मंगलवार, 17 नवंबर 2020

पंचमुखी क्यो हुए हनुमान एक अद्भुत की कथा

 


लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला. अंतत: मेघनाद मारा गया. रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया.
रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई. रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं.
लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी. रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र-मंत्र के महा पंडित, जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं.
रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे. यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी. युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए.

विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी. इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम-लक्ष्मण को सौंप दिया जाए. साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे.

राम-लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी. हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया. कोई जादू टोना तंत्र-मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था.
अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे. ऐसे में उन्होंने एक चाल चली. महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया.

राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे. दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए.
विभीषण लगातार सतर्क थे. उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है. विभीषण को महिरावण पर शक था, उन्हें राम-लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी.
विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें. लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये.

निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना. कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है. अहिरावण व महिरावण राम-लक्ष्मण को बलि चढा देंगे. बस सारा युद्ध समाप्त.

कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं. हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे.
हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला. इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था. उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया.

द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है. दोनों में लड़ाई ठन गयी. हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला.
दोनों ही बड़े बलशाली थे. दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका. आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके.

हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो. तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है. उस वीर ने उत्तर दिया- मैं हनुमान का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं. मेरा नाम है मकरध्वज.
हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए. वह वीर की बात सुनने लगे. मकरध्वज ने कहा- लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे. उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा.

उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था. वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई. उसी से मेरा जन्म हुआ है. हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमान हैं.
मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया. उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो.
मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं. बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं. उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें.

हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये. हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा- हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?

हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं. मैं तो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं.यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं. आप अपने प्रयत्न करो. सफल रहोगे.
मंदिर में पांच दीप जल रहे थे. अलग-अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे, उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा.

इस बीच गाजे-बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा. अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे. हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा. जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा.

हनुमान जी बोले- मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो. झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा. अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया. दोनों बंधन में बेहोश थे.

हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया. अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था.
अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.

पर यह युद्ध आसान न था. अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते. इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है.
अहिरावण उसे बलात हर लाया है. वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है, वह अहिरावण के राज जानती होगी. उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये. आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे.

मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे. नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे.
अहिरावण की पत्नी ने कहा- मेरा नाम चित्रसेना है. मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं. मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है, पर मैं उसे नहीं चाहती. लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी.

हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ? आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा.
चित्रसेना ने कहा- दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया. इससे मेरा जीवन खराब हो गया. मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं. आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी.

हनुमान जी सोच में पड़ गए. भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं. अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं. वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे. मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?

फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं. असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

हनुमान जी बोले- तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है. यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए. यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा.

जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा ! यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी. उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया.
चित्रसेना ने कहा- दोनों राक्षसों के बचपन की बात है. इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया. मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार-बार काटों से छेड रहे थे.

भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी. वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी. भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया.
मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था. अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया थ कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे.

ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं. दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं.
उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं. इनके कई-कई रूप उसी अमृत के कारण हैं. इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं. इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा.

हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे. मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था. तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया. वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते.
जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए. उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा.

हनुमान जी बोले- मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे.
भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया. इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा.
भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था. यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए.

फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया. देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए-नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा.

हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया. उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख.
उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए. अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी. हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये.

इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए. दोनो भाई होश में आ गए. चित्रसेना भी वहां आ गई थी. हनुमान जी ने कहा- प्रभो ! अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए.
पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी. अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था. वह आपसे विवाह करना चाहती है. कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी.
श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया- भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं. अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है. इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते.

कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए. परंतु आप चिंता न करें. हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं.
हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये. वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली.
हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे-धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया. श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी.

पलंग धराशायी हो गया. चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी. हनुमान जी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले- अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं, इसलिए यह विवाह नहीं हो सकता. तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं.

चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है. उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है. मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है. मैं हनुमान को श्राप दूंगी.
चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ. वह इस पूरे नाटक को समझ गये. उन्होंने चित्रसेना को समझाया- मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है. इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा. उन्हें क्षमा कर दो.

क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी. श्री राम ने कहा- मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा. इससे वह मान गयी.
हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया. चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था. भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया.
श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये।

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

शिव 108 रूपों और नाम का अर्थ

 




1. शिव - कल्याण स्वरूप
2. महेश्वर - माया के अधीश्वर
3. शम्भू - आनंद स्स्वरूप वाले
4. पिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वाले 
5. शशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले 
6. वामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले 
7. विरूपाक्ष - भौंडी आँख वाले 
8. कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले 
9. नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले 
10. शंकर - सबका कल्याण करने वाले 
11. शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले 
12. खटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वाले 
13. विष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमी 
14. शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले 
15. अंबिकानाथ - भगवति के पति 
16. श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले 
17. भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले 
18. भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले 
19. शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले 
20. त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी 
21. शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले 
22. शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय 
23. उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले 
24. कपाली - कपाल धारण करने वाले 
25. कामारी - कामदेव के शत्रु 
26. अंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले 
27. गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले 
28. ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले 
29. कालकाल - काल के भी काल 
30. कृपानिधि - करूणा की खान 
31. भीम - भयंकर रूप वाले 
32. परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले 
33. मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले 
34. जटाधर - जटा रखने वाले 
35. कैलाशवासी - कैलाश के निवासी 
36. कवची - कवच धारण करने वाले 
37. कठोर - अत्यन्त मज़बूत देह वाले 
38. त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले 
39. वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले 
40. वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले 
41. भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले 
42. सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले 
43. स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले 
44. त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले 
45. अनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं है 
46. सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले 
47. परमात्मा - सबका अपना आपा 
48. सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले 
49. हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले 
50. यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले 
51. सोम - उमा के सहित रूप वाले 
52. पंचवक्त्र - पांच मुख वाले 
53. सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाले 
54. विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर 
55. वीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले 
56. गणनाथ - गणों के स्वामी 
57. प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले 
58. हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले 
 59. दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले 
60. गिरीश - पहाड़ों के मालिक 
61. गिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वाले 
62. अनघ - पापरहित 
63. भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले 
64. भर्ग - पापों को भूंज देने वाले 
65. गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले 
66. गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी 
67. कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले 
68. पुराराति - पुरों का नाश करने वाले 
69. भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न 
70. प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति 
71. मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले 
72. सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले 
73. जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले 
74. जगद्गुरु - जगत् के गुरु 
75. व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले 
76. महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता 
77. चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले 
78. रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले 
79. भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी 
80. स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले 
81. अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले 
82. दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले 
83. अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले 
84. अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले 
85. सात्त्विक - सत्व गुण वाले 
86. शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले 
87. शाश्वत - नित्य रहने वाले 
88. खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले 
89. अज - जन्म रहित 
90. पाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वाले 
91. मृड - सुखस्वरूप वाले 
92. पशुपति - पशुओं के मालिक 
93. देव - स्वयं प्रकाश रूप 
94. महादेव - देवों के भी देव 
95. अव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वाले 
96. हरि - विष्णुस्वरूप 
97. पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले 
98. अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले 
99. दक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले 
100. हर - पापों व तापों को हरने वाले 
101. भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले 
102. अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले 
103. सहस्राक्ष - अनंत आँख वाले 
104. सहस्रपाद - अनंत पैर वाले 
105. अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले 
106. अनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित 
107. तारक - सबको तारने वाला 
108. परमेश्वर - सबसे परे ईश्वर

बुधवार, 11 नवंबर 2020

भैया दूज के साथ ही होती है चित्रगुप्त पूजा

                                  


दीपावली के दूसरे दिन भाई दूज मनाया जाता है। इस दिन यमराज की बहन यमुनाजी ने अपने उन्हें तिलक करके भोजन कराया था इसलिए इस दिन को यम द्वीतिया भी कहा जाता है। इस दिन बहनें भाई के मस्तक पर टीका लगाकर उसकी लंबी उम्र की मनोकामना करती है। माना जाता है इस दिन भाई के मस्तक पर टीका लगाने झसे भाई यमराज के कष्ट से बच जाता है। कहा जाता है इस दिन भाई अपनी बहन को यमुना स्नान कराएं। इसके बाद भाई को बहन तिलक करें और भोजन कराये। जो भाई और बहन यम द्वीतिया के दिन इस प्रकार दूज पूजन के बाद तिलक की रस्म पूरी करने के बाद भोजन करते हैं वे यम भय से मुक्त जो जाते हैं, उन्हें मृत्यु के पश्चात स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है।


भैया दूज की एक पौराणिक कथा है।

भगवान सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा की दो संतानें थीं। उनमें पुत्र का नाम यमराज और पुत्री का नाम यमुना था। संज्ञा अपने पति सूर्य की उद्दीप्त किरणों को सहन नहीं कर सकने के कारण अपनी ही प्रतिकृति छाया बनाकर तपस्या करने चली गयीं तथा छाया सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा बनकर रहने लगी। इसी से ताप्ती नदी तथा शनिश्चर का जन्म हुआ। इसी छाया से सदा युवा रहने वाले अश्विनी कुमारों का भी जन्म हुआ है, जो देवताओं के वैद्य माने जाते हैं ।छाया का यम तथा यमुना के साथ व्यवहार में अंतर आ गया। इससे व्यथित होकर यम ने अपनी नगरी यमपुरी बसाई। यमुना अपने भाई यम को यमपुरी में पापियों को दंड देते देख दु:खी होती, इसलिए वह गोलोक चली गई।

समय व्यतीत होता रहा। तब काफी सालों के बाद अचानक एक दिन यम को अपनी बहन यमुना की याद आई। यम ने अपने दूतों को यमुना का पता लगाने के लिए भेजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली। फिर यम स्वयं गोलोक गए जहां यमुनाजी की उनसे भेंट हुई। इतने दिनों बाद यमुना अपने भाई से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई। यमुना अपने भाई यमराज से बड़ा स्नेह करती हैं। वह उनसे बराबर निवेदन करतीं कि वह उनके घर आकर भोजन करें, लेकिन यमराज अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यमुना की बात टाल जाते थे।

कार्तिक शुक्ल द्वीतिया को यमुना ने अपने भाई यमराज को भोजन करने के लिए बुलाया। बहन के घर जाते समय यमराज ने नरक में निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया।भाई को देखते ही यमुना ने हर्षविभोर होकर भाई का स्वागत किया और स्वादिष्ट भोजन करवाया। इससे भाई यम ने प्रसन्न होकर बहन से वरदान मांगने के लिए कहा। तब यमुना ने वर मांगा कि- 'हे भैया, मैं चाहती हूं कि जो भी मेरे जल में स्नान करे, वह यमपुरी नहीं जाए।' 
यह सुनकर यम चिंतित हो उठे और मन-ही-मन विचार करने लगे कि ऐसे वरदान से तो यमपुरी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

भाई को चिंतित देख, बहन बोली- भैया आप चिंता न करें, मुझे यह वरदान दें कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहां भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाये, उसे आपका भय न रहे। जो लोग आज के दिन बहन के यहां भोजन करें तथा मथुरा नगरी स्थित विश्रामघाट पर स्नान करें, वे यमपुरी नहीं जाएं। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को वरदान दे दिया तथा यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमपुरी चले गये। ।

बहन-भाई मिलन के इस पर्व को अब भाई-दूज के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो भाई आज के दिन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से बहनों के आतिथ्य को स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इस दिन बहन दूज बनाकर भाई को हल्दी, अक्षत रोली का तिलक करे। तिलक करने के बाद भाई को फल, मिठाई खाने के लिए दे। भाई भी अक्षत रोली का तिलक करे। भाई भी बहन को स्वर्ण, वस्त्र, आभूषण तथा द्रव्य देकर प्रसन्न करे। बहन के चरण स्पर्श कर आशीष ले। बहन चाहे छोटी या आयु में बड़ी हो उसके चरण स्पर्श अवश्य करें। भैया दूज के ही दिन चित्रगुप्त पूजा भी होती है। 

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

अहोई अष्टमी व्रत

                                                 


व्रत अहोई आठे के नाम से भी जाना जाता है. यह व्रत कार्तिक मास की अष्टमी तिथि के दिन संतानवती स्त्रियों के द्वारा किया जाता है. अहोई अष्टमी का पर्व मुख्य रुप से अपनी संतान की लम्बी आयु की कामना के लिये किया जाता है. इस पर्व के विषय में एक ध्यान देने योग्य पक्ष यह है कि इस व्रत को उसी वार को किया जाता है. जिस वार को दिपावली हों. इस पर्व के विषय में एक ध्यान देने योग्य पक्ष यह है कि इस व्रत को उसी वार को किया जाता है. जिस वार को दिपावली हो.

अहोई अष्टमी व्रत संक्षिप्त विधि

संतान की शुभता को बनाये रखने के लिये क्योकि यह उपवास किया जाता है. इसलिये इसे केवल माताएं ही करती है. एक मान्यता के अनुसार इस दिन से दीपावली का प्रारम्भ समझा जाता है. अहोई अष्टमी के उपवास को करने वाली माताएं इस दिन प्रात:काल में उठकर, एक कोरे करवे (मिट्टी का बर्तन) में पानी भर कर. माता अहोई की पूजा करती है. पूरे दिन बिना कुछ खाये व्रत किया जाता है. सांय काल में माता को फलों का भोग लगाकर, फिर से पूजन किया जाता है.तथा सांयकाल में तारे दिखाई देने के समय अहोई का पूजन किया जाता है. तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है. और गेरूवे रंग से दीवार पर अहोई मनाई जाती है. जिसका सांयकाल में पूजन किया जाता है. कुछ मीठा बनाकर, माता को भोग लगा कर संतान के हाथ से पानी पीकर व्रत का समापन किया जाता है. अहोई अष्टमी के व्रत की विधि विस्तार में निम्न है.

अहोई अष्टमी व्रत विधि विस्तार से 

अहोई व्रत के दिन व्रत करने वाली माताएं प्रात: उठकर स्नान करे, और पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु व सुखमय जीवन हेतू कामना करती है. और माता अहोई से प्रार्थना करती है, कि हे माता मैं अपनी संतान की उन्नति, शुभता और आयु वृ्द्धि के लिये व्रत कर रही हूं, इस व्रत को पूरा करने की आप मुझे शक्ति दें. यह कर कर व्रत का संकल्प लें. एक मान्यता के अनुसार इस व्रत को करने से संतान की आयु में वृ्द्धि, स्वास्थय और सुख प्राप्त होता है. साथ ही माता पार्वती की पूजा भी इसके साथ-साथ की जाती है. क्योकि माता पार्वती भी संतान की रक्षा करने वाली माता कही गई है.

उपवास करने वाली स्त्रियों को व्रत के दिन क्रोध करने से बचना चाहिए. और उपवास के दिन मन में बुरा विचार लाने से व्रत के पुन्य फलों में कमी होती है. इसके साथ ही व्रत वाले दिन, दिन की अवधि में सोना नहीं चाहिए. अहोई माता की पूजा करने के लिये अहोई माता का चित्र गेरूवे रंग से मनाया जाता है. इस चित्र में माता, सेह और उसके सात पुत्रों को अंकित किया जाता है. संध्या काल में इन चित्रों की पूजा की जाती है.

सायंकाल की पूजा करने के बाद अहोई माता की कथा का श्रवण किया जाता है. इसके पश्चात सास-ससुर और घर में बडों के पैर छुकर आशिर्वाद लिया जाता है. तारे निकलने पर इस व्रत का समापन किया जाता है. तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है. और तारों की आरती उतारी जाती है. इसके पश्चात संतान से जल ग्रहण कर, व्रत का समापन किया जाता है.


अहोई व्रत कथा 


अहोई अष्टमी की व्रत कथा के अनुसार किसी नगर में एक साहूकार रहता था. उसके सात लडके थें. दीपावली आने में केवल सात दिन शेष थें, इसलिये घर की साफ -सफाई के कार्य घर में चल रहे थे, इसी कार्य के लिये साहुकार की पत्नी घर की लीपा-पोती के लिये नदी के पास की खादान से मिट्टी लेने गई. खदान में जिस जगह मिट्टी खोद रही थी, वहीं पर एक सेह की मांद थी. स्त्री की कुदाल लगने से सेह के एक बच्चे की मृ्त्यु हो गई.
यह देख साहूकार की पत्नी को बहुत दु:ख हुआ. शोकाकुल वह अपने घर लौट आई. सेह के श्राप से कुछ दिन बाद उसके बडे बेटे का निधन हो गया. फिर दूसरे बेटे की मृ्त्यु हो गई, और इसी प्रकार तीसरी संतान भी उसकी नहीं रही, एक वर्ष में उसकी सातों संतान मृ्त्यु को प्राप्त हो गई.

अपनी सभी संतानों की मृ्त्यु के कारण वह स्त्री अत्यंत दु:खी रहने लगी. एक दिन उसने रोते हुए अपनी दु:ख भरी कथा अपने आस- पडोस कि महिलाओं को बताई, कि उसने जान-बुझकर को पाप नहीं किया है. अनजाने में उससे  सेह के बच्चे की हत्या हो गई थी. उसके बाद मेरे सातों बेटों की मृ्त्यु हो गई. यह सुनकर पडोस की वृ्द्ध महिला ने उसे दिलासा दिया. और कहा की तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप नष्ट हो गया है.
तुम माता अहोई अष्टमी के दिन माता भगवती की शरण लेकर सेह और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उनकी आराधना कर, क्षमा याचना करों, तुम्हारा कल्याण होगा. ईश्वर की कृपा से तुम्हारा पाप समाप्त हो जायेगा.

साहूकार की पत्नी ने वृ्द्ध महिला की बात मानकार कार्तिक मास की कृ्ष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि का व्रत कर माता अहोई की पूजा की, वह हर वर्ष नियमित रुप से ऎसा करने लगी, समय के साथ उसे सात पुत्रों की प्राप्ति हुई, तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रारम्भ हुई है.


अहोई माता की आरती


जय अहोई माता, जय अहोई माता!
तुमको निसदिन ध्यावत हर विष्णु विधाता। टेक।।
ब्राहमणी, रुद्राणी, कमला तू ही है जगमाता।
सूर्य-चंद्रमा ध्यावत नारद ऋषि गाता।। जय।।
माता रूप निरंजन सुख-सम्पत्ति दाता।।
जो कोई तुमको ध्यावत नित मंगल पाता।। जय।।
तू ही पाताल बसंती, तू ही है शुभदाता।
कर्म-प्रभाव प्रकाशक जगनिधि से त्राता।। जय।।
जिस घर थारो वासा वाहि में गुण आता।।
कर न सके सोई कर ले मन नहीं धड़काता।। जय।।
तुम बिन सुख न होवे न कोई पुत्र पाता।
खान-पान का वैभव तुम बिन नहीं आता।। जय।।
शुभ गुण सुंदर युक्ता क्षीर निधि जाता।
रतन चतुर्दश तोकू कोई नहीं पाता।। जय।।
श्री अहोई माँ की आरती जो कोई गाता।
 उर उमंग अति उपजे पाप उतर जाता।। जय।!!