मंगलवार, 21 अगस्त 2018

अघोर पंथ


अघोर पंथ के साधुओं के बारे में गलत बातें अधिक चर्चित हैं।मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जो शमशान जैसी भयावह और विचित्र जगह पर भी उसी सहजता से रह सके जैसे लोग घरों में रहते हैं। अघोर पंथ की उत्पत्ति अघोर पंथ के प्रणेता भगवान शिव माने जाते हैं।ज्यादातर लोगों को अघोर पंथी काफी भयावह, रक्त, मांस, मदिरा और मैथुन जैसे कृत्यों में संलग्न नज़र आते हैं। अघोर पंथ के अनुयायियों के विषय में सामान्य मान्यता यह है कि वे दीन-दुनिया से दूर सांसारिकता से विरक्त एक खास संन्यासी समुदाय हैं, जिनका कार्य केवल अपनी ईष्ट सिद्धि के लिए भयंकरतम कृत्यों में रत रहना होता है।

कहा जाता है कि भगवान शिव ने स्वयं अघोर पंथ को प्रतिपादित किया था। अवधूत भगवान दत्तात्रेय को भी अघोरशास्त्र का गुरु माना जाता है। अवधूत दत्तात्रेय को भगवान शिव का अवतार भी मानते हैं। अघोर संप्रदाय के विश्वासों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों के अंश और स्थूल रूप में दत्तात्रेय जी ने अवतार लिया।

“अघोर” शब्द का संधि विच्छेद करना चाहिए। आप पाएंगे कि अघोर शब्द की उत्पत्ति “अ” एवं “घोर” शब्दों के सम्मिलन से हुई है।


अघोर संप्रदाय के एक संत के रूप में बाबा किनाराम की पूजा होती है। अघोर संप्रदाय के व्यक्ति शिव जी के अनुयायी होते हैं। इनके अनुसार शिव स्वयं में संपूर्ण हैं और जड़, चेतन समस्त रूपों में विद्यमान हैं। इस शरीर और मन को साध कर और जड़-चेतन और सभी स्थितियों का अनुभव कर के और इन्हें जान कर मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। क्या करते हैं अघोरी अघोर संप्रदाय के साधक समदृष्टि के लिए नर मुंडों की माला पहनते हैं और नर मुंडों को पात्र के तौर पर प्रयोग भी करते हैं। चिता के भस्म का शरीर पर लेपन और चिताग्नि पर भोजन पकाना इत्यादि सामान्य कार्य हैं।

इसका कारण है कि वे दुनिया में रहते हुए सांसारिकता को त्याग चुके होते हैं और ये क्रिया अन्य पंथियों के लिए मुश्किल साबित होती है। अन्य पंथों में इस निर्दोषता और जागरण की अवस्था प्राप्त करने के लिए सांसारिकता सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।
प्रमुख अघोर स्थान वाराणसी या काशी को भारत के सबसे प्रमुख अघोर स्थान के तौर पर मानते हैं। भगवान शिव की स्वयं की नगरी होने के कारण यहां विभिन्न अघोर साधकों ने तपस्या भी की है। यहां बाबा कीनाराम का स्थल एक महत्वपूर्ण तीर्थ भी है।

साधना की इस विशेष विधि में श्मशान में मृत शरीर के ऊपर पैर रख कर चिता भस्म लपेटे अघोरी उपासना के लिए कपाल और अंगुलि माला का प्रयोग करते हैं। इसके साथ ही वे मृत शरीर को खाते हैं तथा रक्तपान करते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि इससे समदर्शिता प्राप्त होती है। इसके अलावा घृणा-द्वेष आदि विकारों का परिमार्जन भी होता है। अघोर दृष्टि में स्थान भेद भी नहीं होता अर्थात महल या श्मशान घाट एक समान होते हैं।

अघोरियों का स्वभाव अघोरियों के बारे में मान्यता है कि बड़े ही रूखे स्वभाव के होते हैं लेकिन भीतर उनमें जन कल्याण की भावना छुपी होती है। अगर किसी पर मेहरबान हो जाए तो अपनी सिद्धि का शुभ फल देने में भी नहीं हिचकते और अपनी तांत्रिक क्रियाओं का रहस्य भी उजागर कर देते हैं। यहां तक कि कोई उन्हें अच्छा लग जाए तो उसे वह अपनी तंत्र क्रिया सीखाने को भी राजी हो जाते हैं लेकिन इनका क्रोध प्रचंड होता है। इनकी वाणी से सावधान रहना चाहिए। इनके आशीर्वाद शीघ्र प्रतिफलित होते हैं। यह अगर खुश हो जाए तो आपकी किस्मत बदलने की क्षमता रखते हैं। आमतौर पर यह किसी से खुलकर बात नहीं करते। अपने आप में मगन रहने वाले यह तांत्रिक, समाज से दूर रहते हैं, हिमालय की कठिन तराइयों में इनका वास होता है। कहते हैं इन्हें साक्षात शिव भी दर्शन देते हैं। और जब तक इन्हें ना छेड़ा जाए किसी का अहित नहीं करते।


अघोरी साधना कहां होती है ?

अघोरी श्‍मशान घाट में तीन तरह से साधना करते हैं - श्‍मशान साधना, शिव साधना, शव साधना। ऐसी साधनाएं अक्सर तारापीठ के श्‍मशान, कामाख्या पीठ के श्‍मशान, त्र्यम्‍बकेश्वर और उज्जैन के चक्रतीर्थ के श्‍मशान में होती है।






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