सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

भगवान शिव को ही लिंग रूप में क्यों पूजा जाता है ?



शिव ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल अर्थात निराकार हैं । उनका न कोई स्वरूप है और न ही आकार वे निराकार हैं । आदि और अंत न होने से लिंग को शिव का निराकार रूप माना जाता है । जबकि उनके साकार रूप में उन्हे भगवान शंकर मानकर पूजा जाता है ।

केवल शिव ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते हैं । लिंग रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण माने गए हैं।इसलिए शिव मूर्ति और लिंग दोनों रूपों में पूजे जाते हैं । यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है । बिंदु शक्ति है और नाद शिव । यही सबका आधार है । बिंदु एवं नाद अर्थात शक्ति और शिव का संयुक्त रूप ही तो शिवलिंग में अवस्थित है । बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि।
यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है ।

'शिव' का अर्थ है – ‘परम कल्याणकारी’ और ‘लिंग’ का अर्थ है–‘सृजन’। शिव के वास्तविक स्वरूप से अवगत होकर जाग्रत शिवलिंग का अर्थ होता है प्रमाण ।

वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है । यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है । मन ,बुद्धि ,पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां व पांच वायु । आमतौर पर शिवलिंग को गलत अर्थों में लिया जाता है, जो कि अनुचित है या उचित यह हम नहीं जानते ।

वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसे लिंग कहते हैं । इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है ।

पौराणिक दृष्टि से लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं । केवल लिंग की पूजा करने मात्र से समस्त देवी देवताओं की पूजा हो जाती है । लिंग पूजन परमात्मा के प्रमाण स्वरूप सूक्ष्म शरीर का पूजन है । शिव और शक्ति का पूर्ण स्वरूप है शिवलिंग ।

शिव के निराकार स्वरूप में ध्यान-मग्न आत्मा सद्गति को प्राप्त होती है, उसे परब्रह्म की प्राप्ति होती है तात्पर्य यह है कि हमारी आत्मा का मिलन परमात्मा के साथ कराने का माध्यम-स्वरूप है,शिवलिंग । शिवलिंग साकार एवं निराकार ईश्वर का ‘प्रतीक’ मात्र है, जो परमात्मा- आत्म-लिंग का द्योतक है ।

शिवलिंग का अर्थ है शिव का आदि-अनादी स्वरूप । शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड व निराकार परमपुरुष का प्रतीक । स्कन्दपुराण अनुसार आकाश स्वयं लिंग है । धरती उसका आधार है व सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है । शिवलिंग हमें बताता है कि संसार मात्र पौरुष व प्रकृति का वर्चस्व है तथा दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

शिव पुराण अनुसार शिवलिंग की पूजा करके जो भक्त भगवान शिव को प्रसन्न करना चाहते हैं उन्हें प्रातः काल से लेकर दोपहर से पहले ही इनकी पूजा कर लेनी चाहिए । इसकी पूजा से मनुष्य को भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

गुप्तेश्वर महादेव जहाँ होता है गौमुख से अभिषेक


इंदौर शहर के प्रचीनतम मंदिरों में से एक है देव गराड़िया स्थित गुप्तेश्वर महादेव मंदिर। यह मंदिर इंदौर शहर से करीब 15 किमी दूर स्थित है। गांव गराड़िया नेमावर रोड़ पर एक छोटा सा गांव हैं। इस मंदिर का निर्माण 18वीं सदी में देवी अहिल्याबाई ने करवाया था। देव गुराड़िया के बारे में पुराणों में वर्णण है और ऐसा माना भी गया है की भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ ने यहां आकर भगवान शिव की तपस्या की थी। इसलिए ही इस स्थान का नाम देव गुराड़िया पड़ा है। इस स्थान को गरुड़ तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है।


गुप्तेश्वर मंदिर में विराजित शिवलिंग पर अभिषेक एक प्राकृतिक गौमुख से जल निकलने से होता है। यह जल पिंडी के ऊपर से गिरकर मंदिर के पास बने कुंड में गिरता है और यहां इकट्ठा हो जाता है। मान्यता है कि मंदिर के आसपास बने यह कुंड कभी नहीं सूखते हैं। और ऐसा माना गया है कुंड बुझाता है पूरे गांव की प्यास । पूरे गांव के लोग इसी जलकुंड का पानी पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस जलकुंड में साल के 12 महीनों पानी भरा रहता है। मंदिर के अंदर के कुंड के अलावा मंदिर में 5 कुंड और बने हैं जो कि हमेशा पानी से भरे होते हैं। इनका पानी कभी खाली नहीं होता है।


वैसे तो महादेव के दर्शन के लिए सालभर ही भक्तों का तांता इस मंदिर में लगा रहता है लेकिन यह संख्या सावन के पावन महीने में बढ़ जाती है। यह महीना शिवभक्तों के लिए एक त्यौहार से कम नहीं होता।

मंदिर में एक खास बात और है जो भक्तों को अपनी और आकर्षित करती है, मंदिर में रहता है एक नाग- नागिन का जोड़ा। जो कभी या तो कुंड में या तो कभी शिवालय में भक्तों को दर्शन देते हैं। पुरानी मान्यता है कि जिस भक्त को इनके दर्शन होते हैं उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। हज़ारो भक्त यहाँ आते है अपनी मनोकामना लेकर और भगवान के दर्शन पाकर अभिभूत हो जाते है।

सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

भगवान शिव के विचित्र शिंगार का महत्व!


जानिए शिवजी क्यों करते हैं इतने विचित्र शृंगार, क्या हैं इसका कारण शिव के स्वरूप का विशिष्ट प्रभाव अपनी अलग-अलग प्रकृति को दर्शाता है, हम पौराणिक मान्यता से देखें तो हर आभूषण का विशेष प्रभाव तथा महत्व शास्त्रों में बताया है। जानिए शिवजी के हर शृंगार का अर्थ।

पैरों में कड़ा
यह अपने स्थिर तथा एकाग्रता सहित सुनियोजित चरणबद्ध स्थिति को दर्शाता है। योगीजन भी शिव के समान ही एक पैर में कड़ा धारण करते हैं। अघोरी स्वरूप में भी यह देखने को मिलता है।

मृगछाला 
इस पर बैठकर साधना का प्रभाव बढ़ता है। मन की अस्थिरता दूर होती है। तपस्वी और साधना करने वाले साधक आज भी मृगासन या मृगछाला के आसन को ही अपनी साधना के लिए श्रेष्ठ मानते हैं।

रुद्राक्ष
यह एक फल की गुठली है। इसका उपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में किया जाता है। माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शंकर की आंखों के जलबिंदु (आंसू) से हुई है। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है।

नाग
भगवान शिव परम योगी, परम ध्यानी परम तपस्वी हैं। जब अमृत मंथन हुआ था, तब अमृत कलश के पूर्व गरल (विष) को उन्होंने कंठ में रखा था। जो भी विकार की अग्नि होती है, उन्हें दूर करने के लिए शिव ने विषैले नागों की माला पहनी।

खप्पर 
माता अन्नपूर्णा से शिव ने प्राणियों की क्षुधा शांति के निमित्त भिक्षा मांगी थी, इसका यह आशय है यदि हमारे द्वारा किसी अन्य प्राणी का कल्याण होता है, तो उसको प्रदान करना चाहिए।

डमरू
संसार का पहला वाद्य। इसके स्वर से वेदों के शब्दों की उत्पत्ति हुई। इसलिए नाद ब्रह्म या स्वर ब्रह्म कहा गया है।

त्रिशूल
देवी जगदंबा की परम शक्ति त्रिशूल में समाहित है, यह संसार का समस्त परम तेजस्वी अस्त्र है, जिसके माध्यम से युग युगांतर में सृष्टि के विरुद्ध सोचने वाले राक्षसों का संहार किया है। राजसी, सात्विक और तामसी तीनों ही गुण समाहित है, जो समय-समय पर साधक को उपासना के माध्यम से प्राप्त होता रहता है।

शीश पर गंगा
संसार की पवित्र नदियों में से एक गंगा को जब पृथ्वी की विकास यात्रा के लिए आह्वान किया गया, तो पृथ्वी की क्षमता गंगा के आवेग को सहने में असमर्थ थी, ऐसे में शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को स्थान देकर सिद्ध किया कि आवेग की अवस्था को दृढ़ संकल्प के माध्यम से संतुलित किया जा सकता है।

चंद्रमा
चूंकि चंद्रमा मन का कारक ग्रह माना गया है, चंद्र आभा, प्रज्जवल, धवल स्थितियों को प्रकाशित करता है। जो मन के शुभ विचारों के माध्यम से उत्पन्न होते हैं, ऐसी अवस्था को प्राणी अपने यथायोग्य श्रेष्ठ विचारों को पल्लवित करते हुए सृष्टि के कल्याण में आगे बढ़ें।