तात्पर्य यह कि जहाँ हम अपने मन का द्वार खोलते हैं, वह स्थान मंदिर है। म + न म अर्थात मम = मैं न अर्थात नहीं जहाँ मैं नहीं !!
अर्थात जिस स्थान पर जाकर हमारा 'मैं' यानि अंहकार 'न' रहे वह स्थान मंदिर है। ईश्वर हमारे मन में ही है, अत: जहाँ 'मैं' 'न'रह कर केवल ईश्वर हो वह स्थान मंदिर है।
अध्यात्म के मार्ग में क्या भौतिकता अनिवार्य है ! मंदिर की आवश्यकता नही है ! रत्नों से सज्जित शिवलिंग भी आवशकता नही है किसी व्यक्ति की स्वकृति आवशकता नही है मेरे भक्तो से मेरा सम्बन्ध तोह वयक्तित्व है उसमे किसी भी प्रकार माध्यम अनिवार्य नही है रूप देह स्वस संस्कृति समाज नियम विधि या विधान किसी भी प्रकार का बंधन अनिवाय नही है !
मैं अपने भक्तो की कृपा उनकी भावनाओ के अनुपात करता हूँ ! किसी माध्यम पर उनकी उपलब्धियों के आधार पर नही या इसके अनुसार भी नही के मेरे भक्त ने भक्ति किन बहुमूलयो रत्नों से या कितने भव्य मंदिर में की है ! मैं किसी स्थान तक सिमित नही रह सकता मैं तोह सर्वयापी हूँ तुम मुझे अपने भीतर ढूंढ कर बहार ढूंढने की आवशकता ही क्या है!
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