मंगलवार, 27 जून 2017

हनुमानजी को सिंदूर चढ़ाने के पीछे क्या कारण या कथा है?







सिंदूर चढ़ाने के पीछे क्या कारण या कथा है? अगर नहीं तो जानिए क्या कहते हैं शास्त्र और क्यों प्रिय हैं हनुमान जी को सिंदूर...


मंगलवार यानी हनुमानजी की पूजा-अर्चना का दिन और उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी प्रिय वस्तुओं को उन पर अर्पण करने का दिन. अक्सर ही देखा जाता है कि हनुमान जी को सिंदूर चढ़ाया जाता है और कई लोग मन्नत पूरी होने के बाद भी हनुमानजी पर सिंदूर चढ़ाते हैं. क्या आप जानते हैं कि ऐसा क्यों किया जाता है?
रामायण में प्रसिद्ध है एक कथा


श्री हनुमान जी ने जगजननी श्री सीता जी के मांग में सिंदूर लगा देखकर आश्चर्यपूर्वक पूछा- माता! आपने यह लाल द्रव्य मस्तक पर क्यों लगाया है? सीता जी ने ब्रह्मचारी हनुमान की इस सीधी-सादी बात पर प्रसन्न होकर कहा, पुत्र! इसके लगाने से मेरे स्वामी की दीर्घायु होती है और वह मुझ पर प्रसन्न रहते हैं. श्री हनुमान ने यह सुना तो बहुत प्रसन्न हुए और विचार किया कि जब उंगली भर सिंदूर लगाने से आयुष्य वृद्धि होती है तो फिर क्यों न सारे शरीर पर इसे पोतकर अपने स्वामी को अजर-अमर कर दूं.



हनुमान जी ने वैसा ही किया. सारे शरीर में सिंदूर पोतकर सभा में पहुंचे तो भगवान उन्हें देखकर हंसे और बहुत प्रसन्न भी हुए. हनुमान जी को माता जानकी के वचनों में और अधिक दृढ़ विश्वास हो गया. कहते हैं उस दिन से हनुमान जी को इस उदात्त स्वामी-भक्ति के स्मरण में उनके शरीर पर सिंदूर चढ़ाया जाने लगा.
हनुमान चालीसा में भी वर्णित है - राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा ।।



इस बात से सिद्ध होता है कि हनुमान जी जीवनदायिनी बूटी के समान हैं, जिनकी उपासना से शारीरिक रूप से निर्बल भक्त में भी ऊर्जा का संचार होता है और वह स्वस्थ रहता है.




सिंदूर चढ़ाते वक्त करें इस मंत्र का जप
श्री हनुमान की प्रतिमा पर सिंदूर का चोला चढ़ाने जा रहे हैं तो पहले उनकी प्रतिमा को जल से स्नान कराएं. इसके बाद सभी पूजा सामग्री अर्पण करें. इसके बाद मंत्र का उच्चारण करते हुए चमेली के तेल में सिंदूर मिलाकर या सीधे प्रतिमा पर हल्का सा देसी घी लगाकर उस पर सिंदूर का चोला चढ़ा दें.

शनिवार, 17 जून 2017

समय की गणना करो






समय की गणना करो तो एक शन का वियोग कितना लम्बा परतीत हो सकता है, और यदि गणना न करे तो इस वियोग का अस्तित्व ही क्या है, और जिसे तुम वियोग समझ रहे हो वो मेरे लिए तुम्हे पुनः पाने का एक और अवसर तुम्हारे एक और सवरूप से प्रेम करने का अवसर.

तुम मुझसे पृथक होने के लिए दूर नहीं हुई हो अभी तो पुनः मुझसे मिलने के लिए दूर हुई हो और यह ना पहली बार हुआ ना अंतिम बार विभिन प्रस्तिथियो में हम दूर हुए है और होते रहेंगे.

किन्तु प्रस्तिथियो में परिवर्तन होने से हमारे प्रेम में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, तुम्हारे सवरूप में परिवर्तन होने से हमारी अनुभूतियों में कोइ परिवर्तन नहीं हुआ है क्युकी प्रेम शाश्वत है तुम्हारा कोइए भी रूप हो तुम और मैं हम एक है, तुम्हारे मान और सामान के प्रति मैं उत्तरदाई हूँ चेतन अवचेतन मन से तुमने जो इच्छा की है उसकी पूर्ति हेतु मैं सदा तत पर हूँ. 

किन्तु समरण रहे उचित समय आने पर मैं तुम्हे लेने आऊंगा पुनः अपनी पत्नी के रूप में.

शनिवार, 10 जून 2017

शनिकथा तथा इतिहास


हमारे दैनंदिन जीवन में तेजपुंज तथा शक्तिशाली शनि का अदभुत महत्व है | वैसे शनि सौर जगत के नौ ग्रहों में से सातवा ग्रह है; जिसे फलित ज्योतिष में अशुभ माना जाता है | आधुनिक खगोल शास्त्र के अनुसार शनि की धरती से दुरी लगभग नौ करोड मील है | इसका व्यास एक अरब बयालीस करोड साठ लाख किलोमीटर है तथा इसकी गुरुत्व शक्ति धरती से पंचानवे गुना अधिक है | शनि को सूरज की परिक्रमा करने पर उन्नीस वर्ष लगते है | अंतरिक्ष में शनि सधन नील आभा से खूबसूरत , बलवान , प्रभावी , दृष्टिगोचर है, जिसे २२ उपग्रह है |
शनि का गुरुत्वाकर्षण बल पृथ्वी से अधिकतम है | अत: जब हम कोई भी विचार मन में लाते है , योजना बनाते है, तो वह प्रत्सावित अच्छी - बुरी योजना चुंबकीय आकर्षन से शनि तक पहुँचती है और अच्छे का परिणाम अच्छा जब की बुरे का बुरा परिणाम जल्द दे देती है | बुरे प्रभाव को फलज्योतिष में अशुभ माना गया है | लेकिन अच्छे का परिणाम अच्छा होता है अत: हम शनि को शत्रु नहीं मित्र समझे और बुरे कर्मो के लिए वह साडेसाती है, आफत है ; शत्रु है |
शनिदेव की जन्म गाथा या उत्पति के संदर्भ में अलग - अलग कथा है | सबसे अधिक प्रचलित शनि उत्पति की गाथा स्कंध पुराण के काशीखण्ड में इस प्रकार प्रस्तुत
सूर्यदेवता का ब्याह दक्ष कन्या संज्ञा के साथ हुआ | संज्ञा सूर्यदेवता का अत्याधिक तेज सह नहीं पाती थी | उन्हें लगता था की मुझे तपस्या करके अपने तेज को बढ़ाना होगा या तपोबल से सूर्य की अग्नि को कम करना होगा; लेकिन सूर्य के लिए वो पतिव्रता नारी थी | सूर्य के द्वारा संज्ञा के गर्भ से तीन संतानों का जन्म हुआ - . वैवस्वत मनु . यमराज . यमुना. संज्ञा बच्चों से बहुत प्यार करती थी; मगर सूर्य की तेजस्विता के कारण बहुत परेशान रहती थी | एक दिन संज्ञा ने सोचा कि सूर्य से अलग होकर मै अपने मायके जाकर घोर तपस्या करूंगी; और यदि विरोध हुआ तो कही दूर एकान्त में जाकर तप करना उचित रहेगा |
संज्ञा ने तपोबल से अपने ही जैसी दिखने वाली छाया को जन्म दिया, जिसका नाम ' सुवर्णा ' रखा अत: संज्ञा की छाया सुवर्णा | छाया को अपने बच्चोँ की जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा कि आज से तुम नारी धर्म मेरे स्थान पर निभाओगी और बच्चों कि परवरिश भी करोगी | अगर कोई आपत्ति जाये तो मुझे बुला लेना मै दौडी चली आऊँगी, मगर एक बात याद रखना कि तुम छाया हो संज्ञा नहीं यह भेद कभी किसी को पता नहीं चलना चाहिए |
संज्ञा छाया को अपनी जिम्मेदारी सौपकर अपने पीहर - मायके चली गयी | घर पहुँचकर पिताश्री को बताया कि मै सूर्य का तेज सहन नहीं करसकती, अत: तप करने अपने पति से बिना कुछ कहे मायके आयी हूँ | सुनकर पिताने संज्ञा को बहुत डाटा - फटकारा और कहा कि , ' बिन बुलाये बेटी यदि मायके में आए तो पिता पुत्री को दोष लगता है | बेटी तुम जल्द अपने ससुराल सूर्य के पास लौट जाओ ' ,तब संज्ञा सोचने लगी कि यदि मै वापस लौटकर गई तो छाया को मैंने जो कार्यभार सौंपा है उसका क्या होगा ? छाया कहाँ जायेगी ? सोचकर संज्ञा ने भीषण , घनघोर जंगल में , ( जो उत्तर कुरुक्षेत्र में था ) शरण ले ली |
अपनी खुबसूरती तथा यौवन को लेकर उसे जंगल में डर था अत: उसने बडवा - घोडी का रूप बना लिया कि कोई उसे पहचान सके और तप करने लगी | धर सूर्य और छाया के मिलन से तीन बच्चों का जन्म हुआ | सूर्य छाया दोनों एक दूसरे पर संतुष्ट थे, सूर्य को कभी संदेह नहीं हुआ | छाया ने जिन तीन बच्चों को जन्म दिया वे है - . मनु .शनिदेव . पुत्री भद्रा ( तपती )
दूसरी कथा के अनुसार शनिदेव कि उत्पति महर्षि कश्यप के अभिभावकत्व में कश्यप यज्ञ से हुई | जब शनिदेव छाया के गर्भ में थे तो शिव भक्तिनी छाया ने शिव कि तनी तपस्या की कि उन्हें अपने खाने - पीने तक का ख्याल नहीं रहता था | अपने को इतना तपाया की गर्भ के बच्चे पर भी तप का परिणाम हुआ , और छाया के भूखे प्यासे धुप-गर्मी में तपन से गर्भ में ही शनि का रंग काला हो गया | जब शनि का जन्म हुआ तो सूर्यदेव शनि को काले रंग का देखकर हैरान हो गए | उन्हें छाया पर शक हुआ | उन्होंने छाया का अपमान कर डाला , कहा कि 'यह मेरा बेटा नहीं है |'
श्री शनिदेव के अन्दर जन्म से माँ कि तपस्या शक्ति का बल था; उन्होंने देखा कि मेरे पिता , माँ का अपमान कर रहे है | उन्होने क्रूर दृष्टी से अपने पिता को देखा , तो पिता कि पूरी देह का रंग कालासा हो गया | घोडों की चाल रुक गयी | रथ आगे नहीं चल सका | सूर्यदेव परेशान होकर शिवजी को पुकारने लगे | शिवजी ने सूर्यदेव को सलाह बताई और कथन किया की आपके द्वारा नारी पुत्र दोनों की बेज्जती हुई है इसलिए यह दोष लगा है | सूर्यदेव ने अपनी गलती की क्षमा मांगी और पुनश्च सुन्दर रूप एवं घोडों की गति प्राप्त की | तब से श्री शनिदेव पिता के विद्रोही और शिवाजी के भक्त तथा माता के प्रिय हो गए |
लोगों की ऐसी मान्यता है , समझ है , सूर्यमाला में जो शनि है , वहि शनिदेव का प्रतिक है , अर्थात या वैदिक संकल्पना है , शनिग्रह पत्थर, लोह से बना है जिसके ऊपर बरफ तथा द्रवपूर्ण हायड्रोजन की परत है | इसके तेजोवलय ६२००० किलोमीटर चौडे है , जो स्थूल मोटेरूप में १०० मीटर है |
हमारे जीवन में जन्म से लेकर , मृत्यु तक शनिदेव का प्रभुत्व है | जन्मते ही जातक के परिवार वालों की अभिलाषा होती है की हमारी राशि में या जन्म लेने वाले बच्चे की राशि में शनि कैसा है ? कौन से पाये पर बच्चे का जन्म हुआ है | प्रस्तुत पाये की पहचान की शनि के अच्छे - बुरे होने की पहचान जन्म से बतलाता है | अपने शरीर में लौह तत्व है , उस आयरन तत्व का स्वामी शनि है | शनि के कमजोर होने से , शनि के प्रकोप , शनि पीड़ा से वह आयरन तत्व शरीर में कम हो जाता है | आयरन की कमी से तमाम प्रकार की शारीरिक व्याधियों व्यक्ति को कमजोर करती है | आयरन है शरीर में तो बल है | आयरन के बिना शरीर की उर्जा समाप्त हो जाती है | शनि जिनका प्रबल है , उन्हें आयरन की हैरानी कभी नहीं होती है |