शुक्रवार, 26 जून 2020

महर्षि भृगु ने क्यों मारी भगवान विष्णु की छाती में लात


महर्षि भृगु ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनकी पत्नी का नाम ख्याति था जो दक्ष की पुत्री थी। महर्षि भृगु सप्तर्षिमंडल के एक ऋषि हैं। सावन और भाद्रपद में वे भगवान सूर्य के रथ पर सवार रहते हैं।

एक बार की बात है, सरस्वती नदी के तट पर ऋषि-मुनि एकत्रित होकर इस विषय पर चर्चा कर रहे थे कि ब्रह्माजी, शिवजी और श्रीविष्णु में सबसे बड़े और श्रेष्ठ कौन है? इसका कोई निष्कर्ष न निकलता देख उन्होंने त्रिदेवों की परीक्षा लेने का निश्चय किया और ब्रह्माजी के मानस पुत्र महर्षि भृगु को इस कार्य के लिए नियुक्त किया।

महर्षि भृगु सर्वप्रथम ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने न तो प्रणाम किया और न ही उनकी स्तुति की। यह देख ब्रह्माजी क्रोधित हो गए। क्रोध की अधिकता से उनका मुख लाल हो गया। आँखों में अंगारे दहकने लगे। लेकिन फिर यह सोचकर कि ये उनके पुत्र हैं, उन्होंने हृदय में उठे क्रोध के आवेग को विवेक-बुद्धि में दबा लिया।

वहाँ से महर्षि भृगु कैलाश गए। देवाधिदेव भगवान महादेव ने देखा कि भृगु आ रहे हैं तो वे प्रसन्न होकर अपने आसन से उठे और उनका आलिंगन करने के लिए भुजाएँ फैला दीं। किंतु उनकी परीक्षा लेने के लिए भृगु मुनि उनका आलिंगन अस्वीकार करते हुए बोले-“महादेव! आप सदा वेदों और धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। दुष्टों और पापियों को आप जो वरदान देते हैं, उनसे सृष्टि पर भयंकर संकट आ जाता है। इसलिए मैं आपका आलिंगन कदापि नहीं करूँगा।”

उनकी बात सुनकर भगवान शिव क्रोध से तिलमिला उठे। उन्होंने जैसे ही त्रिशूल उठा कर उन्हें मारना चाहा, वैसे ही भगवती सती ने बहुत अनुनय-विनय कर किसी प्रकार से उनका क्रोध शांत किया। इसके बाद भृगु मुनि वैकुण्ठ लोक गए। उस समय भगवान श्रीविष्णु देवी लक्ष्मी की गोद में सिर रखकर लेटे थे।

भृगु ने जाते ही उनके वक्ष पर एक तेज लात मारी। भक्त-वत्सल भगवान विष्णु शीघ्र ही अपने आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम करके उनके चरण सहलाते हुए बोले-“भगवन! आपके पैर पर चोट तो नहीं लगी? कृपया इस आसन पर विश्राम कीजिए। भगवन! मुझे आपके शुभ आगमन का ज्ञान न था। इसलिए मैं आपका स्वागत नहीं कर सका। आपके चरणों का स्पर्श तीर्थों को पवित्र करने वाला है। आपके चरणों के स्पर्श से आज मैं धन्य हो गया।”

भगवान विष्णु का यह प्रेम-व्यवहार देखकर महर्षि भृगु की आँखों से आँसू बहने लगे। उसके बाद वे ऋषि-मुनियों के पास लौट आए और ब्रह्माजी, शिवजी और श्रीविष्णु के यहाँ के सभी अनुभव विस्तार से कह बताया। उनके अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनि बड़े हैरान हुए और उनके सभी संदेह दूर हो गए। तभी से वे भगवान विष्णु को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा-अर्चना करने लगे।

वास्तव में उन ऋषि-मुनियों ने अपने लिए नहीं, बल्कि मनुष्यों के संदेहों को मिटाने के लिए ही ऐसी लीला रची थी।

सोमवार, 8 जून 2020

अनोखा शिव मंदिर जहां पुजारी नहीं बल्कि एक सांप करता है पूजा


भारत में कई मंदिर हैं और उन सभी की अपनी अनोखी कहानी और किस्से हैं। अपने इन्हीं अनोखी कहानी और किस्सों की वजह से भारत के मंदिरों को पूरे विश्व में जाना जाता हैं। अभी के दिनों में सावन का महीना चल रहा हैं तो सभी भगवान शिव के मंदिरों में दर्शन करने जाते हैं। इसलिए सावन के इस महीने के विशेष मौके पर आज हम आपको शिव के एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जहां भगवान की पूजा के लिए कोई पुजारी नहीं है बल्कि एक सांप शिवलिंग की पूजा करता हैं। इस मंदिर की इसी विशेषता को देखने के लिए दूर-दूर से लोग इसे देखने के लिए आते हैं। तो आइये जानते इस मंदिर के बारे में।

उत्तरप्रदेश आगरा के पास स्थित गांव सलेमाबाद के एक प्राचीन मंदिर में शिव की पूजा करने के लिए एक नाग 15 वर्षों से रोज आता है।
यह नाग रोज मंदिर में करीब 5 घंटे तक यहां पर रूकता है और भगवान की पूजा करता है। वैज्ञानिकों के लिए इस नाग के यहां आने का कारण अभी तक यहां जिज्ञासा का विषय बना हुआ है।

नाग इस मंदिर में करीब 10 बजे आता है और दोपहर 3 बजे तक लौट जाता है। लोग यहां पर इस मंदिर और नाग के दर्शन करने आते है। श्रद्धालुओं को इस सांप से कोई भय नहीं लगता और न ही इसने कभी किसी को नुकसान पहुंचाया। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा करने से हर मनोकामना पूरी हो जाती है। इसी कारण श्रद्धालु शिवजी की पूजा करने के लिए यहां दूर-दूर से आते है।
वैसे तो इस मंदिर में नाग के प्रवेश के बाद द्वार बंद कर दिए जाते है लेकिन फिर भी नाग के दर्शन करने के लिए लोग मंदिर के बाहर खड़े रहते है। सांप के बाहर आने के बाद ही लोगों को शिवजी के दर्शन करने दिए जाते है। उससे पहले लोगों के द्वार बंद ही रहते है।

शुक्रवार, 5 जून 2020

ॐ ही गणेश


कुछ विद्वान तो यह भी कहते हैं कि “ॐ” का अर्थ ही गणेश है। इसी वजह से किसी भी मंत्र से पहले ॐ यानि गणपति का नाम आता है।

गणपति को अनेक नामों से पुकारा जाता है, जिनमें विघ्नहर्ता, गणेश, विनायक आदि प्रमुख हैं। शिव और पार्वती के पुत्र भगवान गणपति के नामों में गणेश, गणपति, विघ्नहर्ता और विनायक सर्वप्रमुख हैं।

भगवान गणेश को एकदंत भी कहा जाता है, जिससे संबंधित भी एक अद्भुत कथा वर्णित है। कहा जाता है महर्षि वेद व्यास ने स्वयं गणेश जी से कहा कि वह महाभारत को लिखने की कृपा करें। गणेश जी ने उनकी बात सशर्त स्वीकार कर ली, गणेश जी की शर्त थी कि वेद व्यास बिना रुके महाभारत की कहानी कहेंगे।

गणेश जी की इस शर्त को स्वीकार करते हुए व्यास लगातार बोलते रहे और गणेश जी लिखते रहे। लिखते-लिखते अचानक उनकी कलम टूट गई तो उन्होंने शीघ्रता से अपना एक दांत तोड़कर उसे कलम के रूप में प्रयोग करके लिखना आरंभ किया। इसी वजह से उन्हें एकदंत भी कहा जाता है।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार विष्णु के अवतार भगवान परशुराम, शिव से मिलने के लिए जा रहे थे कि रास्ते में उन्हें गणेश जी ने रोक लिया। इस पर क्रोधित होकर भगवान परशुराम ने महादेव द्वारा दिए गए फरसे से गणेश पर प्रहार किया। भगवान शिव द्वारा प्रदत्त फरसे का सम्मान करते हुए गणेश उसके आगे से नहीं हटे और अपना एक दांत गंवा दिया।

स्कंद पुराण में स्कंद अर्बुद खण्ड में भगवान गणेश के प्रादुर्भाव से जुड़ी कथा मौजूद है जिसके अनुसार भगवान शंकर द्वारा मां पार्वती को दिए गए पुत्र प्राप्ति के वरदान के बाद ही गणेश जी ने अर्बुद पर्वत (माउंट आबू), जिसे अर्बुदारण्य भी कहा जाता है, पर जन्म लिया था। इसी वजह से माउंट आबू को अर्धकाशी भी कहा जाता है।

गणेश जी के जन्म के बाद समस्त देवी-देवताओं के साथ स्वयं भगवान शंकर ने अर्बुद पर्वत की परिक्रमा की, इसके अलावा ऋषि-मुनियों ने वहां गोबर द्वारा निर्मित गणेश की प्रतिमा को भी स्थापित किया। आज इस मंदिर को सिद्धिगणेश के नाम से जाना जाता है। भगवान शंकर ने सपरिवार इस पर्वत पर वास किया था इसलिए इस स्थान को वास्थान जी तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है।
ॐ श्री गनेशया नमः