सोमवार, 28 अगस्त 2017

नंदी कैसे बने थे शिव के वाहन?




अकसर देखा जाता है कि शिव की मूर्ति के सामने या उनके मंदिर के बाहर शिव के वाहन नंदी की मूर्ति स्थापित होती है। नंदी बैल को पुराणों में भी विशेष स्थान दिया गया है। नंदी अपने ईश्वर शिव का केवल एक वाहन ही नहीं बल्कि उनके परम भक्त होने के साथ-साथ उनके साथी, उनके गणों में सबसे ऊपर और उनके मित्र भी हैं।नंदी बैल को शिव के वाहन के रूप में तो सभी जानते हैं लेकिन इन दोनों का मिलन किन परिस्थितियों में हुआ, किन परिस्थितियों में एक सामान्य सा युवक बैल के रूप में दिखने लगा और किन परिस्थितियों में नंदी, शिव को परम प्रिय हो गए, इस बात पर कम ही लोगों का ध्यान जाता है। चलिए हम आपको बताते हैं नंदी बैल का आध्यात्मिक रहस्य।

पुराणों के अनुसार एक बार ब्रह्मचारी व्रत का पालन करते हुए शिलाद ऋषि को यह भय सताने लगा कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनका पूरा वंश समाप्त हो जाएगा, इसलिए उन्होंने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय किया।लेकिन शिलाद ऋषि किसी आम बच्चे को नहीं बल्कि एक ऐसी संतान को अपनाना चाहते थे जिसके साथ भगवान शिव का आशीर्वाद हो और वह असामान्य रूप से आध्यात्मिक हो।

 इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए शिलाद ऋषि ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी आराधना शुरू की।शिलाद ऋषि की कठोर तपस्या की वजह से भगवान शिव स्वयं उनके सामने प्रस्तुत हुए और उन्हें वरदान मांगने को कहा। शिलाद ऋषि ने उनसे कहा कि वह एक पुत्र की कामना रखते हैं। भगवान शिव ने उनसे कहा कि जल्द ही उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति होगी। इतना कहते ही शिव अंतर्ध्यान हो गए।

शिलाद ऋषि खुशी-खुशी घर लौटे और यह विचार करने लगे कि उन्हें एक अच्छी संतान मिलने वाली है। अगले ही दिन खेती करने के लिए वह खेत पर पहुंचे, जहां उन्हें एक खूबसूरत नवजात शिशु मिला। वह शिशु बेहद आकर्षक तो था ही, उसके चेहरे पर एक अजीब सा तेज भी था। इतने में ही उन्हें एक आवाज सुनाई दी, “यही तुम्हारी संतान है, इसका अच्छी तरह पालन-पोषण करना।“शिलाद ऋषि उस बच्चे को लेकर अपने आश्रम लौट आए और उसे बेहद प्रेम और स्नेह के साथ पालने लगे।

 इस बच्चे का नाम उन्होंने नंदी रखा, जो बचपन से ही आध्यात्मिक और अपने पिता का आदर करने वाला था। शिलाद अपनी इस संतान से बेहद प्रसन्न थे। शिलाद ने नंदी को वेदों के साथ-साथ नैतिक शिक्षा का भी अच्छा ज्ञान दिया था।कुछ सालों बाद शिलाद ऋषि के आश्रम में दो संत पधारे, मित्र और वरुण। शिलाद ने अच्छी तरह उनकी आवभगत की और उन्हें पेट भर कर भोजन करवाया। नंदी ने भी अपने पिता के कहने पर उन संतों का खूब ध्यान रखा और किसी भी प्रकार की शिकायत का अवसर नहीं दिया।

जाते समय मित्र और वरुण ऋषि बहुत प्रसन्न थे, वह अपने साथ हुए व्यवहार से काफी संतुष्ट थे। ऋषियों के प्रस्थान करने से पहले शिलाद और नंदी ने उनका आशीर्वाद लिया। जब शिलाद ऋषि ने उन साधुओं को प्रणाम किया तब उन दोनों ने उन्हें लंबे और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद दिया। लेकिन जब नंदी ने साधुओं के चरण स्पर्श किए तो दोनों ही साधु परेशान हो गए।साधुओं के चेहरे की परेशानी शिलाद ऋषि ने भांप ली, इसलिए जैसे ही वे आश्रम से बाहर निकले शिलाद ने उन्हें रोककर, उनकी परेशानी का कारण जानने की इच्छा व्यक्त की।


शिलाद ने उन साधुओं से पूछा कि उन्होंने नंदी को लंबी उम्र का आशीर्वाद क्यों नहीं दिया?मित्रा और वरुण ने उन्हें बताया कि नंदी अल्पायु हैं, उनके पास ज्यादा समय नहीं है। यह बात सुनकर स्वयं शिलाद चिंताग्रस्त हो गए। आश्रम लौटते ही नंदी ने भी अपने पिता के चेहरे के भाव पढ़ लिए।नंदी ने अपने पिता से उनकी चिंता का कारण जानना चाहा तो उनके पिता ने उन्हें सब कुछ सच-सच बता दिया। शिलाद को लगता था कि अपनी मौत की जानकारी सुनते ही नंदी या तो रो पड़ेगा या भयभीत हो जाएगा। लेकिन जो हुआ वो ठीक उलट था।


नंदी ने जैसे ही सुना कि वो अल्पायु है, वह हंसने लगा। उसने अपने पिता से कहा कि आपने मुझे भगवान शिव की कृपा से पाया है, इसलिए मेरी उम्र की रक्षा भी वही करेंगे। नंदी का कहना था कि जो लोग भगवान शिव की आराधना करते हैं, उन्हें कोई तकलीफ छू भी नहीं सकती।इतना कहते ही अपने पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर नंदी भुवन नदी के किनारे तप करने चले गए। नंदी का तप इतना कठोर, आस्था इतनी प्रबल और ध्यान इतना मजबूत था कि शिव को प्रकट होने में ज्यादा समय भी नहीं लगा।


शिव ने नंदी से आंखें खोलने के लिए कहा। नंदी ने जैसे ही अपनी आंखें खोलीं, उनके सामने दुनिया की सबसे खूबसूरत और आकर्षक शख्सियत खड़ी थी। भगवान शिव के तेज को देखकर वह यह भूल ही गए कि वह अपनी लंबी उम्र के लिए शिव की आराधना कर रहे थे।भगवान शिव ने उनसे वरदान मांगने को कहा। नंदी ने वरदान के रूप में ताउम्र शिव का सानिध्य मांग लिया। नंदी ने उनसे प्रार्थना की कि वह हर समय उनके साथ रहना चाहते हैं। नंदी के समर्पण से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने नंदी को पहले अपने गले लगाया और उन्हें बैल का चेहरा देकर उन्हें अपने वाहन, अपना दोस्त, अपने गणों में सर्वोत्तम के रूप में स्वीकार कर लिया।


नंदी द्वारा शिव का साथ प्राप्त करने के बाद ही असुरों और देवताओं के बीच क्षीर सागर में समुद्र मंथन हुआ। इस मंथन में सबसे पहले हलाहल नाम का अत्याधिक घातक विषय निकला, जिसकी एक बूंद भी सर्वनाश कर सकती थी। इस विष का गलत प्रयोग ना हो इसलिए स्वयं शिव ने उसका पान कर लिया।वह विष, शिव के लिए भी घातक था इसलिए उनकी अर्धांगिनी माता पार्वती यह नहीं चाहती थीं कि इस विष की बूंद भी शिव के शरीर में जाए इसलिए पार्वती ने शिव के गले में ही उस विष को रोक दिया था।इस विष की कुछ बूंदे जमीन पर गिर गई थीं, जिसे स्वयं नंदी ने अपनी जीभ से साफ किया था। देवता और असुर दोनों ही नंदी को देखकर हैरान रह गए कि नंदी ने जान-बूझकर इस विष को क्यों ग्रहण किया। सभी यही सोच रहे थे कि शिव तो भगवान हैं, साथ ही उनके पास माता पार्वती का साथ भी है। लेकिन नंदी!!इस पर नंदी ने जवाब दिया कि जब उनके स्वामी ने इस विष को ग्रहण किया है तो उन्हें तो करना ही था।


 नंदी का यह समर्पण देखकर शिव भी प्रसन्न हुए और कहा कि नंदी मेरे सबसे बड़े भक्त हैं इसलिए मेरी सभी ताकतें नंदी की भी हैं। अगर पार्वती की सुरक्षा मेरे साथ है तो वह नंदी के साथ भी है। इस घटना के बाद शिव और नंदी का साथ अत्याधिक मजबूत हो गया।शिव और नंदी के बीच इसी संबंध की वजह से शिव की मूर्ति के साथ नंदी की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। ऐसा माना जाता है कि शिव तो हमेशा ध्यान में लीन होते हैं, वह हमेशा समाधि में रहते हैं इसलिए उनके भक्तों की आवाज उन तक नंदी ही पहुंचाते हैं।नंदी के कान में की गई प्रार्थना नंदी की अपने स्वामी से प्रार्थना बन जाती है और वह शिव को इसे पूरा करने के लिए कहते हैं। नंदी की प्रार्थना शिव कभी अनसुनी नहीं करते इसलिए वह जल्दी पूरी हो जाती है।

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