सोमवार, 24 अगस्त 2020

शिवलिंग का अर्थ




शिवलिंग का अर्थ है 'शिव का प्रतीक' जो मन्दिरों एवं छोटे पूजस्थलों में पूजा जाता है। इसे केवल ' शिव लिंगम' भी कहते हैं। भारतीय समाज में शिवलिंगम को शिव की ऊर्जा और शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
'लिंग' का अर्थ है 'चिन्ह'। अत: जो चिन्ह शिव के प्रतीक रूप में माना जा सके, वही शिवलिंग है (अर्थात कुछ ऐसा जिसके प्रति हम सभी के कल्याण की हमारी शुभभावनाओं को जोड़ सकें।)

वेदों में अनेक जगह परमात्मा को एक ऐसे 'स्तम्भ' के रूप में देखा गया है जो समस्त सात्विक गुणों, शुभ वृत्तियों का आधार है। वही मृत्यु और अमरता, साधारण और महानता के बीच की कड़ी है। यही कारण है कि हिंदू मंदिरों और हिन्दू स्थापत्य कला में स्तम्भ या खंभे प्रचुर मात्रा में देखे जाते हैं। इसके अतिरिक्त, योग साधना भी अग्नि की लौ पर ध्यान केंद्रित करने का अभ्यास करने को कहती है, जो स्वयं शिवलिंगाकार है। इसका भी स्पष्ट आधार वेदों में मिलता है। शिवलिंग और कुछ नहीं ऐसा लौकिक स्तंभ ही है जिस पर हम (अग्नि की लौ की तरह) ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और हमारी कल्याणकारी भावनाओं को उससे जोड़ सकते हैं। यही कारण है कि शिवलिंग को 'ज्योतिर्लिंग' भी कहा जाता है। ज्योति वह है जो आपके अंदर के अंधकार को दूर करके प्रकाश फैला दे। आत्मज्ञान का वह पथ जो अलौकिक दिव्य प्रतिभा की ओर ले जाता है। (आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् – प्रकाश से पूर्ण, अज्ञान अंधकार तम से हीन), शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्द पुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है। धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है। वातावरण सहित घूमती धरती या सारे अनन्त ब्रह्माण्ड (ब्रह्माण्ड गतिमान है) का अक्ष/धुरी ही लिंग है।

पुराणों में शिवलिंग को कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है जैसे : प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग।

शिवलिंग मुख्यतः गयारह प्रकार के होते है, जो की प्रथम स्थान पर रूद्र रूपी ज्योतिर्लिंग है, जो की भारत के सभी शक्ति पीठो में पूजा जाता है, इस शिवलिंग का दूसरा एवम जागृत रूप रासमणि शिवलिंग है जो अपने आकर के अनुसार बहुत वजनिय होता है, यह देखने में चाँदी के रंगों में होता है,इसे पानी मे डालकर बाहर धूप में रख दिये जाने से सोने के रंग में तब्दील हो जाता है, यह शिवलिंग को विश्वकर्मा जी ने अपने हाथों से तरासे थे, यह शिवलिंग अनेकों जड़ी बूटियों एवम खाश तरह के धातु से बनाया गया है, यह कोई पथ्थर का शिवलिंग नहीं है लेकिन यह पत्थर से भी ज्यादा कोमल होता है अगर यह गिर जाए तो टूट भी सकता है। इस शिवलिंग को सोने का रत्न बहुत ही पसंद है, यह शिवलिंग भविष्य की भी सूचना भी देता है, इस शिवलिंग को अंग्रेजों ने 1842 ई0 में उज्जैन के महाकाल मंदिर से लूट कर ईस्ट इंडिया कंपनी को बेच दिया था, इस शिवलिंग की खास बात यह है कि इस शिवलिंग के अंदर भगवान शिव के अन्य शिवलिंग एवम त्रिनेत्र का दर्शन भी होती है, जो इस शिवलिंग का सही से जागृत कर के पूजन करते है, उन्हें साक्षात भगवान शिव के दर्शन होता है यह शिवलिंग जिस भी घर मे या किसी व्यक्ति के पास हो तो उसे धन और यश दोनो का भरपूर आनंद भोगता है, और यहां तक की उस व्यक्ति को यमदूत भी नहीं छू सकते।

महाकाल मंदिर में प्रत्येक सावन के सोमवारी को इस बचे तीनों शिवलिंग का विधिविधान से पूजन कर के गर्व गृह में रख दिया जाता है, ऐसा कहा जाता है की भगवान विष्णु ने भोलेनाथ के क्रोध को शांत करने के लिए ही विश्वकर्मा जी से शिवलिंग का निर्माण करवा कर इसका पूजन किये थे, ब्रह्म जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने अपने श्राप को खत्म करने के लिये इसी शिवलिंग का पूजन किये थे,और अपने श्राप से मुक्त हुए थे, भगवान राम ने रामेश्वरम में इसी शिवलिंग का पूजा अर्चना किये थे, भगवान राम को बनवास जाने से कुछ दिन पहले यह शिवलिंग नील कमल के तरह नीले पड़ चुके थे, मंदिर परिसर में अगर किसी भी प्रकार का कोई खतरा आता है तो यह तीनों शिवलिंग अपने आप अपने रंग को बदलते है। जिससे कि खतरे को भापकर टाल दिया जाता है, इसका प्रमाण 2014 में नेपाल में भूकंप आने के पहले उज्जैन महाकाल मंदिर से अप्रिय घटना घटने की 3 दिन पहले ही खबर आ चुका था।ऐसा माना जाता है कि अगर किसी भी जीव ने अपने हाथों से छू कर इस शिवलिंग का पूजन या दर्शन मात्र से भी सारा पाप ग्रह दोष खत्म हो जाता है।

शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-आनादी एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक भी अर्थात् इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है अर्थात दोनों सामान है। हम जानते हैं कि सभी भाषाओँ में एक ही शब्द के कई अर्थ निकलते हैं जैसे: सूत्र के - डोरी/धागा, गणितीय सूत्र, कोई भाष्य, लेखन को भी सूत्र कहा जाता है जैसे नासदीय सूत्र, ब्रह्म सूत्र आदि। अर्थ :- सम्पति, मतलब (मीनिंग), उसी प्रकार यहाँ लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी या प्रतीक है, लिंग का यही अर्थ वैशेषिक शास्त्र में कणाद मुनि ने भी प्रयोग किया। ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है : ऊर्जा और पदार्थ। हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है। इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते हैं।

ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है। वास्तव में शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड की आकृति है। अब जरा आईंसटीन का सूत्र देखिये जिस के आधार पर परमाणु बम बनाया गया, परमाणु के अन्दर छिपी अनंत ऊर्जा की एक झलक दिखाई जो कितनी विध्वंसक थी सब जानते हैं। इसके अनुसार पदार्थ को पूर्णतयः ऊर्जा में बदला जा सकता है अर्थात दो नहीं एक ही है पर वो दो हो कर स्रष्टि का निर्माण करता है। हमारे ऋषियो ने ये रहस्य हजारो साल पहले ही ख़ोज लिया था। हम अपने देनिक जीवन में भी देख सकते हैं कि जब भी किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है तो उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा ऊपर व निचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दशोदिशाओं (आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री (360 डिग्री)+ऊपर व निचे) होता है, फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है जैसे बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप, शांत जल में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग (उर्जा) का प्रतिरूप आदि।

स्रष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात् उर्जा का प्रवाह वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ फलस्वरूप एक महाशिवलिंग का प्राकट्य हुआ जैसा की आप उपरोक्त चित्र में देख सकते हैं। जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण आदि में मिलता है की आरम्भ में निर्मित शिवलिंग इतना विशाल (अनंत) तथा की देवता आदि मिल कर भी उस लिंग के आदि और अंत का छोर या शास्वत अंत न पा सके। पुराणो में कहा गया है कि प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार इसी शिवलिंग में समाहित (लय) होता है तथा इसी से पुनः सृजन होता है।

लंबुकेश्वर मंदिर, श्रीरंगम में शिवलिंग
शास्त्रों में महात्म्य- शिवलिंग के महात्म्यका वर्णन करते हुए शास्त्रों ने कहा है कि जो मनुष्य किसी तीर्थ की मृत्तिका से शिवलिंग बना कर उनका विधि-विधान के साथ पूजा करता है, वह शिवस्वरूप हो जाता है। शिवलिंग का सविधि पूजन करने से मनुष्य सन्तान, धन, धन्य, विद्या, ज्ञान, सद्बुद्धि, दीर्घायु और मोक्ष की प्राप्ति करता है। जिस स्थान पर शिवलिंग की पूजा होती है, वह तीर्थ न होने पर भी तीर्थ बन जाता है। जिस स्थान पर सर्वदा शिवलिंग का पूजन होता है, उस स्थान पर मृत्यु होने पर मनुष्य शिवलोक जाता है। शिव शब्द के उच्चारण मात्र से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और उसका बाह्य और अंतकरण शुद्ध हो जाता है। दो अक्षरों का मंत्र शिव परब्रह्मस्वरूप एवं तारक है। इससे अलग दूसरा कोई तारक ब्रह्म नहीं है। तंत्र एवम मन्त्र में रुद्ररूपी और रासमणि का प्रयोग खाश तरह से किया जाता है, रुद्ररूपी और रासमणि का एक साथ मंत्रो का प्रयोग करने पर भगवान शिव के आंशिक रूप की सिद्धि प्राप्त होती है।

तारकंब्रह्म परमंशिव इत्यक्षरद्वयम्। नैतस्मादपरंकिंचित् तारकंब्रह्म सर्वथा॥

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

चौसर खेल शिव-पार्वती ने रची बड़ी लीला


हुत कम लोगों को ये पता होगा कि चौसर का निर्माण भी भगवान शिव ने ही किया था। एक दिन महादेव ने देवी पार्वती से कहा कि आज मैंने एक नए खेल का निर्माण किया है। उनके अनुरोध पर दोनों चौसर का खेल खेलने लगे। चूँकि चौसर का निर्माण महादेव ने किया था, वे जीतते जा रहे थे। अंत में माता पार्वती ने कहा कि ये उचित नहीं है। अगर ये एक खेल है तो उसके नियम भी होने चाहिए। उनके ऐसा कहने पर महादेव ने चौसर के नियम बनाये और एक बार फिर चौसर का खेल आरम्भ हो गया।

इस बार माता पर्वती बार-बार विजय होने लगी और थोड़े ही समय में भगवान शिव अपना सब कुछ हार गए। अंत में भगवान शिव ने लीला करते हुए कैलाश को भी दांव पर लगाया और हार गए। इसके बाद भगवान शिव अपनी लीला रचाने के लिए हारने के बाद पत्तो के वस्त्र पहन कर देवी पार्वती से रुठने का नाटक करते हुए गंगा नदी के तट पर चले गए। थोड़ी देर बाद जब कार्तिकेय कैलाश लौटे तो उन्होंने भगवान शिव का माता पर्वती से चौसर के खेल में हारने की बात सुनी। वे अपने पिता को अपनी माता से अधिक प्रेम करते थे इसी कारण अपने पिता को वापस लाने के लिए उन्होंने माता पार्वती को चौसर में हराकर भगवान शिव की सारी वस्तुएं प्राप्त कर ली और अपने पिता को लौटने के लिए गंगा के तट पर चल दिए।

इधर माता पार्वती परेशान हो गयी कि पुत्र कार्तिकेय जीत कर महादेव का सारा समान भी ले गया और उनके स्वामी भी उनसे दूर चले गए। यह बात उन्होंने अपने पुत्र गणेश को बतलाई। गणेश अपनी माता को अपने पिता से अधिक प्रेम करते थे इसी कारण उनका दुःख सहन ना कर सके और अपनी माँ की इस समस्या का निवारण करने के लिए वे भगवान शिव को ढूढ़ने निकल गए। गंगा के तट पर जब उनकी भेट भगवान शिव से हुई तो उन्होंने उनके साथ चौसर का खेल खेला तथा उन्ही की माया से उन्हें हराकर उनकी सभी वस्तुए पुनः प्राप्त कर ली।

भगवान शिव के सभी वस्तुए लेकर गणेश माँ पार्वती के पास पहुंचे तथा उन्हें अपनी विजय का समाचार सुनाया। गणेश को अकेले देख वे बोली की तुम्हे अपने पिता को भी साथ लेकर आना चाहिए था। तब गणेश पुनः भगवान शिव को ढूढ़ने निकल पड़े। भगवान शिव गणेश को हरिद्वार में कार्तिकेय के साथ भ्रमण करते हुए मिले। जब भगवान गणेश ने शिव से वापस कैलाश पर्वत चलने की बात कही तो उन्होंने गणेश के बार-बार निवेदन करने पर कहा कि यदि तुम्हारी माता मेरे साथ एक बार फिर चौसर का खेल खेले तो में तुम्हारे साथ चल सकता हूँ।

गणेश ने माता पार्वती को भगवान शिव की शर्त बतलाई और उन्हें लेकर अपने पिता के पास पहुँचे। वहाँ पहुँचकर माता पार्वती हँसते हुए भगवान शिव से बोली कि "हे नाथ! आप के पास हारने के लिए अब बचा ही क्या है?" तब नारद जी ने अपनी वीणा भगवान शिव को दांव लगाने के लिए दे दी। भगवान शिव की इच्छा से भगवान विष्णु पांसों के रूप में भगवान शिव के पास आ गए और भगवान ब्रह्मा मध्यस्थ बनें। इस बार भगवान शिव चौसर के खेल में माता पर्वती को बार-बार हराने लगे। जब माता पार्वती अपना सब कुछ हार गयी तब महादेव ने हँसते हुए इसका रहस्य बताया। हालाँकि भगवान शिव ने माता पार्वती के साथ यूँ ही ठिठोली की थी किन्तु देवी पार्वती को बड़ा क्रोध आया।

उन्होंने क्रोधित होते हुए भगवान शिव से कहा कि आप हमेशा अपने सर के उपर गंगा का बोझ सहेंगे। देवर्षि नारद को कभी एक जगह न टिकने का श्राप मिला तथा भगवान विष्णु को धरती में जन्म लेकर स्त्री वियोग का श्राप मिला। माता पार्वती ने अपने ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय पर भी क्रोधित होते हुए श्राप दिया कि वे सदैव बाल्यवस्था में ही बने रहेंगे। बाद में माता पार्वती को अपने श्राप पर बड़ा क्षोभ हुआ और उन्होंने भगवान शिव और नारायण से प्रार्थना की कि वे उनके श्राप को निष्फल कर दें किन्तु भगवान विष्णु ने कहा कि वे जगत माता है और वे उनका श्राप निष्फल कर उनका अपमान नहीं कर सकते। इस कारण सभी को माता पार्वती द्वारा दिया गया श्राप झेलना पड़ा। इस प्रकार चौसर ने केवल मनुष्यों का नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर का भी अहित किया।

मंगलवार, 4 अगस्त 2020

शिवताण्डव स्तोत्रम्


जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥ १॥

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झर -विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥ २॥

धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे ।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्दिगम्बरे(क्वचिच्चिदम्बरे) मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥ ३॥

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥ ४॥

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः ।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक
श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥ ५॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा- -निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥ ६॥
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-
-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥। ७॥

नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्-
कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः ॥ ८॥

प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा- -वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ ९॥

अखर्व(अगर्व)सर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी
रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥ १०॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
-द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥ ११॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्-
-गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥ १२॥

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन् ।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ १३॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदङ्गजत्विषां चयः ॥ १४॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना ।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥ १५॥

इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् ।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥ १६॥
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः ॥ १७॥