणसूक्त रुप मे प्रसिद्ध है।
द्वितीयाध्याय भगवान विष्णु का माना गया है।

तृतीयाध्याय के देवता देवराज इन्द्र है तथा अप्रतिरथ सूक्त के रुप मे प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान आशुः शिशानः से अमीषाज्चित्तम् पर्यन्त द्वादश मन्त्रो को स्वीकारते हैं तो कुछ विद्वान अवसृष्टा से मर्माणि ते पर्यन्त 5 मन्त्रो का भी समावेश करते है। इन मन्त्रो के ऋषि अप्रतिरथ है। इन मन्त्रो द्वारा इन्द्र की उपासना द्वारा शत्रुओ स्पर्शाधको का नाश होता है।

प्रथम मन्त्र "ऊँ आशुः शिशानो .... का अर्थ देखेँ त्वरा से गति करके शत्रुओ का नाश करने वाला, भयंकर वृषभ की तरह, सामना करने वाले प्राणियोँ को क्षुब्ध करके नाश करने वाला। मेघ की तरह गर्जना करने वाला। शत्रुओं का आवाहन करने वाला, अति सावधान, अद्वितीय वीर, एकाकी पराक्रमी, देवराज इन्द्र शतशः सेनाओ पर विजय प्राप्त करता है।

चतुर्थाध्याय मे सप्तदश मन्त्र है जो मैत्रसूक्त के रुप मे प्रसिद्ध है। इन मन्त्रो मे भगवान सूर्य की स्तुति है " ऊँ आकृष्णेन रजसा " मे भुवनभास्कर का मनोरम वर्णन है। यह अध्याय सूर्यनारायण का है ।

पंचमाध्याय मे 66 मन्त्र है यह अध्याय प्रधान है, इसे शतरुद्रिय कहते है।
"शतसंख्यात रुद्रदेवता अस्येति शतरुद्रियम्। इन मन्त्रो मे रुद्र के शतशः रुप वर्णित है। कैवल्योपनिषद मे कहा गया है कि शतरुद्रिय का अध्ययन से मनुष्य अनेक पातको से मुक्त होकर पवित्र होता है। इसके देवता महारुद्र शिव है।
षष्ठाध्याय को महच्छिर के रुप मेँ माना जाता है। प्रथम मन्त्र मे सोम देवता का वर्णन है। प्रसिद्ध महामृत्युञ्जय मन्त्र "ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे" इसी अध्याय मे है। इसके देवता चन्द्रदेव है।

सप्तमाध्याय को जटा कहा जाता है । उग्रश्चभीमश्च मन्त्र मे मरुत् देवता का वर्णन है। इसके देवता वायुदेव है।

अष्टमाध्याय को चमकाध्याय कहा जाता है । इसमे 29 मन्त्र है। प्रत्येक मन्त्र मे "च "कार एवं "मे" का बाहुल्य होने से कदाचित चमकाध्याय अभिधान रखा गया है । इसके ऋषि "देव"स्वयं है तथा देवता अग्नि है। प्रत्येक मन्त्र के अन्त मे यज्ञेन कल्पन्ताम् पद आता है।

रुद्री के उपसंहार मे "ऋचं वाचं प्रपद्ये " इत्यादि 24 मन्त्र शान्तयाध्याय के रुप मे एवं "स्वस्ति न इन्द्रो " इत्यादि 12 मन्त्र स्वस्ति प्रार्थना के रुप मे प्रसिद्ध है।

रुद्राभिषेक प्रयुक्त होने वाले प्रशस्त द्रव्य व उनका फल

1. जलसे रुद्राभिषेक -- वृष्टि होती है

2. कुशोदक जल से -- समस्त प्रकार की व्याधि की शांति

3. दही से अभिषेक -- पशु प्राप्ति होती है

4. इक्षु रस -- लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए

5. मधु (शहद)-- धन प्राप्ति के लिए यक्ष्मारोग (तपेदिक)।

6. घृत से अभिषेक व तीर्थ जल से भी -- मोक्ष प्राप्ति के लिए।

7. दूध से अभिषेक -- प्रमेह रोग के विनाश के लिए -पुत्र प्राप्त होता है ।

8. जल की की धारा भगवान शिव को अति प्रिय है अत: ज्वर के कोपो को शांत करने के लिए जल धरा से अभिषेक करना चाहिए।

9. सरसों के तेल से अभिषेक करने से शत्रु का विनाश होता है।यह अभिषेक विवाद मकदमे सम्पति विवाद न्यालय में विवाद को दूर करते है।

10.शक्कर मिले जल से पुत्र की प्राप्ति होती है ।

11. इतर मिले जल से अभिषेक करने से शारीर की बीमारी नष्ट होती है ।

12. दूध से मिले काले तिल से अभिषेक करने से भगवन शिव का आधार इष्णन करने से सा रोग व शत्रु पर विजय प्राप्त होती है ।

13.समस्त प्रकार के प्रकृतिक रसो से अभिषेक हो सकता है ।
सार --उप्प्युक्त द्रव्यों से महालिंग का अभिषेक पर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न होकर भक्तो की तदन्तर कामनाओं का पूर्ति करते है ।

अत: भक्तो को यजुर्वेद विधान से रुद्रो का अभिषेक करना चाहिए ।

विशेष बात: रुद्राध्याय के केवल पाठ अथवा जप से ही सभी कम्नावो की पूर्ति होती है ।

रूद्र का पाठ या अभिषेक करने या कराने वाला महापातक रूपी पंजर से मुक्त होकर सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है और अंत विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है ।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

प्रभुश्रीराम के राज्याभिषेक के समय वेदों द्वारा की गई प्रभुश्रीराम की स्तुति भावार्थ सहित



प्रभुश्रीराम के राज्याभिषेक के समय वेदों द्वारा की गई प्रभुश्रीराम की स्तुति भावार्थ सहित! बहुत बहुत फलदायक स्तुति है, इसे अपने पूजापाठ में सम्मिलित करें!


* जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥
भावार्थ:-सगुण और निर्गुण रूप! हे अनुपम रूप-लावण्ययुक्त! हे राजाओं के शिरोमणि! आपकी जय हो। आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला। आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर दिया। हे दयालु! हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो! आपकी जय हो। मैं शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान्‌ आपको नमस्कार करता हूँ॥


तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥
जे नाथ करि करुना बिलोकि त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥

भावार्थ:-हे हरे! आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए) दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं। हे नाथ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टि) से देख लिया, वे (माया जनित) तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए। हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्री रामजी! हमारी रक्षा कीजिए। हम आपको नमस्कार करते हैं॥
 

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे॥

भावार्थ:-जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को हरने वाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देव-दुर्लभ (देवताओं को भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होने वाले, ब्रह्मा आदि के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं (परंतु), जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाते हैं। हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं॥




* जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥
भावार्थ:-जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द! हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं॥


*अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥
भावार्थ:-वेद शास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है, जो (प्रवाह रूप से) अनादि है, जिसके चार त्वचाएँ, छह तने, पच्चीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार वृक्ष स्वरूप (विश्व रूप में प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं॥


*जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥
भावार्थ:-ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है- (जो इस प्रकार कहकर उस) ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं। हे करुणा के धाम प्रभो! हे सद्गुणों की खान! हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें॥



* सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार॥

भावार्थ:-वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की। फिर वे अंतर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए॥

मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

कृष्ण-सुदामा की मित्रता



कृष्ण-सुदामा की मित्रता बहुत प्रचलित है। सुदामा गरीब ब्राह्मण थे। अपने बच्चों का पेट भर सके उतने भी सुदामा के पास पैसे नहीं थे। सुदामा की पत्नी ने कहा, "हम भले ही भूखे रहें, लेकिन बच्चों का पेट तो भरना चाहिए न ?" इतना बोलते-बोलते उसकी आँखों में आँसू आ गए। सुदामा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने कहा, "क्या कर सकते हैं ? किसी के पास माँगने थोड़े ही जा सकते है।" पत्नी ने सुदामा से कहा, "आप कई बार कृष्ण की बात करते हो। आपकी उनके साथ बहुत मित्रता है ऐसा कहते हो। वे तो द्वारका के राजा हैं। वहाँ क्यों नहीं जाते ? जाइए न ! वहाँ कुछ भी माँगना नहीं पड़ेगा !"

सुदामा को पत्नी की बात सही लगी। सुदामा ने द्वारका जाने का तय किया। पत्नी से कहा, "ठीक है, मैं कृष्ण के पास जाऊँगा। लेकिन उसके बच्चों के लिए क्या लेकर जाऊँ ?"सुदामा की पत्नी पड़ोस में से पोहे ले आई। उसे फटे हुए कपडे में बांधकर उसकी पोटली बनाई। सुदामा उस पोटली को लेकर द्वारका जाने के लिए निकल पड़े।

द्वारका देखकर सुदामा तो दंग रह गए। पूरी नगरी सोने की थी। लोग बहुत सुखी थे। सुदामा पूछते-पूछते कृष्ण के महल तक पहुँचे। दरवान ने साधू जैसे लगनेवाले सुदामा से पूछा, "एय, यहाँ क्या काम है ?"

सुदामा ने जवाब दिया, "मुझे कृष्ण से मिलना है। वह मेरा मित्र है। अंदर जाकर कहिए कि सुदामा आपसे मिलने आया है।" दरवान को सुदामा के वस्त्र देखकर हँसी आई। उसने जाकर कृष्ण को बताया। सुदामा का नाम सुनते ही कृष्ण खड़े हो गए ! और सुदामा से मिलने दौड़े । सभी आश्चर्य से देख रहे थे ! कहाँ राजा और कहाँ ये साधू ?

कृष्ण सुदामा को महल में ले गए। सांदीपनी ऋषि के गुरुकुल के दिनों की यादें ताज़ा की। सुदामा कृष्ण की समृद्धि देखकर शर्मा गए। सुदामा पोहे की पोटली छुपाने लगे, लेकिन कृष्ण ने खिंच ली। कृष्ण ने उसमें से पोहे निकाले। और खाते हुए बोले, "ऐसा अमृत जैसा स्वाद मुझे और किसी में नहीं मिला।"

बाद में दोनों खाना खाने बैठे। सोने की थाली में अच्छा भोजन परोसा गया। सुदामा का दिल भर आया। उन्हें याद आया कि घर पर बच्चों को पूरा पेट भर खाना भी नहीं मिलता है। सुदामा वहाँ दो दिन रहे। वे कृष्ण के पास कुछ माँग नहीं सके। तीसरे दिन वापस घर जाने के लिए निकले। कृष्ण सुदामा के गले लगे और थोड़ी दूर तक छोड़ने गए।

घर जाते हुए सुदामा को विचार आया, "घर पर पत्नी पूछेगी कि क्या लाए ? तो क्या जवाब दूँगा ?"

सुदामा घर पहुँचे। वहाँ उन्हें अपनी झोपड़ी नज़र ही नहीं आई ! उतने में ही एक सुंदर घर में से उनकी पत्नी बाहर आई। उसने सुंदर कपड़े पहने थे। पत्नी ने सुदामा से कहा, "देखा कृष्ण का प्रताप ! हमारी गरीबी चली गई कृष्ण ने हमारे सारे दुःख दूर कर दिए।" सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया। उनकी आँखों में खूशी के आँसू आ गए।

देखा दोस्तों, कृष्ण और सुदामा का प्रेम यानी सच्चा मित्र प्रेम। तो दोस्तों सच्चे प्रेम में ऊँच या नीच नहीं देखी जाती और न ही अमीरी-गरीबी देखी जाती है। इसीलिए आज इतने युगों के बाद भी दुनिया कृष्ण और सुदामा की दोस्ती को सच्चे मित्र प्रेम के प्रतीक के रूप में याद करती है।

गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

यहां रखा है भगवान गणेश का कटा हुआ सिर: पाताल भुवनेश्वर की गुफा




 भगवान शिव द्वारा गणेशजी का मस्तक कटे जाने और फिर हाथी का मस्तक लगाने की कथा तो सभी जानते हैं पर क्या आप जानते हैं कि हाथी का मस्तक लगने के बाद गणेशजी के पहले मस्तक का क्या हुआ। यह लेख इसी सवाल का जवाब है। उत्तराखंड के पिथौला में स्थित है पाताल भुवनेश्वर गुफा। यह गुफा एक आश्चर्य है। यह स्थान भक्तों की आस्था का केंद्र है। यह गुफा एक विशाल पहाड़ी में लगभग 90 फुट अंदर स्थित है। यह गुफा उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के प्रसिद्ध नगर अल्मोड़ा से शेराघाट होते हुए 160 किमी. की दूरी तय कर मनोरम पहाड़ी वादियों के बीच बसे सीमान्त कस्बे गंगोलीहाट में स्थित है।




इस गुफा में विराजमान है गणेशजी का कटा मस्तक.
भगवान गणेश हिन्दू धर्म में प्रथम पूज्य देव हैं। भगवान शिव ने क्रोधवश गणेशजी का मस्तक काट दिया। इसके बाद देवी पार्वती के कहने पर भगवन शिव ने गणेशजी के धड़ पर हाथी का मस्तक लगाकर पुनः जीवनदान दिया और कटा हुआ मस्तक इस गुफा में रख दिया।
 
यहां भगवान शिव ने की थी 108 पंखुड़ियों वाले कमल की स्थापना।


यहां स्थित शिलारुपी गणेशजी के सिर के ठीक ऊपर 108 पंखुड़ियों वाला ब्रह्मकमल सुशोभित है। यह आश्चर्य से कम नहीं है कि इस कमल से पानी की बूंदें टपकती हैं जो श्री गणेश के मुख में गिरती हैं। यह दृश्य अद्भुत और दिव्य है। कहा जाता है कि यह दिव्य कमल यहां भगवान शिव ने ही स्थापित किया था।

यहां स्थित एक पत्थर बताता है कि कलियुग का अंत कब होगा।
इस गुफा में चार पत्थर स्थित हैं जिन्हें युगों का प्रतीक माना जाता है। इनमें से एक पत्थर जिसे कलियुग का प्रतीक माना जाता है वह धीरे धीरे ऊपर उठ रहा है। कहा जाता है कि जिस दिन यह पत्थर ऊपर दीवार को छू जायेगा तब कलियुग का अंत हो जायेगा।

गुफा में केदारनाथ, बद्रीनाथ और अमरनाथ भी स्थित हैं।
इस गुफा की एक विशेषता यह भी है कि यहां केदारनाथ, बद्रीनाथ तथा अमरनाथ के भी दर्शन किये जा सकते हैं। यहां इनकी शिलारुपी प्रतिमायें स्थित हैं। यहां पत्थर से ही निर्मित जटायें भी फैली हुई हैं। इनके बारे में कहा जाता है कि ये जटायें भगवान शिव की जटायें हैं। इसी गुफा में कालभैरव की जीभ के भी दर्शन किये जा सकते हैं जिसके बारे में मान्यता है कि यदि मनुष्य काल भैरव के मुख में प्रवेश कर पूंछ तक पहुँच जाये तो उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

इस गुफा का पौराणिक महत्त्व भी है।
इस गुफा का उल्लेख पुराणों. में मिलता है। स्कन्दपुराण में वर्णन है कि स्वयं महादेव शिव पाताल भुवनेश्वर में विराजमान हैं और अन्य देवी देवता उनकी स्तुति करने यहाँ आते हैं। यह भी वर्णन है कि त्रेता युग में अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ऋतुपर्ण जब एक जंगली हिरण का पीछा करते हुए इस गुफ़ा में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने इस गुफ़ा के भीतर महादेव शिव सहित 33 कोटि देवताओं के साक्षात दर्शन किये। द्वापर युग में पाण्डवों ने यहां चौपड़ खेला और कलियुग में जगदगुरु आदि शंकराचार्य लगभग 822 ई के आस-पास यहाँ आये तब उन्होंने यहां तांबे का एक शिवलिंग स्थापित किया था।

गुरुवार, 28 मार्च 2019

कैसे हो घर के मंदिर में देवी देवताओं की तस्वीरे और मूर्तियाँ


प्राय सभी हिन्दुओ के घरो में पूजा घर होता है | उसमे वे अपने आराध्य देवी देवताओ की मूर्ति और तस्वीर रखते है | पर कुछ बाते ऐसी है जो घर के मंदिर में ध्यान रखने योग्य होती है जिससे की पूजा का पूर्ण फल आपको मिले | कुछ मुर्तिया या तस्वीर ऐसी भी बताई गयी है जो आपको लाभ की जगह प्रतिकूल फल दे सकती है | आज हम यही विस्तार से जानेंगे की वास्तु के अनुसार घर के मंदिर में मूर्तियाँ कैसी हो |

1. कृष्ण मूर्ति
घर के मंदिर में भगवान कृष्ण की बाल रूप में बैठी हुई मूर्ति रखना उत्तम माना जाता है । कई घरो में लड्डू गोपाल जी स्थापना करके बच्चे की तरह उनका लालन पालन किया जाता है | इसके अलावा मंदिर में कृष्ण राधा की मूर्ति या तस्वीर भी आप लगा सकते है जो खड़ी अवस्था में हो |

2. गणेश
गणेश जी नृत्य करती प्रतिमा या सिंदूरी रंग की मूर्ति रखना अच्छा माना जाता है | इन्हे आप पीले या केसरिया रंग के वस्त्र पहना के रखे |

3. बैठी अवस्था में
पूजा घर में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और धन के देवता कुबेर की मूर्ति बैठी अवस्था में होनी चाहिए। इन देवताओ का खड़ा रहना घर में इनका स्थाई निवास नही करवाता |

4. भगवान शिव
घर में आप शिव प्रतिमा या फिर रोज जल अभिषेक कर पूजा कर सके तो घर में शिवलिंग की स्थापना करना अच्छा माना जाता है | सबसे अच्छा पारद शिवलिंग को माना गया है |

5. राम दरबार :
परिवार के सदस्यों के बीच आपसी प्रेम के लिए घर में राम दरबार की फोटो का होना अति शुभ माना जाता है जिसमे हनुमान जी राम के चरणों में बैठे हुए हो |

6. दक्षिण मुखी हनुमान
घर में एक पंचमुखी हनुमान जी की फोटो दक्षिण दिशा को देखती हुई लगानी चाहिए | दक्षिण दिशा को मृत्यु के देवता यमराज की दिशा बताया जाता है | यदि इस दिशा की तरफ दक्षिणमुखी हनुमान की फोटो होगी तो अकाल मृत्यु से परिवार के सदस्य बचे रहेंगे |

7. भगवान सूर्य की प्रतिमा को घर में लगाना है तो ध्यान रखे यदि सूर्य प्रतिमा ताम्बे की बनी हो तो ज्यादा प्रभावशाली मानी जाती है |

8. विष्णु जी की प्रतिमा घर के मंदिर में हमेशा देवी माँ लक्ष्मी के साथ लगाये क्योकि विष्णु जी तभी घर में कृपा करेंगे जब उनकी जीवनसंगिनी लक्ष्मी जी की फोटो या मूर्ति भी स्थापित हो |

9. तामसिक देवी देवता :
माना जाता है कि तामसिक देवता जैसे काल भैरव , माँ काली , छिन्मस्तिका , बगलामुखी आदि की फोटो या तस्वीर घर में स्थापित नही करे | ये सभी रूद्र देवी देवता है और यदि इन्हे विधि विधान से पूजा अर्चना ना मिले तो जल्दी ही रुष्ट हो जाते है | अगर आप फिर भी रखना चाहते हैं आप किसी गुरु या ज्ञानी की राय लें।

बुधवार, 13 मार्च 2019

भगवान शिव के सामने ही क्यों होती हे नंदी की प्रतिमा



पुराणों में यह कथा मिलती है कि शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। शिलाद निरंतर योग तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे अतः उन्होंने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान माँगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया और उनके ही समान मृत्युहीन तथा दिव्य पुत्र की माँग की।

भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया- वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भय से मुक्त, अजर-अमर और अदु:खी हो। मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा।

भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों, गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर का वरदान है कि जहाँ पर नंदी का निवास होगा वहाँ उनका भी निवास होगा। तभी से हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी की स्थापना की जाती है।

शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का प्रतीक है। नंदी का एक संदेश यह भी है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की दृष्टि शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी दृष्टि भी आत्मा की ओर होनी चाहिये। हर व्यक्ति को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। नंदी यह संकेत देता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही सामान्य भाषा में मन का स्वच्छ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाते हुए मनुष्य अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है।

धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि जब शिव अवतार नंदी का रावण ने अपमान किया तो नंदी ने उसके सर्वनाश को घोषणा कर दी थी। रावण संहिता के अनुसार कुबेर पर विजय प्राप्त कर जब रावण लौट रहा था तो वह थोड़ी देर कैलाश पर्वत पर रुका था। वहाँ शिव के पार्षद नंदी के कुरूप स्वरूप को देखकर रावण ने उसका उपहास किया। नंदी ने क्रोध में आकर रावण को यह श्राप दिया कि मेरे जिस पशु स्वरूप को देखकर तू इतना हँस रहा है। उसी पशु स्वरूप के जीव तेरे विनाश का कारण बनेंगे।

नंदी का एक रूप सबको आनंदित करने वाला है। सबको आनंदित करने के कारण ही भगवान शिव के इस अवतार का नाम नंदी पड़ा। शास्त्रों में इसका उल्लेख इस प्रकार है-

त्वायाहं नंन्दितो यस्मान्नदीनान्म सुरेश्वर।
तस्मात् त्वां देवमानन्दं नमामि जगदीश्वरम।।
-शिवपुराण शतरुद्रसंहिता ६/४५

अर्थात नंदी के दिव्य स्वरूप को देख शिलाद मुनि ने कहा तुमने प्रगट होकर मुझे आनंदित किया है। अत: मैं आनंदमय जगदीश्वर को प्रणाम करता हूं।

नासिक शहर के प्रसिद्ध पंचवटी स्थल में गोदावरी तट के पास एक ऐसा शिवमंदिर है जिसमें नंदी नहीं है। अपनी तरह का यह एक अकेला शिवमंदिर है। पुराणों में कहा गया है कि कपालेश्वर महादेव मंदिर नामक इस स्थल पर किसी समय में भगवान शिवजी ने निवास किया था। यहाँ नंदी के अभाव की कहानी भी बड़ी रोचक है। यह उस समय की बात है जब ब्रह्मदेव के पाँच मुख थे। चार मुख वेदोच्चारण करते थे, और पाँचवाँ निंदा करता था। उस निंदा से संतप्त शिवजी ने उस मुख को काट डाला। इस घटना के कारण शिव जी को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। उस पाप से मुक्ति पाने के लिए शिवजी ब्रह्मांड में हर जगह घूमे लेकिन उन्हें मुक्ति का उपाय नहीं मिला। एक दिन जब वे सोमेश्वर में बैठे थे, तब एक बछड़े द्वारा उन्हें इस पाप से मुक्ति का उपाय बताया गया। कथा में बताया गया है कि यह बछड़ा नंदी था। वह शिव जी के साथ गोदावरी के रामकुंड तक गया और कुंड में स्नान करने को कहा। स्नान के बाद शिव जी ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो सके। नंदी के कारण ही शिवजी की ब्रह्म हत्या से मुक्ति हुई थी। इसलिए उन्होंने नंदी को गुरु माना और अपने सामने बैठने को मना किया।

आज भी माना जाता है कि पुरातन काल में इस टेकरी पर शिवजी की पिंडी थी। अब तक वह एक विशाल मंदिर बन चुकी है। पेशवाओं के कार्यकाल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। मंदिर की सीढि़याँ उतरते ही सामने गोदावरी नदी बहती नजर आती है। उसी में प्रसिद्ध रामकुंड है। भगवान राम में इसी कुंड में अपने पिता राजा दशरथ के श्राद्ध किए थे। इसके अलावा इस परिसर में काफी मंदिर है। लेकिन इस मंदिर में आज तक कभी नंदी की स्थापना नहीं की गई।