गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

क्या आप जानते हैं कि भगवान शिव के छः पुत्र थे!!!


वैसे तो जब शिवपुत्र की बात आती है तो हमारे ध्यान में कार्तिकेय और गणेश ही आते हैं। वैसे तो भगवान शिव के किसी भी पुत्र ने माता पार्वती के गर्भ से जन्म नहीं लिया है किन्तु फिर भी कार्तिकेय और गणेश को शिव-पार्वती का ही पुत्र माना जाता है और इनकी प्रसिद्धि सबसे अधिक है।

किन्तु इसके अतिरिक्त भी चार व्यक्ति ऐसे हैं जिन्हे शिवपुत्र होने का गौरव प्राप्त है। हालाँकि ये इतने प्रसिद्ध नहीं हैं और पुराणों में भी इनके शिवपुत्र होने के विषय में अधिक वर्णन नहीं किया गया है किन्तु इन्हे भगवान शिव और माता पार्वती का पुत्र ही माना जाता है। तो आइये उनके बारे में कुछ जानते हैं:

कार्तिकेय: - इन्हे ज्येष्ठ शिवपुत्र माना जाता है। देवी सती की मृत्यु के पश्चात शिव बैरागी हो गए। तब देवी पार्वती ने उन्हें पति रूप में पाने के लिए तप शुरू किया। शिव विवाह नहीं करना चाहते थे किन्तु तारकासुर नामक राक्षस ने ब्रह्मदेव से ये वरदान प्राप्त किया कि उसका वध केवल शिवपुत्र के हांथों ही हो। इसीलिए कामदेव ने महादेव को देवी पार्वती की ओर आकर्षित करने के लिए उनपर कामबाण चलाया और उनकी क्रोधाग्नि में भस्म हो गए। अंततः विवाह तो हुआ किन्तु शिवजी के तेज को माता पार्वती अपने गर्भ में धारण नहीं कर सकी और उसे समुद्र में डाल दिया।

वहां छः कृतिकाओं ने उस वीर्य को छः भागों में बाँट लिया जिससे एक पुत्र की उत्पत्ति हुई जो छः मुख वाला था। कृतिकाओं द्वारा पाले जाने के कारण उनका नाम कार्तिकेय पड़ा। अंततः वे कैलाश अपने माता पिता के पास लौटे और देवसेना के सेनापति के रूप में तारकासुर का वध किया। पूरे भारत, विशेषकर दक्षिण भारत में उनकी बड़ी मान्यता है जहाँ उन्हें मुरुगण और स्कन्द के नाम से भी जानते हैं।

गणेश: -गणेशजी की उत्पत्ति देवी पार्वती के शरीर के मैल से हुई थी। एक बात स्नान करते हुए उनके मन में एक पुत्र की कामना हुई और उन्होंने अपने शरीर पर लगे उबटन से एक बालक की मूर्ति बनायीं और उसे जीवित किया। उन्होंने उसे द्वार की रक्षा करने का आदेश दिया और स्वयं स्नान करने चली गयी।
दैववश उधर महादेव आ निकले और उन्होंने कक्ष में प्रवेश करने का प्रयास किया तो गणेश ने उन्हें रोक दिया। शिवगण सारे मिलकर भी उसे परास्त नहीं कर सके। अंततः क्रोध में आकर महादेव ने अपने त्रिशूल से उस बालक का शीश काट दिया। जब माँ पार्वती बाहर आयी तो अपने पुत्र को मृत देख कर विलाप करने लगी। तब महादेव ने उसके कटे शीश पर हांथी का सर लगा कर उसे जीवित किया और उसे सभी गानों का प्रधान बनाया। तभी से वे गणपति कहलाये।

सुकेश: - ब्रह्माजी से हेति-प्रहेति नामक दो राक्षसों की उत्पत्ति हुई। हेति का पुत्र विद्युत्केश हुआ जिसका विवाह सालकण्टका नामक राक्षसी से हुआ। उससे उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई किन्तु दोनों कामक्रीड़ा में इतने व्यस्त थे कि अपने पुत्र से उनके सुख में व्यवधान आने के कारण उन्होंने उसे त्याग दिया। उसी समय भगवान शिव और माता पार्वती वहाँ से गुजरे तो एक रोते हुए बालक को देख कर माता का ह्रदय द्रवित हो गया। उन्होंने उसे अपना पुत्र माना और सुकेश नाम दिया। प्रसन्न होकर महादेव ने उसे अमरता का वरदान भी दिया और उससे आगे राक्षस वंश चला।

जलंधर: - एक बार भगवान शिव ने अपना तेज समुद्र में फेक दिया जिससे जलंधर की उत्पत्ति हुई। उसे मालूम नहीं था कि वो शिवपुत्र है। उसका विवाह वृन्दा से हुआ जो महान सती थी। उसे वरदान प्राप्त था कि जब तक उसका सतीत्व अखंड रहेगा, उसके पति का कोई वध नहीं कर पायेगा। जलंधर ने एक बार देवी पार्वती को देखा और मुग्ध हो गया। उसे पता नहीं था कि वो उसकी माता है। उसने उसे पाने के लिए कैलाश पर चढ़ाई की जहाँ उसका युद्ध महादेव से हुआ।

वरदान के कारण शिव उसका वध नहीं कर रहे थे और तब भगवान विष्णु जलंधर के वेश में वृन्दा के पास पहुँचे और उसके साथ रमण किया जिससे उसका सतीत्व टूट गया और तब महारुद्र ने जलंधर का वध कर दिया। वृन्दा को जब सत्य पता चला तो उसने नारायण को पत्थर हो जाने का श्राप दिया और स्वयं सती हो गयी। नारायण का पाषाण रूप शालिग्राम कहलाया और वृन्दा की राख से तुलसी की उत्पत्ति हुई। इसी से शालिग्राम के साथ तुलसी चढ़ाना अत्यंत पुण्यकारी माना जाता है।

अयप्पा: - एक बार महादेव ने भगवान विष्णु से उनके मोहिनी रूप को देखने का अनुरोध किया। जब श्रीहरि मोहिनी रूप में आये तो उनके रूप को देख कर शिव का वीर्यपात हो गया। उससे एक पुत्र "सस्तव" की उत्पति हुई जिसे अयप्पा कहा जाता है। दक्षिण भारत में उनके बड़े मात्रा में अनुयायी हैं और केरल के शबरीमला में स्वामी अयप्पा का विश्वप्रसिद्ध मंदिर है।

भूमा: - एक बार तपस्या करते समय भगवान शिव के पसीने की कुछ बूंदें भूमि पर गिरी जिससे एक रक्तवर्णीय बालक का जन्म हुआ जिसकी चार भुजाएं थी। उसका पालन पोषण धरती ने किया और भूमि से उत्पन्न होने के कारण उसे भूमा नाम से जाना गया और पृथ्वी का पुत्र माना गया। जब शिव समाधि से उठे तो उसे मंगल नाम दिया। मंगल ने काशी में भगवान शिव की घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने भूमा को मंगल ग्रह प्रदान किया।

इनके अतिरिक्त दैत्यराज बलि के पुत्र बाणासुर को भी शिव ने अपना पुत्र माना और उसके राज्य की रक्षा का वचन दिया। इसी कारण अश्वमेघ यज्ञ के समय श्रीराम को भगवान शंकर से युद्ध करना पड़ा। इसके बारे में आप यहाँ विस्तार से पढ़ सकते हैं। शिव-पार्वती की एक कन्या "अशोकसुन्दरी" भी थी जिसका विवाह नहुष से हुआ और उनके पुत्र ययाति से ही समस्त राजवंश चले। 

बुधवार, 30 दिसंबर 2020

अकस्मात मृत्यु से रक्षा करता है " मृतसञ्जीवन स्तोत्र " (अर्थ सहित)

 

ये स्तोत्र महर्षि वशिष्ठ द्वारा रचित है। इस स्तोत्र को कवच रूप में पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र में महेश्वर से सभी प्रकार से रक्षा करने की प्रार्थना की जाती है।

।। श्री मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् ।।

एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥

गौरीपति मृत्युञ्जयेश्र्वर भगवान् शंकर की विधिपूर्वक आराधना करने के पश्र्चात भक्तको सदा मृतसञ्जीवन नामक कवचका सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये।


सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं ॥ २॥

महादेव भगवान् शङ्कर का यह मृतसञ्जीवन नामक कवच का तत्त्वका भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है गुह्य और मङ्गल प्रदान करनेवाला है।


समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं।
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥

[आचार्य शिष्य को उपदेश करते हैं कि – हे वत्स! ] अपने मनको एकाग्र करके इस मृतसञ्जीवन कवच को सुनो। यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है। इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना।


वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥

जरा से अभय करने वाले, निरन्तर यज्ञ करनेवाले, सभी देवतओं से आराधित हे मृत्युञ्जय महादेव ! आप पर्व-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें।


दधाअनः शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः।
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥

अभय प्रदान करने वाली शक्ति को धारण करने वाले, तीन मुखोंवाले तथा छ: भुजओं वाले, अग्रिरूपी प्रभु सदाशिव अग्रिकोण में मेरी सदा रक्षा करें।


अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः।
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु ॥६

अट्ठारह भुजाओं से युक्त, हाथ में दण्ड और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सर्वत्र व्याप्त यमरुपी महादेव शिव दक्षिण-दिशामें मेरी सदा रक्षा करें।


खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु ॥७॥

हाथमें खड्ग और अभयमुद्रा धारण करने वाले, धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित रक्षोरुपी महेश नैर्ऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।


पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु ॥८॥

हाथमें अभयमुद्रा और पाश धाराण करनेवाले, शभी रत्नाकरों से सेवित, वरुणस्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम- दिशा में मेरी सदा रक्षा करें।


गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥

हाथों में गदा और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, प्राणो के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें।


शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥

हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करने वाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओं के मध्यमें मेरी रक्षा करें।


शूलाभयकरः सर्वविद्यानमधिनायकः।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥

हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करनेवाले, सभी विद्याओं के स्वामी, ईशानस्वरूप भगवान् परमेश्व शिव ईशानकोण में मेरी रक्षा करें।


ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माऽधः सदावतु।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः ॥१२॥

ब्रह्मरूपी शिव मेरी ऊर्ध्वभाग में तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभागमें मेरी सदा रक्षा करें। शंकर मेरे सिर की और चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें।
भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेऽवतु।


भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥

मेरे भौंहों के मध्य में सर्वलोकेश और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों को रक्षा भगवान् महेश्वर करें।


नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥

महादेव मेरी नासीकाकी तथा वृषभध्वज मेरे दोनों ओठों की सदा रक्षा करें। दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे दाँतों की रक्षा करें।


मृतुय्ञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः।
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम ॥१५॥

मृत्युञ्जय मेरे मुखकी एवं नागभूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठकी रक्षा करें। पिनाकी मेरे दोनों हाथोंकी तथा त्रिशूली मेरे हृदय की रक्षा करें।


पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः।
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः ॥१६॥

पञ्चवक्त्र मेरे दोनों स्तनो की और जगदीश्वर मेरे उदरकी रक्षा करें। विरूपाक्ष नाभिकी और पार्वतीपति पार्श्वभागकी रक्षा करें।


कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः।
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः॥१७॥

गिरीश मेरे दोनों कटिभाग की तथा प्रमथाधिप पृष्टभाग की रक्षा करें। महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों ऊरुओं की रक्षा करें।


जानुनी मे जगद्दर्ता जङ्घे मे जगदम्बिका।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः ॥१८॥

जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनों की, जगदम्बिका मेरे दोनों जंघोकी तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरोंकी रक्षा करें।


गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम।
मृत्युञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः ॥१९॥

गिरीश मेरी भार्याकी रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रोंकी रक्षा करें । मृत्युञ्जय मेरे आयुकी गणनायक मेरे चित्तकी रक्षा करें।


सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिव:।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥

कालोंके काल सदाशिव मेरे सभी अंगोकी रक्षा करें। [ हे वत्स ! ] देवताओंके लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवचका वर्णन मैंने तुमसे किया है।


मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम्।
सह्स्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥

हादेवजीने मृतसञ्जीवन नामक इस कवचको कहा है। इस कवचकी सहस्त्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है।


यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः।
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥

जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथावा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्युको जीतकर पूर्ण आयुका उपयोग करता है।


हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ।
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥

जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसञ्जीवन कवचका पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है। फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं।


कालमृयुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥

यह मृतसञ्जीवन कवच कालके गाल में गये हुए व्यक्तिको भी जीवन प्रदान कर ‍देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणोंसे युक्त ऐश्वर्यको प्राप्त करता है।


युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं।
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥

युद्ध आरम्भ होनेके पूर्व जो इस मृतसञ्जीवन कवचका २८ बार पाठ करके रणभूमिमें उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुऔंसे अदृश्य रहता है।


न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै।
विजयं लभते देवयुद्दमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥

यदि देवताओ के भी साथ युद्ध छिड जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नही कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है।


प्रातरूत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥

जो प्रात:काल उठकर इस कल्याणकारी कवच सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोकमें भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है !


सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥

वह सम्पूर्ण व्याधियोंसे मुक्त हो जाता है, सब प्रकारके रोग उसके शरीरसे भाग जाते हैं। वह अजर-अमर होकर सदाके लिये सोलह वर्षवाला व्यक्ति बन जाता है।


विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम् ॥२९॥

इस लोकमें दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करता रहता है। इसलिये इस महागोपनीय कवच को मृतसञ्जीवन नाम से कहा है।


मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम् ॥३०॥

यह देवतओं के लिय भी दुर्लभ है।


॥ इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवन स्तोत्रम् सम्पूर्णम्॥

इस प्रकार वसिष्ठजी द्वारा रचित मृतसञ्जीवनी स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

पत्नी वामांगी क्यों कहलाती है?

शास्त्रों में पत्नी को वामंगी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है बाएं अंग का अधिकारी। इसलिए पुरुष के शरीर का बायां हिस्सा स्त्री का माना जाता है।


इसका कारण यह है कि भगवान शिव के बाएं अंग से स्त्री की उत्पत्ति हुई है जिसका प्रतीक है शिव का अर्धनारीश्वर शरीर। यही कारण है कि हस्तरेखा विज्ञान की कुछ पुस्तकों में पुरुष के दाएं हाथ से पुरुष की और बाएं हाथ से स्त्री की स्थिति देखने की बात कही गयी है।

शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्री पुरुष की वामांगी होती है इसलिए सोते समय और सभा में, सिंदूरदान, द्विरागमन, आशीर्वाद ग्रहण करते समय और भोजन के समय स्त्री पति के बायीं ओर रहना चाहिए। इससे शुभ फल की प्राप्ति होती।

वामांगी होने के बावजूद भी कुछ कामों में स्त्री को दायीं ओर रहने के बात शास्त्र कहता है। शास्त्रों में बताया गया है कि कन्यादान, विवाह, यज्ञकर्म, जातकर्म, नामकरण और अन्न प्राशन के समय पत्नी को पति के दायीं ओर बैठना चाहिए।

पत्नी के पति के दाएं या बाएं बैठने संबंधी इस मान्यता के पीछे तर्क यह है कि जो कर्म संसारिक होते हैं उसमें पत्नी पति के बायीं ओर बैठती है। क्योंकि यह कर्म स्त्री प्रधान कर्म माने जाते हैं।

यज्ञ, कन्यादान, विवाह यह सभी काम पारलौकिक माने जाते हैं और इन्हें पुरुष प्रधान माना गया है। इसलिए इन कर्मों में पत्नी के दायीं ओर बैठने के नियम हैं।


क्या आप जानते हैं?

सनातन धर्म में पत्नी को पति की वामांगी कहा गया है, यानी कि पति के शरीर का बांया हिस्सा, इसके अलावा पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है पत्नी, पति के शरीर का आधा अंग होती है, दोनों शब्दों का सार एक ही है, जिसके अनुसार पत्नी के बिना पति अधूरा है।

पत्नी ही पति के जीवन को पूरा करती है, उसे खुशहाली प्रदान करती है, उसके परिवार का ख्याल रखती है, और उसे वह सभी सुख प्रदान करती है जिसके वह योग्य है, पति-पत्नी का रिश्ता दुनिया भर में बेहद महत्वपूर्ण बताया गया है, चाहे सोसाइटी कैसी भी हो, लोग कितने ही मॉर्डर्न क्यों ना हो जायें, लेकिन पति-पत्नी के रिश्ते का रूप वही रहता है, प्यार और आपसी समझ से बना हुआ।

हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध ग्रंथ महाभारत में भी पति-पत्नी के महत्वपूर्ण रिश्ते के बारे में काफी कुछ कहा गया है, भीष्म पितामह ने कहा था कि पत्नी को सदैव प्रसन्न रखना चाहिये, क्योंकि, उसी से वंश की वृद्धि होती है, वह घर की लक्ष्मी है और यदि लक्ष्मी प्रसन्न होगी तभी घर में खुशियां आयेगी, इसके अलावा भी अनेक धार्मिक ग्रंथों में पत्नी के गुणों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है।

आज हम आपको गरूड पुराण, जिसे लोक प्रचलित भाषा में गृहस्थों के कल्याण की पुराण भी कहा गया है, उसमें उल्लिखित पत्नी के कुछ गुणों की संक्षिप्त व्याख्या करेंगे, गरुण पुराण में पत्नी के जिन गुणों के बारे में बताया गया है, उसके अनुसार जिस व्यक्ति की पत्नी में ये गुण हों, उसे स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिये, कहते हैं पत्नी के सुख के मामले में देवराज इंद्र अति भाग्यशाली थे, इसलिये गरुण पुराण के तथ्य यही कहते हैं।

सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा।
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।।


गरुण पुराण में पत्नी के गुणों को समझने वाला एक श्लोक मिलता है, यानी जो पत्नी गृहकार्य में दक्ष है, जो प्रियवादिनी है, जिसके पति ही प्राण हैं और जो पतिपरायणा है, वास्तव में वही पत्नी है, गृह कार्य में दक्ष से तात्पर्य है वह पत्नी जो घर के काम काज संभालने वाली हो, घर के सदस्यों का आदर-सम्मान करती हो, बड़े से लेकर छोटों का भी ख्याल रखती हो।

जो पत्नी घर के सभी कार्य जैसे- भोजन बनाना, साफ-सफाई करना, घर को सजाना, कपड़े-बर्तन आदि साफ करना, यह कार्य करती हो वह एक गुणी पत्नी कहलाती है, इसके अलावा बच्चों की जिम्मेदारी ठीक से निभाना, घर आये अतिथियों का मान-सम्मान करना, कम संसाधनों में भी गृहस्थी को अच्छे से चलाने वाली पत्नी गरुण पुराण के अनुसार गुणी कहलाती है, ऐसी पत्नी हमेशा ही अपने पति की प्रिय होती है।

प्रियवादिनी से तात्पर्य है मीठा बोलने वाली पत्नी, आज के जमाने में जहां स्वतंत्र स्वभाव और तेज-तरार बोलने वाली पत्नियां भी है, जो नहीं जानती कि किस समय किस से कैसे बात करनी चाहियें, इसलिए गरुण पुराण में दिए गए निर्देशों के अनुसार अपने पति से सदैव संयमित भाषा में बात करने वाली, धीरे-धीरे व प्रेमपूर्वक बोलने वाली पत्नी ही गुणी पत्नी होती है।

पत्नी द्वारा इस प्रकार से बात करने पर पति भी उसकी बात को ध्यान से सुनता है, व उसके इच्छाओं को पूरा करने की कोशिश करता है, परंतु केवल पति ही नहीं, घर के अन्य सभी सदस्यों या फिर परिवार से जुड़े सभी लोगों से भी संयम से बात करने वाली स्त्री एक गुणी पत्नी कहलाती है, ऐसी स्त्री जिस घर में हो वहां कलह और दुर्भाग्य कबीनहीं आता।

पतिपरायणा यानी पति की हर बात मानने वाली पत्नी भी गरुण पुराण के अनुसार एक गुणी पत्नी होती है, जो पत्नी अपने पति को ही सब कुछ मानती हो, उसे देवता के समान मानती हो तथा कभी भी अपने पति के बारे में बुरा ना सोचती हो वह पत्नी गुणी है, विवाह के बाद एक स्त्री ना केवल एक पुरुष की पत्नी बनकर नये घर में प्रवेश करती है, वरन् वह उस नये घर की बहु भी कहलाती है, उस घर के लोगों और संस्कारों से उसका एक गहरा रिश्ता बन जाता है।

इसलिए शादी के बाद नए लोगों से जुड़े रीति-रिवाज को स्वीकारना ही स्त्री की जिम्मेदारी है, इसके अलावा एक पत्नी को एक विशेष प्रकार के धर्म का भी पालन करना होता है, विवाह के पश्चात उसका सबसे पहला धर्म होता है कि वह अपने पति व परिवार के हित में सोचे, व ऐसा कोई काम न करे जिससे पति या परिवार का अहित हो।

गरुण पुराण के अनुसार जो पत्नी प्रतिदिन स्नान कर पति के लिए सजती-संवरती है, कम बोलती है, तथा सभी मंगल चिह्नों से युक्त है, जो निरंतर अपने धर्म का पालन करती है तथा अपने पति का ही हीत सोचती है, उसे ही सच्चे अर्थों में पत्नी मानना चाहियें, जिसकी पत्नी में यह सभी गुण हों, उसे स्वयं को देवराज इंद्र ही समझना चाहियें।

जय श्री राम!
जय महादेव

सोमवार, 21 दिसंबर 2020

भगवान विष्णु का हयग्रीव अवतार

                           


एक समय की बात है। हयग्रीव नाम का एक परम पराक्रमी दैत्य हुआ। उसने सरस्वती नदी के तट पर जाकर भगवती महामाया की प्रसन्नता के लिए बड़ी कठोर तपस्या की। वह बहुत दिनों तक बिना कुछ खाए भगवती के मायाबीज एकाक्षर महामंत्र का जाप करता रहा। उसकी इंद्रियां उसके वश में हो चुकी थीं।

सभी भोगों का उसने त्याग कर दिया था। उसकी कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती ने उसे तामसी शक्ति के रूप में दर्शन दिया। भगवती महामाया ने उससे कहा, ‘‘महाभाग! तुम्हारी तपस्या सफल हुई। मैं तुम पर परम प्रसन्न हूं। तुम्हारी जो भी इच्छा हो मैं उसे पूर्ण करने के लिए तैयार हूं। वत्स वर मांगो।’’ भगवती की दया और प्रेम से ओत-प्रोत वाणी सुनकर हयग्रीव की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसके नेत्र आनंद के अश्रुओं से भर गए। उसने भगवती की स्तुति करते हुए कहा, ‘‘कल्याणमयी देवि! आपको नमस्कार है। आप महामाया हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार करना आपका स्वाभाविक गुण है। आपकी कृपा से कुछ भी असंभव नहीं है। यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अमर होने का वरदान देने की कृपा करें।

देवी ने कहा, ‘‘दैत्य राज! संसार में जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। प्रकृति के इस विधान से कोई नहीं बच सकता। किसी का सदा के लिए अमर होना असंभव है। अमर देवताओं को भी पुण्य समाप्त होने पर मृत्यु लोक में जाना पड़ता है। अत: तुम अमरत्व के अतिरिक्त कोई और वर मांगो।’’ हयग्रीव बोला, ‘‘अच्छा तो हयग्रीव के हाथों ही मेरी मृत्यु हो। दूसरे मुझे न मार सकें। मेरे मन की यही अभिलाषा है। आप उसे पूर्ण करने की कृपा करें।’’ ‘ऐसा ही हो’। यह कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गईं। हयग्रीव असीम आनंद का अनुभव करते हुए अपने घर चला गया। वह दुष्ट देवी के वर के प्रभाव से अजेय हो गया। त्रिलोकी में कोई भी ऐसा नहीं था, जो उस दुष्ट को मार सके। उसने ब्रह्मा जी से वेदों को छीन लिया और देवताओं तथा मुनियों को सताने लगा।

यज्ञादि कर्म बंद हो गए और सृष्टि की व्यवस्था बिगडऩे लगी। ब्रह्मादि देवता भगवान विष्णु के पास गए, किन्तु वे योगनिद्रा में निमग्र थे। उनके धनुष की डोरी चढ़ी हुई थी। ब्रह्मा जी ने उनको जगाने के लिए वम्री नामक एक कीड़ा उत्पन्न किया। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से उसने धनुष की प्रत्यंचा काट दी। उस समय बड़ा भयंकर शब्द हुआ और भगवान विष्णु का मस्तक कटकर अदृश्य हो गया। सिर रहित भगवान के धड़ को देखकर देवताओं के दुख की सीमा न रही। सभी लोगों ने इस विचित्र घटना को देखकर भगवती की स्तुति की। भगवती प्रकट हुई। उन्होंने कहा, ‘‘देवताओ चिंता मत करो।

मेरी कृपा से तुम्हारा मंगल ही होगा। ब्रह्मा जी एक घोड़े का मस्तक काटकर भगवान के धड़ से जोड़ दें। इससे भगवान का हयग्रीवावतार होगा। वे उसी रूप में दुष्ट हयग्रीव दैत्य का वध करेंगे।’’ ऐसा कह कर भगवती अंतर्ध्यान हो गई। भगवती के कथनानुसार उसी क्षण ब्रह्मा जी ने एक घोड़े का मस्तक उतारकर भगवान के धड़ से जोड़ दिया। भगवती के कृपा प्रसाद से उसी क्षण भगवान विष्णु का हयग्रीवावतार हो गया। फिर भगवान का हयग्रीव दैत्य से भयानक युद्ध हुआ। अंत में भगवान के हाथों हयग्रीव की मृत्यु हुई। हयग्रीव को मारकर भगवान ने वेदों को ब्रह्मा जी को पुन: समर्पित कर दिया और देवताओं तथा मुनियों का संकट निवारण किया।

सोमवार, 14 दिसंबर 2020

खाटू श्याम बाबा की कहानी




राजस्थान के सीकर जिले में श्री खाटू श्याम जी का सुप्रसिद्ध मंदिर है. वैसे तो खाटू श्याम बाबा के भक्तों की कोई गिनती नहीं लेकिन इनमें खासकर वैश्य, मारवाड़ी जैसे व्यवसायी वर्ग अधिक संख्या में है. श्याम बाबा कौन थे, 

उनके जन्म और जीवन चरित्र के बारे में जानते हैं इस लेख में.

खाटू श्याम बाबा कौन हैं?


खाटू श्याम जी का असली नाम बर्बरीक है. महाभारत की एक कहानी के अनुसार बर्बरीक का सिर राजस्थान प्रदेश के खाटू नगर में दफना दिया था. इसीलिए बर्बरीक जी का नाम खाटू श्याम बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुआ. वर्तमान में खाटूनगर सीकर जिले के नाम से जाना जाता है. खाटू श्याम बाबा जी कलियुग में श्री कृष्ण भगवान के अवतार के रूप में माने जाते हैं.


खाटू श्याम बाबा की कहानी.

श्याम बाबा घटोत्कच और नागकन्या नाग कन्या मौरवी के पुत्र हैं. पांचों पांडवों में सर्वाधिक बलशाली भीम और उनकी पत्नी हिडिम्बा बर्बरीक के दादा दादी थे. कहा जाता है कि जन्म के समय बर्बरीक के बाल बब्बर शेर के समान थे, अतः उनका नाम बर्बरीक रखा गया. बर्बरीक का नाम श्याम बाबा कैसे पड़ा, आइये इसकी कहानी जानते हैं.


श्री खाटू श्याम बाबा जी

बर्बरीक बचपन में एक वीर और तेजस्वी बालक थे. बर्बरीक ने भगवान श्री कृष्ण और अपनी माँ मौरवी से युद्धकला, कौशल सीखकर निपुणता प्राप्त कर ली थी. बर्बरीक ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, जिसके आशीर्वादस्वरुप भगवान ने शिव ने बर्बरीक को 3 चमत्कारी बाण प्रदान किए. इसी कारणवश बर्बरीक का नाम तीन बाणधारी के रूप में भी प्रसिद्ध है. भगवान अग्निदेव ने बर्बरीक को एक दिव्य धनुष दिया था, जिससे वो तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने में समर्थ थे.

जब कौरवों-पांडवों का युद्ध होने का सूचना बर्बरीक को मिली तो उन्होंने भी युद्ध में भाग लेने का निर्णय लिया. बर्बरीक अपनी माँ का आशीर्वाद लिए और उन्हें हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन देकर निकल पड़े. इसी वचन के कारण हारे का सहारा बाबा श्याम हमारा यह बात प्रसिद्ध हुई.

जब बर्बरीक जा रहे थे तो उन्हें मार्ग में एक ब्राह्मण मिला. यह ब्राह्मण कोई और नहीं, भगवान श्री कृष्ण थे जोकि बर्बरीक की परीक्षा लेना चाहते थे. ब्राह्मण बने श्री कृष्ण ने बर्बरीक से प्रश्न किया कि वो मात्र 3 बाण लेकर लड़ने को जा रहा है ? मात्र 3 बाण से कोई युद्ध कैसे लड़ सकता है. बर्बरीक ने कहा कि उनका एक ही बाण शत्रु सेना को समाप्त करने में सक्षम है और इसके बाद भी वह तीर नष्ट न होकर वापस उनके तरकश में आ जायेगा. अतः अगर तीनों तीर के उपयोग से तो सम्पूर्ण जगत का विनाश किया जा सकता है.

ब्राह्मण ने बर्बरीक से एक पीपल के वृक्ष की ओर इशारा करके कहा कि वो एक बाण से पेड़ के सारे पत्तों को भेदकर दिखाए. बर्बरीक ने भगवान का ध्यान कर एक बाण छोड़ दिया. उस बाण ने पीपल के सारे पत्तों को छेद दिया और उसके बाद बाण ब्राह्मण बने कृष्ण के पैर के चारों तरफ घूमने लगा. असल में कृष्ण ने एक पत्ता अपने पैर के नीचे छिपा दिया था. बर्बरीक समझ गये कि तीर उसी पत्ते को भेदने के लिए ब्राह्मण के पैर के चक्कर लगा रहा है. बर्बरीक बोले – हे ब्राह्मण अपना पैर हटा लो, नहीं तो ये आपके पैर को वेध देगा.

श्री कृष्ण बर्बरीक के पराक्रम से प्रसन्न हुए. उन्होंने पूंछा कि बर्बरीक किस पक्ष की तरफ से युद्ध करेंगे. बर्बरीक बोले कि उन्होंने लड़ने के लिए कोई पक्ष निर्धारित किया है, वो तो बस अपने वचन अनुसार हारे हुए पक्ष की ओर से लड़ेंगे. श्री कृष्ण ये सुनकर विचारमग्न हो गये क्योकि बर्बरीक के इस वचन के बारे में कौरव जानते थे. कौरवों ने योजना बनाई थी कि युद्ध के पहले दिन वो कम सेना के साथ युद्ध करेंगे. इससे कौरव युद्ध में हराने लगेंगे, जिसके कारण बर्बरीक कौरवों की तरफ से लड़ने आ जायेंगे. अगर बर्बरीक कौरवों की तरफ से लड़ेंगे तो उनके चमत्कारी बाण पांडवों का नाश कर देंगे.

कौरवों की योजना विफल करने के लिए ब्राह्मण बने कृष्ण ने बर्बरीक से एक दान देने का वचन माँगा. बर्बरीक ने दान देने का वचन दे दिया. अब ब्राह्मण ने बर्बरीक से कहा कि उसे दान में बर्बरीक का सिर चाहिए. इस अनोखे दान की मांग सुनकर बर्बरीक आश्चर्यचकित हुए और समझ गये कि यह ब्राह्मण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है. बर्बरीक ने प्रार्थना कि वो दिए गये वचन अनुसार अपने शीश का दान अवश्य करेंगे, लेकिन पहले ब्राह्मणदेव अपने वास्तविक रूप में प्रकट हों.

भगवान कृष्ण अपने असली रूप में प्रकट हुए. बर्बरीक बोले कि हे देव मैं अपना शीश देने के लिए बचनबद्ध हूँ लेकिन मेरी युद्ध अपनी आँखों से देखने की इच्छा है. श्री कृष्ण बर्बरीक ने बर्बरीक की वचनबद्धता से प्रसन्न होकर उसकी इच्छा पूरी करने का आशीर्वाद दिया. बर्बरीक ने अपना शीश काटकर कृष्ण को दे दिया. श्री कृष्ण ने बर्बरीक के सिर को 14 देवियों के द्वारा अमृत से सींचकर युद्धभूमि के पास एक पहाड़ी पर स्थित कर दिया, जहाँ से बर्बरीक युद्ध का दृश्य देख सकें. इसके पश्चात कृष्ण ने बर्बरीक के धड़ का शास्त्रोक्त विधि से अंतिम संस्कार कर दिया.

महाभारत का महान युद्ध समाप्त हुआ और पांडव विजयी हुए. विजय के बाद पांडवों में यह बहस होने लगी कि इस विजय का श्रेय किस योद्धा को जाता है. श्री कृष्ण ने कहा – चूंकि बर्बरीक इस युद्ध के साक्षी रहे हैं अतः इस प्रश्न का उत्तर उन्ही से जानना चाहिए. तब परमवीर बर्बरीक ने कहा कि इस युद्ध की विजय का श्रेय एकमात्र श्री कृष्ण को जाता है, क्योकि यह सब कुछ श्री कृष्ण की उत्कृष्ट युद्धनीति के कारण ही सम्भव हुआ. विजय के पीछे सबकुछ श्री कृष्ण की ही माया थी.

बर्बरीक के इस सत्य वचन से देवताओं ने बर्बरीक पर पुष्पों की वर्षा की और उनके गुणगान गाने लगे. श्री कृष्ण वीर बर्बरीक की महानता से अति प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा – हे वीर बर्बरीक आप महान है. मेरे आशीर्वाद स्वरुप आज से आप मेरे नाम श्याम से प्रसिद्ध होओगे. कलियुग में आप कृष्णअवतार रूप में पूजे जायेंगे और अपने भक्तों के मनोरथ पूर्ण करेंगे.

भगवान श्री कृष्ण का वचन सिद्ध हुआ और आज हम देखते भी हैं कि भगवान श्री खाटू श्याम बाबा जी अपने भक्तों पर निरंतर अपनी कृपा बनाये रखते हैं. बाबा श्याम अपने वचन अनुसार हारे का सहारा बनते हैं. इसीलिए जो सारी दुनिया से हारा सताया गया होता है वो भी अगर सच्चे मन से बाबा श्याम के नामों का सच्चे मन से नाम ले और स्मरण करे तो उसका कल्याण अवश्य ही होता है. श्री खाटू श्याम बाबा की महिमा अपरम्पार है, सश्रद्धा विनती है कि बाबा श्याम इसी प्रकार अपने भक्तों पर अपनी कृपा बनाये रखें.

सोमवार, 7 दिसंबर 2020

गणेश नामवली-108 - नाम के अर्थ

 


1. बालगणपति: सबसे प्रिय बालक

2. भालचन्द्र: जिसके मस्तक पर चंद्रमा हो

3. बुद्धिनाथ: बुद्धि के भगवान

4. धूम्रवर्ण: पुं० उक्त प्रकार का रंग

5. एकाक्षर: एकल अक्षर

6. एकदन्त: एक दांत वाले

7. गजकर्ण: हाथी की तरह आंखें वाला

8. गजानन: हाथी के मुँख वाले भगवान

9. गजनान: हाथी के मुख वाले भगवान

10. गजवक्र: हाथी की सूंड वाला

11. गजवक्त्र: जिसका हाथी की तरह मुँह है

12. गणाध्यक्ष: सभी जणों का मालिक

13. गणपति: सभी गणों के मालिक

14. गौरीसुत: माता गौरी का बेटा

15. लम्बकर्ण: बड़े कान वाले देव

16. लम्बोदर: बड़े पेट वाले

17. महाबल: अत्यधिक बलशाली वाले प्रभु

18. महागणपति: देवातिदेव

19. महेश्वर: सारे ब्रह्मांड के भगवान

20. मंगलमूर्त्ति: सभी शुभ कार्य के देव

21. मूषकवाहन: जिसका सारथी मूषक है

22. निदीश्वरम: धन और निधि के दाता

23. प्रथमेश्वर: सब के बीच प्रथम आने वाला

24. शूपकर्ण: बड़े कान वाले देव

25. शुभम: सभी शुभ कार्यों के प्रभु

26. सिद्धिदाता: इच्छाओं और अवसरों के स्वामी

27. सिद्दिविनायक: सफलता के स्वामी

28. सुरेश्वरम: देवों के देव

29. वक्रतुण्ड: घुमावदार सूंड

30. अखूरथ: जिसका सारथी मूषक है

31. अलम्पता: अनन्त देव

32. अमित: अतुलनीय प्रभु

33. अनन्तचिदरुपम: अनंत और व्यक्ति चेतना

34. अवनीश: पूरे विश्व के प्रभु

35. अविघ्न: बाधाओं को हरने वाले

36. भीम: विशाल

37. भूपति: धरती के मालिक

38. भुवनपति: देवों के देव

39. बुद्धिप्रिय: ज्ञान के दाता

40. बुद्धिविधाता: बुद्धि के मालिक

41. चतुर्भुज: चार भुजाओं वाले

42. देवादेव: सभी भगवान में सर्वोपरी

43. देवांतकनाशकारी: बुराइयों और असुरों के विनाशक

44. देवव्रत: सबकी तपस्या स्वीकार करने वाले

45. देवेन्द्राशिक: सभी देवताओं की रक्षा करने वाले

46. धार्मिक: दान देने वाला

47. दूर्जा: अपराजित देव

48. द्वैमातुर: दो माताओं वाले

49. एकदंष्ट्र: एक दांत वाले

50. ईशानपुत्र: भगवान शिव के बेटे

51. गदाधर: जिसका हथियार गदा है

52. गणाध्यक्षिण: सभी पिंडों के नेता

53. गुणिन: जो सभी गुणों क ज्ञानी

54. हरिद्र: स्वर्ण के रंग वाला

55. हेरम्ब: माँ का प्रिय पुत्र

56. कपिल: पीले भूरे रंग वाला

57. कवीश: कवियों के स्वामी

58. कीर्त्ति: यश के स्वामी

59. कृपाकर: कृपा करने वाले

60. कृष्णपिंगाश: पीली भूरी आंखवाले

61. क्षेमंकरी: माफी प्रदान करने वाला

62. क्षिप्रा: आराधना के योग्य

63. मनोमय: दिल जीतने वाले

64. मृत्युंजय: मौत को हरने वाले

65. मूढ़ाकरम: जिन्में खुशी का वास होता है

66. मुक्तिदायी: शाश्वत आनंद के दाता

67. नादप्रतिष्ठित: जिसे संगीत से प्यार हो

68. नमस्थेतु: सभी बुराइयों और पापों पर विजय प्राप्त करने वाले

69. नन्दन: भगवान शिव का बेटा

70. सिद्धांथ: सफलता और उपलब्धियों की गुरु

71. पीताम्बर: पीले वस्त्र धारण करने वाला

72. प्रमोद: आनंद

73. पुरुष: अद्भुत व्यक्तित्व

74. रक्त: लाल रंग के शरीर वाला

75. रुद्रप्रिय: भगवान शिव के चहीते

76. सर्वदेवात्मन: सभी स्वर्गीय प्रसाद के स्वीकार्ता

77. सर्वसिद्धांत: कौशल और बुद्धि के दाता

78. सर्वात्मन: ब्रह्मांड की रक्षा करने वाला

79. ओमकार: ओम के आकार वाला

80. शशिवर्णम: जिसका रंग चंद्रमा को भाता हो

81. शुभगुणकानन: जो सभी गुण के गुरु हैं

82. श्वेता: जो सफेद रंग के रूप में शुद्ध है

83. सिद्धिप्रिय: इच्छापूर्ति वाले

84. स्कन्दपूर्वज: भगवान कार्तिकेय के भाई

85. सुमुख: शुभ मुख वाले

86. स्वरुप: सौंदर्य के प्रेमी

87. तरुण: जिसकी कोई आयु न हो

88. उद्दण्ड: शरारती

89. उमापुत्र: पार्वती के बेटे

90. वरगणपति: अवसरों के स्वामी

91. वरप्रद: इच्छाओं और अवसरों के अनुदाता

92. वरदविनायक: सफलता के स्वामी

93. वीरगणपति: वीर प्रभु

94. विद्यावारिधि: बुद्धि की देव

95. विघ्नहर: बाधाओं को दूर करने वाले

96. विघ्नहर्त्ता: बुद्धि की देव

97. विघ्नविनाशन: बाधाओं का अंत करने वाले

98. विघ्नराज: सभी बाधाओं के मालिक

99. विघ्नराजेन्द्र: सभी बाधाओं के भगवान

100. विघ्नविनाशाय: सभी बाधाओं का नाश करने वाला

101. विघ्नेश्वर: सभी बाधाओं के हरने वाले भगवान

102. विकट: अत्यंत विशाल

103. विनायक: सब का भगवान

104. विश्वमुख: ब्रह्मांड के गुरु

105. विश्वराजा: संसार के स्वामी

105. यज्ञकाय: सभी पवित्र और बलि को स्वीकार करने वाला

106. यशस्कर: प्रसिद्धि और भाग्य के स्वामी

107. यशस्विन: सबसे प्यारे और लोकप्रिय देव

108. योगाधिप: ध्यान के प्रभु


दत्तात्रेय अवतार




धर्म ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है-

एक बार माता लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती को अपने पातिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान ने इनका अंहकार नष्ट करने के लिए लीला रची। उसके अनुसार एक दिन नारदजी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों को बारी-बारी जाकर कहा कि ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूइया के सामने आपका सतीत्व कुछ भी नहीं। तीनों देवियों ने यह बात अपने स्वामियों को बताई और उनसे कहा कि वे अनुसूइया के पातिव्रत्य की परीक्षा लें।

तब भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा साधु वेश बनाकर अत्रि मुनि के आश्रम आए। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। तीनों ने देवी अनुसूइया से भिक्षा मांगी मगर यह भी कहा कि आपको निर्वस्त्र होकर हमें भिक्षा देनी होगी। अनुसूइया पहले तो यह सुनकर चौंक गई, लेकिन फिर साधुओं का अपमान न हो इस डर से उन्होंने अपने पति का स्मरण किया और बोला कि यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ:-छ: मास के शिशु हो जाएं।

ऐसा बोलते ही त्रिदेव शिशु होकर रोने लगे। तब अनुसूइया ने माता बनकर उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और पालने में झूलाने लगीं। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई। तीनों देवियां अनुसूइया के पास आईं और क्षमा मांगी। तब देवी अनुसूइया ने त्रिदेव को अपने पूर्व रूप में कर दिया। प्रसन्न होकर त्रिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि हम तीनों अपने अंश से तुम्हारे गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ।


गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

अग्नि सूक्त

 



अग्नि सूक्त" ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है, इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र है, इसके देवता "अग्नि" हैं, इसका छन्द "गायत्री-छन्द" है ।इस सूक्त का स्वर "षड्जकृ" है ।

गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं । इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का छन्द होता है।.


अग्नि-सूक्त में कुल नौ मन्त्र है ।

संख्या की दृष्टि से सम्पूर्ण वैदिक संस्कृत में इऩ्द्र के बाद अग्नि  का ही स्थान है , किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है ।

स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है । सामूहिक रूप से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है ।अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है । इनका पृथिवीलोक में प्रमुख स्थान है
अग्नि का स्वरूपअग्नि शब्द "अगि गतौ" धातु से बना है । गति के तीन अर्थ हैंःज्ञान, गमन और प्राप्ति ।

इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है ।
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता हैः---"अग्निर्वै सर्वा देवता ।"अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है । अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा हैः---"अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा ।"


आचार्य यास्क ने अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति दिखाई हैः---

(क) अग्रणीर्भवतीति अग्निः ।" मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
(ख) "अयं यज्ञेषु प्रणीयते ।" यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(ग) "अङ्गं नयति सन्नममानः ।" अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।
(घ) "अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः । न क्नोपयति न स्नेहयति ।" निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं ।
(ङ) त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।" शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से "अ", अञ्जू से या दह् से "ग" और णीञ् से "नी" लेकर बना है ।

कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है । याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैंःगार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि । "गार्हपत्याग्नि" सदैव प्रज्वलित रहती है । शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता ।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है ।


अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है
(1.) अग्नि का रूप
अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है---"घृतपृष्ठ"।
इसका मुख घृत से युक्त हैः--"घृतमुख" । इसकी जिह्वा द्युतिमान् है । दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान है । केश और दाढी भूरे रंग के हैं । जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है । इसके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं । इसके नेत्र घृतयुक्त हैंः--"घृतम् में चक्षुः ।" इसका रथ युनहरा और चमकदार है । उसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं । अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं । वह अपने उपासकों का सदैव सहायक होता है ।

(2.) अग्नि का जन्म
अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है । यह अपने आप से उत्पन्न होता है । अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होता है । इसके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है । इसका अभिप्राय है कि अग्नि का जन्म अग्नि से ही हुआ है । प्रकृति के मूल में अग्नि है । ऋग्वेद के "पुरुष-सूक्त" में अग्नि की उत्पत्ति "विराट्-पुरुष" के मुख से बताई गई हैः--"मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च ।"

(3.) भोजन
अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है । "आज्य" उसका प्रिय पेय पदार्थ है । यह यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करता है ।

(4.) अग्नि कविक्रतु है
अग्नि कवि तुल्य है । वह अपना कार्य विचारपूर्वक करता है । कवि का अर्थ हैः--क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी । वह ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी है । उसमें अन्तर्दृष्टि है । ऐसा व्यक्ति ही सुखी होता हैः---"अग्निर्होता कविक्रतुः ।"

(5.) गमन
अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है । विद्युत् रथ पर सवार होकर चलता है । जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है । वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है , जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है ।

(6.) अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक है :
अग्नि रोग-शोक , पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं । वह व्यक्ति पराजित नहीं होता ---"देवम् अमीवचातनम् ।"  और "प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः ।"

(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :
यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है । उसे यज्ञ का "ऋत्विक्" कहा जाता है । वह "पुरोहित" और "होता" है । वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता हैः---"अग्निमीऴे पुरोहितम् ।"

(8.) देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध
अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं । मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि अपनी ऊर्जाएँ फैलाए हुए हैं । अश्विनी प्राण-अपान वायु है । इससे ही मानव जीवन चलता है इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं । अग्नि वायु का मित्र है । जब अग्नि प्रदीप्त होकर जलती है, तब वायु उसका साथ देता हैः---"आदस्य वातो अनु वाति शोचिः ।"

(9.) मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :
अग्नि मनुष्य का रक्षक पिता हैः---"स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव ।" (ऋग्वेदः--1.1.9) उसे दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है।

(10.) पशुओं से तुलना :
यह आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होती है । यह हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहती है । यह उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करता हैः----"हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः ।"

(11.) अग्नि अतिथि है
अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहता है और सत्यनिष्ठा से रक्षा करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी हैं, वह उसकी रक्षा करता है । यह अतिथि के समान इस शरीर में रहता है, जब उसकी इच्छा होती है, प्रस्थान कर जाता हैः--"अतिथिं मानुषाणाम् ।"

(12.) अग्नि अमृत है
संसार नश्वर है । इसमें अग्नि ही अजर-अमर है । यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है । अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है । जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता हैः---"विश्वास्यामृत भोजन ।"

(13.) अग्नि के तीन शरीर :
अग्नि के तीन शरीर हैः--- स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर । हमारा अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला शरीर स्थूल शरीर है । मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है । आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर हैः---"तिस्र उ ते तन्वो देववाता ।"


अग्नि-सूक्त के मन्त्र :
(1.) ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ।।
(2.) ॐ अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।।
(3.) ॐ अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ।।
(4.) ॐ अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ।।
(5.) ॐ अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरागमत् ।।
(6.) ॐ यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।।
(7.) ॐ उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
मनो भरन्त एमसि ।।
(8.) ॐ राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ।।
(9.) ॐ स नः पितेव सूनवेSग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ।।

१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥
हम अग्निदेव की स्तुति करते है (कैसे अग्निदेव?)
जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ),
देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है

२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति
.
जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥

३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्
.
(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥

४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति

हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥

५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत्

हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥

६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर:
हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥

७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥

८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥

९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥
हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥

मंगलवार, 17 नवंबर 2020

पंचमुखी क्यो हुए हनुमान एक अद्भुत की कथा

 


लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया. रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया.
रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई. रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं.
लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी. रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं.
रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे. यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी. युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए.

विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम-लक्ष्मण को सौंप दिया जाए. साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे.

राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी. हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया. कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था.
अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे. ऐसे में उन्होंने एक चाल चली. महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया.

राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे. दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए.
विभीषण लगातार सतर्क थे. उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी.
विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें. लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये.

निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना. कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है. अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे. बस सारा युद्ध समाप्त.

कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं. हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे.
हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला. इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था. उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया.

द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है. दोनों में लड़ाई ठन गयी. हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला.
दोनों ही बड़े बलशाली थे. दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका. आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके.

हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो. तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है. उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं. मेरा नाम है मकरध्वज.
हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए. वह वीर की बात सुनने लगे. मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे. उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा.

उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था. वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई. उसी से मेरा जन्म हुआ है. हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं.
मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया. उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो.
मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं. बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं. उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें.

हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये. हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?

हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं. मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं.यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं. आप अपने प्रयत्न करो. सफल रहोगे.
मंदिर में पांच दीप जल रहे थे. अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा.

इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा. अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे. हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा. जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा.

हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो. झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा. अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया. दोनों बंधन में बेहोश थे.

हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया. अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था.
अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.

पर यह युद्ध आसान न था. अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते. इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है.
अहिरावण उसे बलात हर लाया है. वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी. उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये. आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे.

मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे. नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे.
अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है. मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं. मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती. लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी.

हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा.
चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं. आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी.

हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं. अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं. वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे. मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?

फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए. यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा.

जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी. उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.
चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया. मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे.

भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी. वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी. भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया.
मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था. अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया थ कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे.

ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं. दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं.
उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं. इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं. इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा.

हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे. मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था. तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया. वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते.
जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए. उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा.

हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे.
भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया. इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा.
भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था. यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए.

फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया. देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा.

हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख.
उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए. अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी. हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये.

इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए. दोनो भाई होश में आ गए. चित्रसेना भी वहां आ गई थी. हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए.
पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी. अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था. वह आपसे विवाह करना चाहती है. कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी.
श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं. अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है. इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते.

कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए. परंतु आप चिंता न करें. हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं.
हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये. वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली.
हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया. श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी.

पलंग धराशायी हो गया. चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी. हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता. तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं.

चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है. उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है. मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है. मैं हनुमान को श्राप दूंगी.
चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ. वह इस पूरे नाटक को समझ गये. उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है. इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा. उन्हें क्षमा कर दो.

क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी. श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा. इससे वह मान गयी.
हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था. भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया.
श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये।

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

शिव 108 रूपों और नाम का अर्थ

 




1. शिव - कल्याण स्वरूप
2. महेश्वर - माया के अधीश्वर
3. शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले
4. पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले 
5. शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले 
6. वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले 
7. विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले 
8. कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले 
9. नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले 
10. शंकर - सबका कल्याण करने वाले 
11. शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले 
12. खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले 
13. विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी 
14. शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले 
15. अंबिकानाथ - भगवति के पति 
16. श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले 
17. भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले 
18. भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले 
19. शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले 
20. त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी 
21. शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले 
22. शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय 
23. उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले 
24. कपाली - कपाल धारण करने वाले 
25. कामारी - कामदेव के शत्रु 
26. अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले 
27. गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले 
28. ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले 
29. कालकाल - काल के भी काल 
30. कृपानिधि - करूणा की खान 
31. भीम - भयंकर रूप वाले 
32. परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले 
33. मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले 
34. जटाधर - जटा रखने वाले 
35. कैलाशवासी - कैलाश के निवासी 
36. कवची - कवच धारण करने वाले 
37. कठोर - अत्यन्त मज़बूत देह वाले 
38. त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले 
39. वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले 
40. वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले 
41. भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले 
42. सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले 
43. स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले 
44. त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले 
45. अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है 
46. सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले 
47. परमात्मा - सबका अपना आपा 
48. सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले 
49. हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले 
50. यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले 
51. सोम - उमा के सहित रूप वाले 
52. पंचवक्त्र - पांच मुख वाले 
53. सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले 
54. विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर 
55. वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले 
56. गणनाथ - गणों के स्वामी 
57. प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले 
58. हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले 
 59. दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले 
60. गिरीश - पहाड़ों के मालिक 
61. गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले 
62. अनघ - पापरहित 
63. भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले 
64. भर्ग - पापों को भूंज देने वाले 
65. गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले 
66. गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी 
67. कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले 
68. पुराराति - पुरों का नाश करने वाले 
69. भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न 
70. प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति 
71. मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले 
72. सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले 
73. जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले 
74. जगद्गुरु - जगत् के गुरु 
75. व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले 
76. महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता 
77. चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले 
78. रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले 
79. भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी 
80. स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले 
81. अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले 
82. दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले 
83. अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले 
84. अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले 
85. सात्त्विक - सत्व गुण वाले 
86. शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले 
87. शाश्वत - नित्य रहने वाले 
88. खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले 
89. अज - जन्म रहित 
90. पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले 
91. मृड - सुखस्वरूप वाले 
92. पशुपति - पशुओं के मालिक 
93. देव - स्वयं प्रकाश रूप 
94. महादेव - देवों के भी देव 
95. अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले 
96. हरि - विष्णुस्वरूप 
97. पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले 
98. अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले 
99. दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले 
100. हर - पापों व तापों को हरने वाले 
101. भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले 
102. अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले 
103. सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले 
104. सहस्रपाद - अनंत पैर वाले 
105. अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले 
106. अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित 
107. तारक - सबको तारने वाला 
108. परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर

बुधवार, 11 नवंबर 2020

भैया दूज के साथ ही होती है चित्रगुप्त पूजा

                                  


दीपावली के दूसरे दिन भाई दूज मनाया जाता है। इस दिन यमराज की बहन यमुनाजी ने अपने उन्हें तिलक करके भोजन कराया था इसलिए इस दिन को यम द्वीतिया भी कहा जाता है। इस दिन बहनें भाई के मस्तक पर टीका लगाकर उसकी लंबी उम्र की मनोकामना करती है। माना जाता है इस दिन भाई के मस्तक पर टीका लगाने झसे भाई यमराज के कष्ट से बच जाता है। कहा जाता है इस दिन भाई अपनी बहन को यमुना स्नान कराएं। इसके बाद भाई को बहन तिलक करें और भोजन कराये। जो भाई और बहन यम द्वीतिया के दिन इस प्रकार दूज पूजन के बाद तिलक की रस्म पूरी करने के बाद भोजन करते हैं वे यम भय से मुक्त जो जाते हैं, उन्हें मृत्यु के पश्चात स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है।


भैया दूज की एक पौराणिक कथा है।

भगवान सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा की दो संतानें थीं। उनमें पुत्र का नाम यमराज और पुत्री का नाम यमुना था। संज्ञा अपने पति सूर्य की उद्दीप्त किरणों को सहन नहीं कर सकने के कारण अपनी ही प्रतिकृति छाया बनाकर तपस्या करने चली गयीं तथा छाया सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा बनकर रहने लगी। इसी से ताप्ती नदी तथा शनिश्चर का जन्म हुआ। इसी छाया से सदा युवा रहने वाले अश्विनी कुमारों का भी जन्म हुआ है, जो देवताओं के वैद्य माने जाते हैं ।छाया का यम तथा यमुना के साथ व्यवहार में अंतर आ गया। इससे व्यथित होकर यम ने अपनी नगरी यमपुरी बसाई। यमुना अपने भाई यम को यमपुरी में पापियों को दंड देते देख दु:खी होती, इसलिए वह गोलोक चली गई।

समय व्यतीत होता रहा। तब काफी सालों के बाद अचानक एक दिन यम को अपनी बहन यमुना की याद आई। यम ने अपने दूतों को यमुना का पता लगाने के लिए भेजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली। फिर यम स्वयं गोलोक गए जहां यमुनाजी की उनसे भेंट हुई। इतने दिनों बाद यमुना अपने भाई से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई। यमुना अपने भाई यमराज से बड़ा स्नेह करती हैं। वह उनसे बराबर निवेदन करतीं कि वह उनके घर आकर भोजन करें, लेकिन यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात टाल जाते थे।

कार्तिक शुक्ल द्वीतिया को यमुना ने अपने भाई यमराज को भोजन करने के लिए बुलाया। बहन के घर जाते समय यमराज ने नरक में निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया।भाई को देखते ही यमुना ने हर्षविभोर होकर भाई का स्वागत किया और स्वादिष्ट भोजन करवाया। इससे भाई यम ने प्रसन्न होकर बहन से वरदान मांगने के लिए कहा। तब यमुना ने वर मांगा कि- 'हे भैया, मैं चाहती हूं कि जो भी मेरे जल में स्नान करे, वह यमपुरी नहीं जाए।' 
यह सुनकर यम चिंतित हो उठे और मन-ही-मन विचार करने लगे कि ऐसे वरदान से तो यमपुरी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

भाई को चिंतित देख, बहन बोली- भैया आप चिंता न करें, मुझे यह वरदान दें कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहां भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाये, उसे आपका भय न रहे। जो लोग आज के दिन बहन के यहां भोजन करें तथा मथुरा नगरी स्थित विश्रामघाट पर स्नान करें, वे यमपुरी नहीं जाएं। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को वरदान दे दिया तथा यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमपुरी चले गये। ।

बहन-भाई मिलन के इस पर्व को अब भाई-दूज के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो भाई आज के दिन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से बहनों के आतिथ्य को स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इस दिन बहन दूज बनाकर भाई को हल्दी, अक्षत रोली का तिलक करे। तिलक करने के बाद भाई को फल, मिठाई खाने के लिए दे। भाई भी अक्षत रोली का तिलक करे। भाई भी बहन को स्वर्ण, वस्त्र, आभूषण तथा द्रव्य देकर प्रसन्न करे। बहन के चरण स्पर्श कर आशीष ले। बहन चाहे छोटी या आयु में बड़ी हो उसके चरण स्पर्श अवश्य करें। भैया दूज के ही दिन चित्रगुप्त पूजा भी होती है। 

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

अहोई अष्टमी व्रत

                                                 


व्रत अहोई आठे के नाम से भी जाना जाता है. यह व्रत कार्तिक मास की अष्टमी तिथि के दिन संतानवती स्त्रियों के द्वारा किया जाता है. अहोई अष्टमी का पर्व मुख्य रुप से अपनी संतान की लम्बी आयु की कामना के लिये किया जाता है. इस पर्व के विषय में एक ध्यान देने योग्य पक्ष यह है कि इस व्रत को उसी वार को किया जाता है. जिस वार को दिपावली हों. इस पर्व के विषय में एक ध्यान देने योग्य पक्ष यह है कि इस व्रत को उसी वार को किया जाता है. जिस वार को दिपावली हो.

अहोई अष्टमी व्रत संक्षिप्त विधि

संतान की शुभता को बनाये रखने के लिये क्योकि यह उपवास किया जाता है. इसलिये इसे केवल माताएं ही करती है. एक मान्यता के अनुसार इस दिन से दीपावली का प्रारम्भ समझा जाता है. अहोई अष्टमी के उपवास को करने वाली माताएं इस दिन प्रात:काल में उठकर, एक कोरे करवे (मिट्टी का बर्तन) में पानी भर कर. माता अहोई की पूजा करती है. पूरे दिन बिना कुछ खाये व्रत किया जाता है. सांय काल में माता को फलों का भोग लगाकर, फिर से पूजन किया जाता है.तथा सांयकाल में तारे दिखाई देने के समय अहोई का पूजन किया जाता है. तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है. और गेरूवे रंग से दीवार पर अहोई मनाई जाती है. जिसका सांयकाल में पूजन किया जाता है. कुछ मीठा बनाकर, माता को भोग लगा कर संतान के हाथ से पानी पीकर व्रत का समापन किया जाता है. अहोई अष्टमी के व्रत की विधि विस्तार में निम्न है.

अहोई अष्टमी व्रत विधि विस्तार से 

अहोई व्रत के दिन व्रत करने वाली माताएं प्रात: उठकर स्नान करे, और पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु व सुखमय जीवन हेतू कामना करती है. और माता अहोई से प्रार्थना करती है, कि हे माता मैं अपनी संतान की उन्नति, शुभता और आयु वृ्द्धि के लिये व्रत कर रही हूं, इस व्रत को पूरा करने की आप मुझे शक्ति दें. यह कर कर व्रत का संकल्प लें. एक मान्यता के अनुसार इस व्रत को करने से संतान की आयु में वृ्द्धि, स्वास्थय और सुख प्राप्त होता है. साथ ही माता पार्वती की पूजा भी इसके साथ-साथ की जाती है. क्योकि माता पार्वती भी संतान की रक्षा करने वाली माता कही गई है.

उपवास करने वाली स्त्रियों को व्रत के दिन क्रोध करने से बचना चाहिए. और उपवास के दिन मन में बुरा विचार लाने से व्रत के पुन्य फलों में कमी होती है. इसके साथ ही व्रत वाले दिन, दिन की अवधि में सोना नहीं चाहिए. अहोई माता की पूजा करने के लिये अहोई माता का चित्र गेरूवे रंग से मनाया जाता है. इस चित्र में माता, सेह और उसके सात पुत्रों को अंकित किया जाता है. संध्या काल में इन चित्रों की पूजा की जाती है.

सायंकाल की पूजा करने के बाद अहोई माता की कथा का श्रवण किया जाता है. इसके पश्चात सास-ससुर और घर में बडों के पैर छुकर आशिर्वाद लिया जाता है. तारे निकलने पर इस व्रत का समापन किया जाता है. तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है. और तारों की आरती उतारी जाती है. इसके पश्चात संतान से जल ग्रहण कर, व्रत का समापन किया जाता है.


अहोई व्रत कथा 


अहोई अष्टमी की व्रत कथा के अनुसार किसी नगर में एक साहूकार रहता था. उसके सात लडके थें. दीपावली आने में केवल सात दिन शेष थें, इसलिये घर की साफ -सफाई के कार्य घर में चल रहे थे, इसी कार्य के लिये साहुकार की पत्नी घर की लीपा-पोती के लिये नदी के पास की खादान से मिट्टी लेने गई. खदान में जिस जगह मिट्टी खोद रही थी, वहीं पर एक सेह की मांद थी. स्त्री की कुदाल लगने से सेह के एक बच्चे की मृ्त्यु हो गई.
यह देख साहूकार की पत्नी को बहुत दु:ख हुआ. शोकाकुल वह अपने घर लौट आई. सेह के श्राप से कुछ दिन बाद उसके बडे बेटे का निधन हो गया. फिर दूसरे बेटे की मृ्त्यु हो गई, और इसी प्रकार तीसरी संतान भी उसकी नहीं रही, एक वर्ष में उसकी सातों संतान मृ्त्यु को प्राप्त हो गई.

अपनी सभी संतानों की मृ्त्यु के कारण वह स्त्री अत्यंत दु:खी रहने लगी. एक दिन उसने रोते हुए अपनी दु:ख भरी कथा अपने आस- पडोस कि महिलाओं को बताई, कि उसने जान-बुझकर को पाप नहीं किया है. अनजाने में उससे  सेह के बच्चे की हत्या हो गई थी. उसके बाद मेरे सातों बेटों की मृ्त्यु हो गई. यह सुनकर पडोस की वृ्द्ध महिला ने उसे दिलासा दिया. और कहा की तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप नष्ट हो गया है.
तुम माता अहोई अष्टमी के दिन माता भगवती की शरण लेकर सेह और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उनकी आराधना कर, क्षमा याचना करों, तुम्हारा कल्याण होगा. ईश्वर की कृपा से तुम्हारा पाप समाप्त हो जायेगा.

साहूकार की पत्नी ने वृ्द्ध महिला की बात मानकार कार्तिक मास की कृ्ष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि का व्रत कर माता अहोई की पूजा की, वह हर वर्ष नियमित रुप से ऎसा करने लगी, समय के साथ उसे सात पुत्रों की प्राप्ति हुई, तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रारम्भ हुई है.


अहोई माता की आरती


जय अहोई माता, जय अहोई माता!
तुमको निसदिन ध्यावत हर विष्णु विधाता। टेक।।
ब्राहमणी, रुद्राणी, कमला तू ही है जगमाता।
सूर्य-चंद्रमा ध्यावत नारद ऋषि गाता।। जय।।
माता रूप निरंजन सुख-सम्पत्ति दाता।।
जो कोई तुमको ध्यावत नित मंगल पाता।। जय।।
तू ही पाताल बसंती, तू ही है शुभदाता।
कर्म-प्रभाव प्रकाशक जगनिधि से त्राता।। जय।।
जिस घर थारो वासा वाहि में गुण आता।।
कर न सके सोई कर ले मन नहीं धड़काता।। जय।।
तुम बिन सुख न होवे न कोई पुत्र पाता।
खान-पान का वैभव तुम बिन नहीं आता।। जय।।
शुभ गुण सुंदर युक्ता क्षीर निधि जाता।
रतन चतुर्दश तोकू कोई नहीं पाता।। जय।।
श्री अहोई माँ की आरती जो कोई गाता।
 उर उमंग अति उपजे पाप उतर जाता।। जय।!! 

सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

अर्धनारीश्वर क्यों बने शिव?

                                                


शिवलिंग से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतिमा पृथ्वी पर कभी नहीं खोजी गई। उसमें आपकी आत्मा का पूरा आकार छिपा है। और आपकी आत्मा की ऊर्जा एक वर्तुल में घूम सकती है, यह भी छिपा है। और जिस दिन आपकी ऊर्जा आपके ही भीतर घूमती है और आप में ही लीन हो जाती है, उस दिन शक्ति भी नहीं खोती और आनंद भी उपलब्ध होता है। और फिर जितनी ज्यादा शक्ति संगृहीत होती जाती है, उतना ही आनंद बढ़ता जाता है।

हमने शंकर की प्रतिमा को, शिव की प्रतिमा को अर्धनारीश्वर बनाया है। शंकर की आधी प्रतिमा पुरुष की और आधी स्त्री की- यह अनूठी घटना है। जो लोग भी जीवन के परम रहस्य में जाना चाहते हैं, उन्हें शिव के व्यक्तित्व को ठीक से समझना ही पड़ेगा। और देवताओं को हमने देवता कहा है, शिव को महादेव कहा है। उनसे ऊंचाई पर हमने किसी को रखा नहीं। उसके कुछ कारण हैं। उनकी कल्पना में हमने सारा जीवन का सार और कुंजियां छिपा दी हैं।

अर्धनारीश्वर का अर्थ यह हुआ कि जिस दिन परमसंभोग घटना शुरू होता है, आपका ही आधा व्यक्तित्व आपकी पत्नी और आपका ही आधा व्यक्तित्व आपका पति हो जाता है। आपकी ही आधी ऊर्जा स्त्रैण और आधी पुरुष हो जाती है। और इन दोनों के भीतर जो रस और जो लीनता पैदा होती है, फिर शक्ति का कहीं कोई विसर्जन नहीं होता।

अगर आप बायोलॉजिस्ट से पूछें आज, वे कहते हैं- हर व्यक्ति दोनों है, बाई-सेक्सुअल है। वह आधा पुरुष है, आधा स्त्री है। होना भी चाहिए, क्योंकि आप पैदा एक स्त्री और एक पुरुष के मिलन से हुए हैं। तो आधे-आधे आप होना ही चाहिए। अगर आप सिर्फ मां से पैदा हुए होते, तो स्त्री होते। सिर्फ पिता से पैदा हुए होते, तो पुरुष होते। लेकिन आप में पचास प्रतिशत आपके पिता और पचास प्रतिशत आपकी मां मौजूद है। आप न तो पुरुष हो सकते हैं, न स्त्री हो सकते हैं- आप अर्धनारीश्वर हैं।

बायोलॉजी ने तो अब खोजा है, लेकिन हमने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में आज से पचास हजार साल पहले इस धारणा को स्थापित कर दिया। यह हमने खोजी योगी के अनुभव के आधार पर। क्योंकि जब योगी अपने भीतर लीन होता है, तब वह पाता है कि मैं दोनों हूं। और मुझमें दोनों मिल रहे हैं। मेरा पुरुष मेरी प्रकृति में लीन हो रहा है; मेरी प्रकृति मेरे पुरुष से मिल रही है। और उनका आलिंगन अबाध चल रहा है; एक वर्तुल पूरा हो गया है। मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं कि आप आधे पुरुष हैं और आधे स्त्री। आपका चेतन पुरुष है, आपका अचेतन स्त्री है। और अगर आपका चेतन स्त्री का है, तो आपका अचेतन पुरुष है। उन दोनों में एक मिलन चल रहा है।


अर्धनारीश्वर स्तोत्रम्

चाम्पेयगौरार्धशरीरकाये कर्पूरगौरार्धशरीरकाय
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नमः शिवायै च नमः शिवाय

चम्पाके पुष्प समान गौर अर्ध शरीरवाले पार्वतीजीको एवम कर्पूर समान गौर अर्ध शरीरवाले शिवजीको, मोती और फूलोसे सुशोभित केशवाले [धम्मिल्लकायै] शिवाको एवम जटावाले शिवजीको प्रणाम

कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारजःपुंजविचर्चिताय
कृतस्मरायै विकृतस्मराय नमः शिवायै च नमः शिवाय

कस्तुरी और कुमकुमसे लिपटे हुए पार्वतीजीको एवम चिताकी राखके ढेरसे लिपटे हुए शिवजीको, कामदेवको जगानेवाले शिवाको एवम कामदेवका नाश करनेवाले शिवजीको प्रणाम.

चलत्क्रणत्कंकणनूपुरायै पादब्जराजत्फणिनूपुराय
हेमांगदायै भुजगांगदाय नमः शिवायै च नमः शिवाय

जिनके हाथमें खनकते हुए कंगन और पैरमें नूपुर है एवम जिनके चरणकमलमें सर्परूपी नूपुर हैऔर जिनकी भूजा पर सोनेके बाजुबंद [अंगद] लिपटे हुए है ऐसे शिवाको एवम जिनकी भूज पर सर्पोके बाजुबंद लिपटे हुए है ऐसे शिवजीको प्रणाम

विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय
समेक्षणायै विषमेक्षणाय नमः शिवायै च नमः शिवाय

प्रसन्न नीलक्मल समान नेत्रवालेको एवम संपूर्ण तरहसे विकसित कमल समान नेत्रवालेको, दो नेत्रवाले शिवाको और त्रिनेत्रवाले शिवजीको प्रणाम

मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालांकितकन्धराय
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नमः शिवायै च नमः शिवाय

जिनके घुंघराले बाल मंदार पुष्पोकी मालासे सुशोभित है एवम जिनकी गरदन खोपडीओंकी मालासे सुशोभित है, जिसने दिव्य वस्त्र धारण किये हो एवम जिसने दिशाओंके वस्त्र धारण किये याने निःवस्त्र हो ऐसे शिवा शिवको प्रणाम

अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नमः शिवायै च नमः शिवाय

जिनके श्यामल केश जलसे भरे बादल [अम्भोधर] समान है एवम जिनकी ताम्रवर्णीय जटा चमकीली बीजली समान है, जो हंमेशा स्वतंत्र है यानी जिनके कोई ईश्वर नहीं है एवम जो सर्व लोकके स्वामी है ऐसे शिवा शिवको प्रणाम

प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय
जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे नमः शिवायै च नमः शिवाय

जो विश्वप्रपंचके सर्जनके अनुकूल नृत्य करनेवालेको एवम समस्त विश्वप्रपंचका संहार करनेवाला तांडव नृत्य करनेवालेको, विश्वमाताको एवम विश्वपिताको अर्थात शिवा शिवको प्रणाम

प्रदीप्तरत्नोज्जवलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नमः शिवायै च नमः शिवाय

जिन्होंने अति झगमगते रत्नोके उज्जवल कुंडल पहने है एवम जिन्होंने अति भयानक सर्पोंके आभुषण पहने है, जो शिवजीसे समन्वित हुए हो एवम जो शिवासे शिवा [पार्वतीजी]से समन्वित हुए हो ऐसे शिवा शिवको प्रणाम

एतत्पठेदष्टकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी
प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात्सदा तस्य समस्तसिद्धिः

जो मनुष्य यह ईष्ट वस्तुका प्रदान करनेवाला अष्टकका भक्तिपूर्वक पाठ करता है वह संसारमें सन्मानित होता है, दीर्घायु होता है, अनंत काल तक वह सौभाग्य प्राप्त करता है एवम उसको हम्मेश समस्त सिद्धि प्राप्त होती है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

जब शिव ने सती का त्याग किया

                                           

 


सभी लोग जानते हैं कि सती ने अपने पिता द्वारा शिव को यज्ञ में आमंत्रित न करने और उनका अपमान करने पर उसी यज्ञशाला में आत्मदाह कर लिया था लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि इसकी भूमिका बहुत पहले हीं लिखी जा चुकी थी.

बात उन दिनों की है जब रावण ने सीता का हरण कर लिया था और श्रीराम और लक्षमण उनकी खोज में दर दर भटक रहे थे. जब सती ने ये देखा कि श्रीराम विष्णु के अवतार होते हुए भी इतना कष्ट उठा रहे हैं तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने भगवान शिव से पूछा कि प्रभु भगवान विष्णु तो आपके परम भक्त हैं फिर किस पाप के कारण वे इतना कष्ट भोग रहे हैं? भगवान शिव ने कहा कि चूँकि श्रीहरि विष्णु मनुष्यरूप में हैं इसलिए एक साधारण मनुष्य की तरह हीं वे भी दुःख भोग रहे हैं. सती ने पूछा कि अगर विष्णु केवल एक मनुष्य के रूप में हैं तो क्या उनमे वो सरे दिव्य गुण हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं?

शिव ने जवाब दिया कि हाँ मनुष्य होते हुए भी वे उन सारी कलाओं से युक्त हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं. सती को इसपर विश्वासनहीं हुआ. उन्होंने कहा कि मुझे लगताहै कि मनुष्य रूप में उनकी शक्तियां भी क्षीण हो गयी हैं इसलिए तो वे एक साधारण मनुष्य की भांति विलाप कर रहे हैं. अगर वे श्रीहरि विष्णु की सारी शक्तियों से युक्त होते तो उन्हें सीता को ढूंढ़ने के लिए इस प्रकार भटकने की आवश्यकता नहीं थी. उन्हें तुरंत पता चल जाता कि सीता लंका में है. सती ने शिव से कहा कि वो श्रीराम की परीक्षा लेना चाहती है. शिव ने उन्हें मना किया किया कि ये उचित नहीं है लेकिन सती नहीं मानी. अंततः विवश होकर महाकाल ने आज्ञा दे दी.

शिव कि आज्ञा पाकर सती ने सीता का रूप धरा और जाकर वन में ठीक उस जगह बैठ गयी जहाँ से श्रीराम और श्रीलक्षमण आने वाले थे. जैसे हीं दोनों वहां से गुजरे तो उन्होंने सीता के रूप में सती को देखा. लक्षमण सती की इस माया में आ गए और सीता रूपीसती को देख कर प्रसन्न हो गए. उन्होंने जल्दी से आगे बढ़कर उन्हेंप्रणाम किया. तभी अचानक श्रीराम ने भी आकर सती को दंडवत प्रणाम किया. ये देख कर लक्षमण के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. इससे पहले वे कुछ समझ पाते, श्रीराम ने हाथ जोड़ कर सीता रूपी सती से कहा कि माता आप इस वन में क्याकर रही है? क्या आज महादेव ने आपको अकेले हीं विचरने के लिए छोड़ दिया है? अगर अपने इस पुत्र के लायक कोई सेवा हो तो बताइए. सती ने जब ऐसा सुनातो बहुत लज्जित हुई. वे अपने असली स्वरुप में आ गयी और दोनों को आशीर्वाद देकर वापस कैलाश चली गयी.

जब वो वापस आई तो शिव ने उनसे पूछा किक्या उन्होंने श्रीराम की परीक्षा ली? सती ने झूठ मूठ हीं कह दिया कि उन्होंने कोई परीक्षा नहीं ली. शिव से क्या छुपा था. उन्हें तुरंत पता चल गया कि सती ने सीता का रूप धर कर श्रीराम की परीक्षा ली थी. उन्होंने सोचा कि भले हीं सती ने अनजाने में हीं सीता का रूप धरा था किन्तु शिव सीता को पुत्री के रूप के अतिरिक्त और किसी रूप में देख हीं नहीं सकते थे.

अब उनके लिए सती को एक पत्नी के रूप में देख पाना संभव हीं नहीं था. उसी क्षण से शिव मन हीं मन सती से विरक्त हो गए. उनके व्यहवार में आये परिवर्तन को देख कर सती ने अपने पितामह ब्रम्हा से इसका कारण पूछा तो उन्होंने सती को उनकी गलती का एहसास कराया. ब्रम्हदेव ने कहा कि इसजन्म में तो अब शिव किसी भी परिस्थिति में तुम्हे अपनी पत्नी केरूप में नहीं देख सकेंगे. इसी कारण सती ने भी मन हीं मन अपने शरीर का त्याग कर दिया. जब उन्हें अपने पिता दक्ष द्वारा शिव के अपमान के बारे में पता चला तो उन्होंने यज्ञ में जाने की आज्ञा मांगी. शिव ये भली भांति जानते थे कि सती अपने इस शरीर का त्याग करना चाहती है इसलिए उन्होंने सती को यज्ञ में न जाने की सलाह दी किन्तु सती हठ कर कर वहां चली गयी और जैसा कि पहले से तय था, उन्होंने वहां आत्मदाह कर लिया. इस प्रकार दक्ष का यज्ञ केवल सती के शरीर त्याग करने का कारण मात्र बन कररह गया.

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2020

व्यक्ति के कई जन्मो के पाप कर्मो का नाश करने वाली शिव पूजालघु रुद्र पूजा

 


भगवान शिव को दुखों का नाश करने वाला देवता भी बताया गया है. लघु रूद्र पूजा का सामान्य सा अर्थ यही होता है कि शिव की ऐसी पूजा जो व्यक्ति के सभी दुखों का नाश कर देती है. आपको बता दें कि यजुर्वेद में कई बार इस शब्द का उल्लेख किया गया है. भगवान शिव के रूद्र रूप की पूजा से व्यक्ति को विशेष लाभ होता है ऐसा शास्त्रों में बताया गया है. शिव के इस रूप की पूजा से इंसान के कई जन्मों के कर्म भी साफ हो जाते हैं.

भगवान शिव का एक नाम रुद्र भी है। रुद्र शब्द की महिमा का गुणगान धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। यजुर्वेद में कई बार इस शब्द का उल्लेख हुआ है। रुद्राष्टाध्यायी को तो यजुर्वेद का अंग ही माना जाता है। रुद्र अर्थात रुत् और रुत् का अर्थ होता है दुखों को नष्ट करने वाला यानि जो दुखों को नष्ट करे वही रुद्र है अर्थात भगवान शिव क्योंकि वहीं समस्त जगत के दुखों का नाश कर जगत का कल्याण करते हैं।


रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारे पटक-से पातक कर्म भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है। रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि-



सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:

अर्थात् ; सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं। वैसे तो रुद्राभिषेक किसी भी दिन किया जा सकता है परन्तु त्रियोदशी तिथि,प्रदोष काल और सोमवार को इसको करना परम कल्याण कारी है |
श्रावण मास में किसी भी दिन किया गया रुद्राभिषेक अद्भुत व् शीघ्र फल प्रदान करने वाला होता है |



आइये आपको बताते हैं लघु रुद्र पूजा के बारे में कि क्या होती है लघु रुद्र पूजा, यह कैसे की जाती है और इस लघु रुद्र पूजा के करने से क्या लाभ मिलता है

रुद्राष्टाध्यायी को यजुर्वेद का अंग माना जाता है। वैसे तो भगवान शिव अर्थात रुद्र की महिमा का गान करने वाले इस ग्रंथ में दस अध्याय हैं लेकिन चूंकि इसके आठ अध्यायों में भगवान शिव की महिमा व उनकी कृपा शक्ति का वर्णन किया गया है। इसलिये इसका नाम रुद्राष्टाध्यायी ही रखा गया है। शेष दो अध्याय को शांत्यधाय और स्वस्ति प्रार्थनाध्याय के नाम से जाना जाता है। रुद्राभिषेक करते हुए इन सम्पूर्ण 10 अध्यायों का पाठ रूपक या षडंग पाठ कहा जाता है। वहीं यदि षडंग पाठ में पांचवें और आठवें अध्याय के नमक चमक पाठ विधि यानि ग्यारह पुनरावृति पाठ को एकादशिनि रुद्री पाठ कहते हैं। पांचवें अध्याय में “नमः” शब्द अधिक प्रयोग होने से इस अध्याय का नाम नमक और आठवें अध्याय में “चमे” शब्द अधिक प्रयोग होने से इस अध्याय का नाम चमक प्रचलित हुआ। दोनों पांचवें और आठवें अध्याय पनरावृति पाठ नमक चमक पाठ के नाम से प्रसिद्ध हैं। एकादशिनि रुद्री के ग्यारह आवृति पाठ को लघु रूद्र कहा जाता है। वहीं लघु रुद्र के ग्यारह आवृति पाठ को महारुद्र तो महारुद्र के ग्यारह आवृति पाठ को अतिरुद्र कहा जाता है। 
रुद्र पूजा के इन्हीं रुपों को कहता है यह श्लोक-

रुद्रा: पञ्चविधाः प्रोक्ता देशिकैरुत्तरोतरं ।

सांगस्तवाद्यो रूपकाख्य: सशीर्षो रूद्र उच्च्यते ।।

एकादशगुणैस्तद्वद् रुद्रौ संज्ञो द्वितीयकः ।

एकदशभिरेता भिस्तृतीयो लघु रुद्रकः।।



क्यों होती है लघु रुद्र पूजा
“रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र:”

यानि भगवान शिव सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। सबसे बड़ा और अहम कारण रुद्र पूजा का यही है कि इससे भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है। रुद्रार्चन से मनुष्य के पातक एवं महापातक कर्म नष्ट होकर उसमें शिवत्व उत्पन्न होता है और भगवान शिव के आशीर्वाद से साधक के सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।

इसमें में रुद्राष्टाध्यायी के एकादशिनि रुद्री के ग्यारह आवृति पाठ किया जाता है। इसे ही लघु रुद्र कहा जाता है। यह पंच्यामृत से की जाने वाली पूजा है। इस पूजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रभावशाली मंत्रो और शास्त्रोक्त विधि से विद्वान ब्राह्मण द्वारा पूजा को संपन्न करवाया जाता है। इस पूजा से जीवन में आने वाले संकटो एवं नकारात्मक ऊर्जा से छुटकारा मिलता है।

बुधवार, 23 सितंबर 2020

महामृत्युंजय मंत्र और लघु मृत्‍युंजय मंत्र के जप का लाभ

 

 


 महामृत्युंजय मंत्र ऋग्वेद का एक श्लोक है.शिव को मृत्युंजय के रूप में समर्पित ये महान मंत्र ऋग्वेद में पाया जाता है.स्वयं या परिवार में किसी अन्य व्यक्ति के अस्वस्थ होने पर मेरे पास अक्सर बहुत से लोग इस मन्त्र की और इसके जप विधि की जानकारी प्राप्त करने के लिए आते हैं. इस महामंत्र के बारे में जहांतक मेरी जानकारी है,वो मैं पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.


 महा मृत्‍युंजय मंत्र 

ॐ त्र्यम्बक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म। उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात् !!


संपुटयुक्त महा मृत्‍युंजय मंत्र 

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!


लघु मृत्‍युंजय मंत्र

ॐ जूं स माम् पालय पालय स: जूं ॐ। किसी दुसरे के लिए जप करना हो तो-ॐ जूं स (उस व्यक्ति का नाम जिसके लिए अनुष्ठान हो रहा हो) पालय पालय स: जूं ॐ


महा मृत्‍युंजय जप की विधि 

महा मृत्युंजय मंत्र का पुरश्चरण सवा लाख है और लघु मृत्युंजय मंत्र की 11 लाख है.मेरे विचार से तो कोई भी मन्त्र जपें,पुरश्चरण सवा लाख करें.इस मंत्र का जप रुद्राक्ष की माला पर सोमवार से शुरू किया जाता है.जप सुबह १२ बजे से पहले होना चाहिए,क्योंकि ऐसी मान्यता है की दोपहर १२ बजे के बाद इस मंत्र के जप का फल नहीं प्राप्त होता है.आप अपने घर पर महामृत्युंजय यन्त्र या किसी भी शिवलिंग का पूजन कर जप शुरू करें या फिर सुबह के समय किसी शिवमंदिर में जाकर शिवलिंग का पूजन करें और फिर घर आकर घी का दीपक जलाकर मंत्र का ११ माला जप कम से कम ९० दिन तक रोज करें या एक लाख पूरा होने तक जप करते रहें. अंत में हवन हो सके तो श्रेष्ठ अन्यथा २५ हजार जप और करें.ग्रहबाधा, ग्रहपीड़ा, रोग, जमीन-जायदाद का विवाद, हानि की सम्भावना या धन-हानि हो रही हो, वर-वधू के मेलापक दोष, घर में कलह, सजा का भय या सजा होने पर, कोई धार्मिक अपराध होने पर और अपने समस्त पापों के नाश के लिए महामृत्युंजय या लघु मृत्युंजय मंत्र का जाप किया या कराया जा सकता है.

महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ

त्रयंबकम = त्रि-नेत्रों वालायजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देयसुगंधिम= मीठी महक वाला, सुगंधितपुष्टि = एक सुपोषित स्थिति,फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णतावर्धनम = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है,स्वास्थ्य, धन, सुख में वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है, और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा मालीउर्वारुकम= ककड़ीइव= जैसे, इस तरहबंधना= तनामृत्युर = मृत्यु सेमुक्षिया = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति देंमा= नअमृतात= अमरता, मोक्ष


महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ 

समस्‍त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्‍यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।|| इस मंत्र का विस्तृत रूप से अर्थ ||हम भगवान शंकर की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं,उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर दें, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो जाए.जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं, तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाएं.


महामृत्युंजय मंत्र का प्रभाव 

मेरे विचार से महामृत्युंजय मंत्र शोक,मृत्यु भय,अनिश्चता,रोग,दोष का प्रभाव कम करने में,पापों का सर्वनाश करने में अत्यंत लाभकारी है.महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना या करवाना सबके लिए और सदैव मंगलकारी है,परन्तु ज्यादातर तो यही देखने में आता है कि परिवार में किसी को असाध्य रोग होने पर अथवा जब किसी बड़ी बीमारी से उसके बचने की सम्भावना बहुत कम होती है,तब लोग इस मंत्र का जप अनुष्ठान कराते हैं.महामृत्युंजय मंत्र का जाप अनुष्ठान होने के बाद यदि रोगी जीवित नहीं बचता है तो लोग निराश होकर पछताने लगे हैं कि बेकार ही इतना खर्च किया.

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

शनि देव जी की कथा

 



 एक बार सभी ग्रह एक साथ इकट्ठे हुए और आपस में बाते करने लगे | कुछ विषयों पर बात करते करते वो एक विषय पर आकर रुक गये कि “सबसे सम्मानित ग्रह कौनसा है ” | वो सब आपस में तर्क वितर्क करने लगे लेकिन कोई नतीजा नही निकला इसलिए उन्होंने इंद्र देव के पास जाने का विचार किया | तो सभी ग्रह इंद्र देव के पास गये और वो भी विस्मय में पड़ गये क्योंकि अगर वो किसी को उचा नीचा दिखायेंगे तो किसी भी ग्रह का कोप उन पर गिर सकता था | कुछ देर बाद विचार करने के बाद इंद्र देव ने कहा “मान्यवरो , मै इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ हु लेकिन उज्जैयनी नगर में विक्रमादित्य नाम का राजा है जो आपके प्रश्न का उत्तर दे सकता है ” | इस तरह इंद्र देव के कहने पर सभी ग्रह राजा विक्रम के दरबार में गये |

विक्रमादित्य उस समय का सबसे पसंदीदा राजा था क्योंकि वो अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध था | जब उसने देखा कि सभी ग्रह उसके दरबार में आ रहे है तो वो तुंरत अपने सिंहासन से उठ गया और उन्हें अपने आसनों पर बैठने को कहा लेकिन उन्होंने मना कर दिया | उन्होंने कहा “हम यहा तब तक आसनों पर नही बैठेंगे जब तक तुम ये न्याय ना कर दो कि हम सब में से सबसे ऊचा ग्रह कौनसा है ” | विक्रमादित्य भी ऐसा प्रश्न सुनकर विस्मय में पड़ गया लेकिन फिर उसने एक योजना बनाई | उसने आसनों की एक कतार उसके सिंहासन से द्वार तक बनाई और उन्हें बैठने को कहा जब तक कि वो इसका निर्णय करते है |

विक्रम के सबसे निकट वाले आसन पर बृहस्पति जी दौड़ते हुए जाकर बैठ गये | अगले आसन पर सूर्य , उसके बाद चन्द्रमा ,उसके बाद मंगल , फिर राहू ओर फिर केतु बैठ गये | शुक्र देव आठवे आसन पर बैठ गये और अब अंतिम आसन बचा था और शनि देव बच गये थे | लेकिन वो आसन सबसे अंतिम था और द्वार के नजदीक था इसलिए शनि देव ने वहा बैठने से मना कर दिया | विक्रम ने सोचा कि जो भी उस अंतिम आसन पर बैठकर विनम्रता दर्शायेगा उसे ही वो सबसे महान घोषित करेंगे लेकिन शनि देव के वहा नही बैठने से सब गडबड हो गया |

शनि देव एक क्रोध वाले देवता है | जब वो वहा पर नही बैठे तो सभी ग्रह हसने लग गये | शनि देव ने इसे अपना अपमान मानते हुए बहुत क्रोधित हुए और विक्रम से कहा “तुमने इस तरह मेरा अपमान करके अच्छा नही किया , तुम मुझे क्या मानते हो ? तुम मुझे अंत में बिठाने के लिए बुलाया है ? एक बात ध्यान रखना कि किसी भी राशि में चन्द्रमा सवा दो दिन ; सूर्य , बुध और शुक्र केवल 15 दिन ; मंगल 2 महीने ; गुरु 13 महीने और राहू-केतु 18 महीने तक रहते है लेकिन मै साढ़े सात साल तक किसी भी राशि में रहता हु | इसलिए तुम अब अपना ध्यान रखो , तुम्हे भी मेरे अपमान का दंड सहना पड़ेगा | ”

राजा विक्रम कुछ दिनों तक बिना कीसी मुसीबत के दिन गुजारे लेकिन जल्द ही राजा के साढ़े साती शुरू हो गये | उन दिनों में एक अश्व व्यापारी वहा आया और वहा घोड़े बेचने के लिए रुका | राजा ने भी कुछ सुंदर घोड़े खुद के लिए खरीदे | उनमे से एक घोड़े का नाम भंवर था जिसे राजा बहुत पसंद करता था | राजा उस घोड़े पर सवार हो गया और इधर उधर घुमने लगा तभी कुछ देर बाद वो दौड़ता हुआ राजा को एक घने जंगल में छोडकर भाग गया | राजा को ये देखकर बहुत आश्चर्य हुआ और अब वो उस जंगल में भूखा-प्यासा भटकने लगा |

जब रात हुयी तो राजा को बड़ी जोरो की प्यास लगी जिससे वो जोर जोर से चिल्लाने लगा | एक दूधवाला उस रास्ते से गुजर रहा था उसने विक्रम को देख लिया | वो विक्रम को पास की नदी पर लेकर गया और उसे शीतल जल पिलाया | विक्रम बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उस दूधवाले को अपनी सोने की अंगूठी निकालकर दे दी और कहा “मै उज्जैन रहता हु और रास्ता भटक गया हु , क्या तुम मुझे रास्ता बता सकते हो ” | वो दूधवाला उसको गाँव में लेकर आया और उसको एक दुकानदार ने भोजन कराया | विक्रम ने दुकानदार को भी एक अंगूठी दी और उसको भी विक्रम ने रास्ता भटकने वाली बात बताई |

अब वो उस दुकानदार के साथ पुरे दिन बाते करता रहा और उस दिन दुकानदार को खूब आमदनी हुयी | उसने सोचा इस आदमी की वजह से उसकी आज अच्छी आमदनी हुयी इसलिए उसने विक्रम को उसके साथ शाम को घर चलने को कहा | विक्रम उसके साथ घर गया और दुकानदार ने उसकी खूब खातिरदारी की | अब खाना खाते वक़्त एक अजीब घटना हुयी , जब विक्रम खाना खा रहा था तो वहा पर दीवार पर रखा हुआ सोने का हार गायब हो गया | दुकानदार की नौकरानी ने उसकी पत्नी को गले का हार चोरी होने की खबर दी | जब दुकानदार ने ये बात सूनी तो उसने विक्रम से हार के बारे में पूछा तो विक्रम के हार के बारे में कुछ भी पता होने से इंकार कर दिया |

दुकानदार ने कहा “जब हार चोरी हुआ तक तुम्हारे अलावा यहा कोई बाहर का व्यक्ति नही था , तुम जल्दी बताओ कि वो हार कहा है ” | विक्रम ने कहा “मै हार के बारे में कुछ नही जानता हु और मैंने हार नही चुराया है “| दुकानदार विक्रम को राजा के पास लेकर गये | जब राजा ने विक्रम के भोले चेहरे को देखा तो उसने कहा “ये आदमी कुछ चोरी नही कर सकता है ” | इस तरह राजा ने विक्रम को आजाद कर दिया | अब विक्रम शहर में घूम रहा था तभी के तेली ने उसे देखा और उसको अपने यहाँ काम करने के लिए पुछा | उस तेली ने विक्रम को काम के बदले रहने खाने की व्यवस्था देने को कहा | विक्रम राजी हो गया और वो तेली विक्रम को घर लेकर आ गया |
अब विक्रम कोल्हू के बैल को चलाने का काम करने लगा और वो तेली तेल को बाजार में बेचने जाता था | जब बारिश का मौसम आया तब विक्रम तेज आवाज में गाना गाने लगा | उसकी आवाज पास ही राजा के महल तक पहुच गयी और राजकुमारी इस मधुर स्वर पर मोहित हो गयी | उसने अपनी दासी को भेजकर उस आदमी का पता लगाने को कहा | दासी वहा गयी और उसने राजकुमारी को बताया कि एक नौजवान अपनी आंखे बंद कर गा रहा था | राजकुमारी उसके प्यार में खाना पीना भूल गयी थी | उसकी माँ ने उससे अपनी इस दशा का कारण पूछा | राजकुमारी ने कहा कि वो अगर वो विवाह करेगी तो सिर्फ उस मधुर गाना गाने वाले तेली से विवाह करेगी |

जब राजा ने अपनी पुत्री की ये मांग सूनी तो वो बहुत क्रोधित हुआ | उसने विक्रम को बुलाया और उसके हाथ काटकर उसे जंगल में फेंक दिया | जब राजकुमारी को इस बात का पता चला तो उसने अपने मन को मजबूत करते हुए कहा कि अगर वो विवाह करेगी तो सिर्फ उसी तेली से चाहे उसके हाथ हो या ना हो | अपनी बेटी की जिद को देखते हुए राजा ने विक्रम को बुलाया और उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया | राजा ने उनके रहने के लिए एक साधारण घर भी दिया |

एक दिन विक्रम सो रहा था और शनि देव उसके स्वप्न में आये , उसने शनि देव को प्रणाम किया और गलती की माफी माँगी | शनि देव ने उसे आशीर्वाद दिया और कहा “अब तुम्हारे साढ़े साती खत्म होते है ” | और विक्रम के दोनों हाथ वापस आ गये | विक्रम ने अपनी पत्नी को नही जगाया और सुबह उसकी पत्नी उसके दोनों हाथ देखकर बहुत खुश हुयी | राजा को भी इस खबर का पता चल गया तो वो भी विक्रम को देखने आया और उसने बताया कि वो शनि देव का कोप झेल रहा था और उन्ही की दयालुता से उसके दोनों हाथ वापस आ गये | तब उसने राजा को अपना पूरा परिचय दिया | विक्रम का परिचय सुनकर राजा उसके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा |

जब दुकानदार को इस बात का पता चला तो वो भी दौड़ता हुआ विक्रम के चरणों में गिर गये | विक्रम ने उस दुकानदार से कहा “घर जाओ , तुम्हे तुम्हारा हार वापस वही मिल जाएगा ” | दुकानदार घर गया और हार उसी जगह पर टंगा हुआ मिला |विक्रम ने राजा को वापस अपने प्रदेश लौटने को कहा | राजा ने उसे उपहारस्वरुप कई घोड़े ,हाथी और दसिया देकर विदा किया | विक्रमादित्य की जनता अपने राजा के वापस लौटने पर बहुत प्रसन्न हुयी | विक्रम ने अब नवग्रह की पूजा की और शनि देव को सबसे उच्च स्थान दिया।