रविवार, 7 अक्तूबर 2018

भक्तियोग क्या है?



भक्ति योग भजनकुर्यामइष्ट देवता में अनुराग रख कर आन्तरिक विकास। भजन कीर्तन व सत्संग करना।

भक्ति का अर्थ है प्रेम और ईश्वर के प्रति निष्ठा - सृष्टि के प्रति प्रेम और निष्ठा, सभी प्राणियों के प्रति सम्मान और उनका संरक्षण। हर कोई भक्तियोग का अभ्यास कर सकता है, चाहे छोटा हो या बड़ा, धनी अथवा निर्धन, चाहे वह किसी भी राष्ट्र या धर्म से संबंध रखता हो। भक्तियोग का मार्ग हमें अपने उद्देश्य की ओर सीधा और सुरक्षित पहुंचा देता है।

भक्तियोग में ईश्वर के किसी रूप की आराधना भी सम्मिलित है। ईश्वर सब जगह है। ईश्वर हमारे भीतर और हमारे चारों ओर निवास करता है। यह ऐसा है जैसे हम ईश्वर से एक उत्तम धागे से जुड़े हों - प्रेम का धागा। ईश्वर विश्व प्रेम है। प्रेम और दैवी अनुकम्पा हमारे चारों ओर है और हमारे माध्यम से बहती है, किन्तु हम इसके प्रति सचेत नहीं हैं। जिस क्षण यह चेतनता, यह दैवीय प्रेम अनुभव कर लिया जाता है उसी क्षण से व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की चाहना ही नहीं करता। तब हम ईश्वर प्रेम का सच्चा अर्थ समझ जाते हैं।
भक्तिहीन व्यक्ति एक जलहीन मछली के समान, बिना पंख के पक्षी, बिना चन्द्रमा और तारों के रात्रि के समान है। सभी को प्रेम चाहिये। इसके माध्यम से हम वैसे ही सुरक्षित और सुखी अनुभव करते हैं जैसे एक बच्चा अपनी माँ की बाहों में या एक यात्री एक लम्बी कष्टदायी यात्रा की समाप्ति पर अनुभव करता है।

भक्तियोग से तात्पर्य भक्ति के माध्यम से ईश्वरानुभूति या परमतत्त्व के साथ योग है। भक्तियोग भक्तिमार्ग का साधन है। विवेकानन्द के अनुसार भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल सहज मार्ग है।

यह योग भावनाप्रधान और प्रेमी प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए उपयोगी है। वह ईश्वर से प्रेम करना चाहता है और सभी प्रकार के क्रिया-अनुष्ठान, पुष्प, गन्ध-द्रव्य, सुन्दर मन्दिर और मूर्ति आदि का आश्रय लेता और उपयोग करता है। प्रेम एक आधारभूत एवं सार्वभौम संवेग है। यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से डरता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसे अपने जीवन से प्रेम है। यदि कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो इसका तात्पर्य यह है कि उसे स्वार्थ से प्रेम है। किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र आदि से विशेष प्रेम हो सकता है। इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है। यदि यही प्रेम परमात्मा से हो जाय तो वह मुक्तिदाता बन जाता है। ज्यों-ज्यों ईश्वर से लगाव बढ़ता है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से लगाव कम होने लगता है। जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य लेकर ईश्वर का ध्यान करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता। पराभक्ति ही भक्तियोग के अन्तर्गत आती है जिसमें मुक्ति को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होती। भक्तियोग शिक्षा देता है कि ईश्वर से, शुभ से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ति के लिए। वह यह सिखाता है कि प्रेम का सबसे बढ़ कर पुरस्कार प्रेम ही है और स्वयं ईश्वर प्रेम स्वरूप है। विष्णु पुराण में भक्तियोग की सर्वोत्तम परिभाषा दी गयी है।

॥ या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।

त्वामनुस्मरत: सा मे हृदयान्मापसमर्पतु ॥

‘‘हे ईश्वर! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी तुझमें हो और तेरा स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे।’’ भक्तियोग सभी प्रकार के संबोधनों द्वारा ईश्वर को अपने हृदय का भक्ति-अर्घ्य प्रदान करना सिखाता है- जैसे, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी आदि। सबसे बढ़कर वाक्यांश जो ईश्वर का वर्णन कर सकता है, सबसे बढ़कर कल्पना जिसे मनुष्य का मन ईश्वर के बारे में ग्रहण कर सकता है, वह यह है कि ‘ईश्वर प्रेम स्वरूप है’। जहाँ कहीं प्रेम है, वह परमेश्वर ही है। जब पति पत्नी का चुम्बन करता है, तो वहाँ उस चुम्बन में वह ईश्वर है। जब माता बच्चे को दूध पिलाती है तो इस वात्सल्य में वह ईश्वर ही है। जब दो मित्र हाथ मिलाते हैं, तब वहाँ वह परमात्मा ही प्रेममय ईश्वर के रूप में विद्यमान है। मानव जाति की सहायता करने में भी ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट होता है। यही भक्तियोग की शिक्षा है।

भक्तियोग भी आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता आदि गुणों की अपेक्षा भक्त से करता है क्योंकि चित्त की निर्मलता के बिना नि:स्वार्थ प्रेम सम्भव ही नहीं है। प्रारम्भिक भक्ति के लिए ईश्वर के किसी स्वरूप की कल्पित प्रतिमा या मूर्ति (जैसे दुर्गा की मूर्ति, शिव की मूर्ति, राम की मूर्ति, कृष्ण की मूर्ति, गणेश की मूर्ति आदि) को श्रद्धा का आधार बनाया जाता है। किन्तु साधारण स्तर के लोगों को ही इसकी आवश्यकता पड़ती है।

भक्ति सूत्रों में नारद मुनि (ऋषि) ने भक्तियोग के नौ तत्वों का वर्णन किया है:-
  1. सत्संग-अच्छा आध्यात्मिक साथ
  2. हरि कथा-ईश्वर के बारे में सुनना और पढऩा
  3. श्रद्धा-विश्वास
  4. ईश्वर भजन-ईश्वर के गुणगान करना
  5. मंत्र जप-ईश्वर के नामों का स्मरण
  6. शम दम-सांसारिक वस्तुओं के संबंध में इन्द्रियों पर नियंत्रण
  7. संतों का आदर-ईश्वर को समर्पित जीवन वाले व्यक्तियों के समक्ष सम्मान प्रगट करना।
  8. संतोष-संतुष्टि
  9. ईश्वर प्रणिधान-ईश्वर की शरण

 वास्तव में भक्ति के आधार भावना एवं इसकी परिणति के रूप में निम्न हो सकते हैं –
1--- श्रद्धा
2--- आस्था
3--- विश्वास
4--- ईश्वर-प्रकाशना

भक्ति की विशेषताएं 
1---भक्ति अन्य मार्गों की अपेक्षा सरल मार्ग है।
2---यह सभी के लिये समान रूप से खुला है, जाति, धर्म, लिंग आधारित नहीं है।
3---विशेष अर्हता, विशेष ज्ञान, सक्षमता की कमी इसमें बाधक नहीं हैं।
4---भक्त का सरल, सहज एवं निर्मल होना ही भक्ति में आधारभूत है।
5---भक्ति, भक्त एवं भगवान के द्वैत (दो तत्त्व) पर आधारित है।

इस प्रकार इसमें तीन प्रमुख तत्त्व हैं 
1---भक्त, - साधक, उपासक, भजने वाला, व्रती इत्यादि
2---भक्ति – उपासना, साधना, भजन, कीर्तन आदि,
3---भगवान – भक्ति का आदर्श, ईश्वर, परमतत्त्व
भक्ति भावना प्रधान एवं द्विरेखीय है, अर्थात् जैसी निष्ठा एवं समर्पण भक्त का भगवान के प्रति होता है, वैसा ही उसे अपने आदर्श (भगवान) का स्वरूप दिखायी देता है।

भक्ति के प्रकार 
भक्ति दो प्रकार की हो सकती है ।
1---सोपाधिक भक्ति
2---निरूपाधिक भक्ति

सोपाधिक भक्ति से तात्पर्य है उपाधि या शर्त के साथ। उदारहणार्थ यदि किसी विशेष इच्छा पूर्ति हेतु भक्ति आरम्भ होती है, एवं उसके मिलने से समाप्त होती है तो ऐसी भक्ति सोपाधिक है।
निरूपाधिक भक्ति से तात्पर्य है बिना शर्त, प्रयोजन रहित (समर्पण)। जब भक्ति केवल ईश्वरोपासाना के लिये ईश्वरोपासना करता है तब निरूपाधिक भक्ति होती है।
निरूपाधिक भक्ति भक्ति की उच्चतर अवस्था है। जब साधक या भक्त या अनुभूत करता है कि सभी कुछ यहाँ तक की उसकी देह मन बुद्धि सभी भगवान मय है, तथा भगवान से पृथक या अलग कुछ भी नहीं तब उसे अपने लिये कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता, तब भक्ति निरुपाधिक हो जाती है।

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