मंगलवार, 30 जनवरी 2018

जो बल राम के नाम में है और खुद राम में नहीं है

अश्वमेघ यज्ञ पूर्ण होने के पश्चात भगवान श्रीराम ने बड़ी सभा का आयोजन किया जिसमे  सभी देवताओं, ऋषि-मुनियों, किन्नरों, यक्षों व राजाओं आदि को  आमंत्रित किया गया । सभा में  नारद मुनि के भड़काने पर एक राजन ने भरी सभा में ऋषि विश्वामित्र को छोड़कर सभी को प्रणाम किया। ऋषि विश्वामित्र गुस्से से भर उठे और उन्होंने भगवान श्रीराम से कहा कि अगर संध्या से पूर्व श्रीराम ने उस राजा को मृत्यु दंड नहीं दिया तो वो राम को श्राप दे देंगे।
इस पर श्रीराम ने उस राजा को संध्या से पूर्व मृत्यु दंड देने  का प्रण ले लिया। श्रीराम के प्रण की खबर पाते ही राजा भाग  हनुमान जी की माता अंजनी की शरण में गया तथा बिना पूरी बात बताए उनसे प्राण रक्षा का वचन मांग लिया। तब माता अंजनी ने हनुमान जी को राजन की प्राण रक्षा का आदेश दिया। हनुमान जी ने श्रीराम की शपथ लेकर कहा कि कोई भी राजा  का बाल भी बांका नहीं कर पाएगा परंतु जब राजा ने बताया कि भगवान श्रीराम ने ही उसका वध करने का प्रण किया है तो हनुमान जी धर्म संकट में पड़ गए कि राजा के प्राण कैसे बचाएं और माता का दिया वचन कैसे पूरा करें तथा भगवान श्रीराम को श्राप से कैसे बचाएं।
धर्म संकट में फंसे हनुमान जी को एक योजना सूझी। हनुमानजी ने राजा से सरयू नदी के तट पर जाकर राम नाम जपने के लिए कहा। हनुमान जी खुद सूक्ष्म रूप में राजा के पीछे छिप गए। जब राजा को खोजते हुए श्रीराम सरयू तट पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि राजन राम-राम जप रहा है।
प्रभु श्रीराम ने सोचा, "ये तो भक्त है, मैं भक्त के प्राण कैसे ले लूं"।
श्री राम ने राज भवन लौटकर ऋषि विश्वामित्र से अपनी दुविधा कही। विश्वामित्र अपनी बात पर अचल रहे और जिस पर श्रीराम को फिर से राजा के प्राण लेने हेतु सरयू तट पर लौटना पड़ा। अब श्रीराम के समक्ष भी धर्मसंकट खड़ा हो गया कि कैसे वो राम नाम जप रहे अपने ही भक्त का वध करें। राम सोच रहे थे कि हनुमानजी को उनके साथ होना चाहिए था परंतु हनुमानजी तो अपने ही आराध्य के विरुद्ध सूक्ष्म रूप से एक धर्मयुद्ध का संचालन कर रहे थे। हनुमानजी को यह ज्ञात था कि राम नाम जपते हु‌ए राजन को कोई भी नहीं मार सकता, खुद मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी नहीं।
श्रीराम ने सरयू तट से लौटकर राजा को मारने हेतु जब शक्ति बाण निकाला तब हनुमानजी के कहने पर राजन राम-राम जपने लगा। राम जानते थे राम-नाम जपने वाले पर शक्तिबाण असर नहीं करता। वो असहाय होकर राजभवन लौट गए। विश्वामित्र उन्हें लौटा देखकर श्राप देने को उतारू हो गए और राम को फिर सरयू तट पर जाना पड़ा।
इस बार राजा हनुमान जी के इशारे पर जय जय सियाराम जय जय हनुमान जपने  लगा । प्रभु श्री राम ने सोचा कि मेरे नाम के साथ-साथ ये राजा शक्ति और भक्ति की जय बोल रहा है। ऐसे में कोई अस्त्र-शस्त्र इसे मार नहीं सकता। इस संकट को देखकर श्रीराम मूर्छित हो गए। तब ऋषि व‌शिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र को सलाह दी कि राम को इस तरह संकट में न डालें। उन्होंने कहा कि श्रीराम चाह कर भी राम नाम जपने वाले को नहीं मार सकते क्योंकि जो बल राम के नाम में है और खुद राम में नहीं है। संकट बढ़ता देखकर ऋषि विश्वामित्र ने राम को संभाला और अपने वचन से मुक्त कर दिया। मामला संभलते देखकर राजा के पीछे छिपे हनुमान वापस अपने रूप में आ गए और श्रीराम के चरणों मे आ गिरे।
तब प्रभु श्रीराम ने कहा कि हनुमानजी ने इस प्रसंग से सिद्ध कर दिया है कि भक्ति की शक्ति सैदेव आराध्य की ताकत बनती है तथा सच्चा भक्त सदैव भगवान से भी बड़ा रहता है। इस प्रकार हनुमानजी ने राम नाम के सहारे श्री राम को भी हरा दिया। धन्य है राम नाम और धन्य धन्य है प्रभु श्री राम के भक्त हनुमान।

सोमवार, 29 जनवरी 2018

भक्तो को इसका बात का बोध कहा है के उन्होंने क्या खोया है और क्या पाया है


सब ज्ञात होना एक समस्या बन जाता है  और वो इस लिए हम किसी की भी स्वत्रंत इच्छा में हस्तक्षेप नहीं करते और यही नियम है ! भक्त वरदान पा कर अपने आराधय के दर्शन कितनी शक्ति है इस तप में यदि भक्त चाहे तो उसी शन अपनी पुरनता को प्राप्त कर सकता है मोक्ष प्राप्त कर सकता है किन्तु भक्त इस बारे में कभी सोचता ही नहीं !

 यदि उसे बोध हो जाए के उसे अपना मनवांछित फल पा कर वो क्या खो रहा है तब उसे अपने वरदान की निरकता का बोध होगा उसकी अनावश्यकता का बोध होगा तो ही वो समझगा उसका मनवांछित वरदान कितना महत्वहीन है ! किन्तु वो अपनी  महत्वकांशा के पूर्ति हेतु माँगा गया वरदान अपने स्वार्थ अपने व्रचपस के लिए अपनी महानता के लिए स्थापित किया गया वरदान ,महत्वता केवल उसी वरदान के लिए है जो शृष्टी कल्याण के लिए मांगी जाए अन्यथा वरदान वरदान नहीं अभिशाप बन जाता है !

किन्तु शृष्टी कल्याण के लिए वरदान मांगता ही कौन है ! और कितने भक्तो को इसका बोध होता है के उन्होंने क्या खोया है और क्या पाया है

रविवार, 28 जनवरी 2018

बद्रीधाम कथा

 एक बार भगवान् विष्णु के मन में कठोर तपस्या करने की इच्छा जगी. वह इसके लिए एक समुचित स्थान की तलाश कर रहे थे. उन्हें नीलकंठ पर्वत के समीप एक स्थान जंच गया. भगवान विष्णु ने बाल रूप में वहां अवतरण किया। यह स्थान पहले शिव भूमि (केदार भूमि) के रूप में स्थित था। भगवान विष्णुजी अपने ध्यानयोग हेतु अलकनंदा नदी के समीप यह स्थान बहुत भा गया। उन्होंने वर्तमान चरणपादुका स्थल पर (नीलकंठ पर्वत के समीप) ऋषि गंगा और अलकनंदा नदी के संगम के समीप बाल रूप में अवतरण किया और रुदन करने लगे। उनका रुदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा। फिर माता पार्वती और शिवजी स्वयं उस बालक के समीप उपस्थित हो गए। माता ने पूछा कि बालक तुम्हें क्या चहिये? तो बालक ने ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांगा। जगदंबा ने तुरंत उनकी इच्छा पूरी की. इस तरह से रूप बदल कर भगवान विष्णु ने शिव-पार्वती से यह स्थान अपने ध्यानयोग हेतु प्राप्त कर लिया। यही पवित्र स्थान आज बदरीविशाल के नाम से सर्वविदित है। जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर (बदरी) के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं । कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से यह धाम तुम्हारे नाम से जाना जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बदरी वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बदरी के नाथ-बदरीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बदरीनाथ पड़ा। जहाँ भगवान बदरीनाथ ने तप किया था, वही पवित्र-स्थल आज तप्त-कुण्ड के नाम से विश्व-विख्यात है और उनके तप के तेज से आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है। जय बद्री नारायण

शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिग





इस लिंग की स्थापना का इतिहास यह है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये। एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवाँ सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये। उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-त्यों कर दिये और उससे वरदान माँगने को कहा।

रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा माँगी। शिवजी ने अनुमति तो दे दी, पर इस चेतावनी के साथ दी कि यदि मार्ग में इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा।

अन्ततोगत्वा वही हुआ। रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिताभूमि आने पर उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई। रावण उस लिंग को एक अहीर को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया। इधर उस अहीर से उसे बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया।

 फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अँगूठा गड़ाकर लंका को चला गया। इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की। 

शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की वहीं उसी स्थान पर प्रतिस्थापना कर दी और शिव-स्तुति करते हुए वापस स्वर्ग को चले गये।

 जनश्रुति व लोक-मान्यता के अनुसार यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग मनोवांछित फल देने वाला है।

बुधवार, 24 जनवरी 2018

धर्मराज युधिष्ठर को था आभास कलुयुग में क्या होगा?




पाण्डवो का अज्ञातवाश समाप्त होने मे कुछ समय शेष रह गया था।

पाँचो पाण्डव एवं द्रोपदी जंगल मे छूपने का स्थान ढूढं रहे थे,

उधर शनिदेव की आकाश मंडल से पाण्डवों पर नजर पडी शनिदेव के मन मे विचार आया कि इन सब मे बुद्धिमान कौन है परिक्षा ली जाय।

देव ने एक माया का महल बनाया कई योजन दूरी मे उस महल के चार कोने थे, पूरब, पश्चिम, उतर, दक्षिन।

अचानक भीम की नजर महल पर पडी
और वो आकर्सित हो गया ,

भीम, यधिष्ठिर से बोला-भैया मुझे महल देखना है भाई ने कहा जाओ ।

भीम महल के द्वार पर पहुँचा वहाँ शनिदेव दरबान के रूप मे खड़े थे,

भीम बोला- मुझे महल देखना है!

शनिदेव ने कहा-महल की कुछ शर्त है

1-शर्त महल मे चार कोने आप एक ही कोना देख सकते है।
2-शर्त महल मे जो देखोगे उसकी सार सहित व्याख्या करोगे।
3-अगर व्याख्या नही कर सके तो कैद कर लिए जावोगे।

भीम ने कहा- मै स्वीकार करता हूँ ऐसा ही होगा

और वह महल के पूर्व क्षोर की और गया

वहां जाकर उसने अधभूत पशु पक्षी और फुलों एवं फलों से लदै वृक्षो का नजारा किया,

आगे जाकर देखता है कि तीन कूऐ है अगल-बगल मे छोटे कूऐ और बीच मे एक बडा कुआ।

बीच वाला बडे कुए मे पानी का उफान आता है और दोनो छोटे खाली कुओ को पानी से भर दता है। फिर कुछ देर बाद दोनो छोटे कुओ मे उफान आता है तो खाली पडे बडे कुऐ का पानी आधा रह जाता है इस क्रिया को भीम कई बार देखता है पर समझ नही पाता और लौट कर दरबान के पास आता है।

दरबान -क्या देखा आपने?

भीम- महाशय मैने पेड पौधे पशु पक्षी देखा वो मैने पहले कभी नही देखा था जो अजीब थे। एक बात समझ मे नही आई छोटे कुऐ पानी से भर जाते है बडा क्यो नही भर पाता ये समझ मे नही आया।

दरबान बोला आप शर्त के अनुसार बंदी हो गये है और बंदी घर मे बैठा दिया।

अर्जुन आया बोला- मुझे महल देखना है, दरबान ने शर्त बतादी और अर्जुन पश्चिम वाले क्षोर की तरफ चला गया।

आगे जाकर अर्जुन क्या देखता है। एक खेत मे दो फसल उग रही थी एक तरफ बाजरे की फसल दुसरी तरफ मक्का की फसल ।

बाजरे के पौधे से मक्का निकल रही तथा
मक्का के पौधे से बाजरी निकल रही अजीब लगा कुछ समझ नही आया वापिस द्वार पर आ गया।

दरबान ने पुछा क्या देखा,

अर्जुन बोला महाशय सब कुछ देखा पर बाजरा और मक्का की बात समझ मे नही आई।

देव ने कहा शर्त के अनुसार आप बंदी है ।

नकुल आया बोला मुझे महल देखना है

फिर वह उतर दिशा की और गया वहाँ उसने देखा कि बहुत सारी सफेद गायें जब उनको भूख लगती है तो अपनी छोटी बाछियों का दुध पीती है उसके कुछ समझ नही आया द्वार पर आया

देव ने पुछा क्या देखा?

नकुल बोला महाशय गाय बाछियों का दुध पिती है यह समझ नही आया तब उसे भी बंदी बना लिया।

सहदेव आया बोला मुझे महल देखना है और वह दक्षिण दिशा की और गया अंतिम कोना देखने के लिए क्या दे खता है वहां पर एक सोने की बडी शिला एक चांदी के सिक्के पर टिकी हुई डगमग डौले पर गिरे नही छूने पर भी वैसे ही रहती है समझ नही आया वह वापिस द्वार पर आ गया और बोला सोने की शिला की बात समझ मे नही आई तब वह भी बंदी हो गया।

चारों भाई बहुत देर से नही आये तब युधिष्ठिर को चिंता हुई वह भी द्रोपदी सहित महल मे गये।

भाईयो के लिए पूछा तब दरबान ने बताया वो शर्त अनुसार बंदी है।

युधिष्ठिर बोला भीम तुमने क्या देखा ?

भीम ने कुऐ के बारे मे बताया

तब युधिष्ठिर ने कहा-यह कलियुग मे होने वाला है एक बाप दो बेटों का पेट तो भर देगा परन्तु दो बेटे मिलकर एक बाप का पेट नही भर पायागें।

भीम को छोड दिया।

अर्जुन से पुछा तुमने क्या देखा ??

उसने फसल के बारे मे बताया

युधिष्ठिर ने कहा- यह भी कलियुग मे होने वाला है वंश परिवर्तन अर्थात ब्राह्मण के घर बनिये की लडकी और बनिये के घर शुद्र की लडकी ब्याही जायेगी।

अर्जुन भी छूट गया।

नकुल से पूछा तुमने क्या देखा तब उसने गाय का वृतांत बताया

तब युधिष्ठिर ने कहा-कलियुग मे माताऐं अपनी बेटियों के घर मे पलेगी बेटी का दाना खायेगी और बेटे सेवा नही करेंगे ।

तब नकुल भी छूट गया।

सहदेव से पूछा तुमने क्या देखा, उसने सोने की शिला के बारे में बताया,

तब युधिष्ठिर बोले- कलियुग मे पाप धर्म को दबाता रहेगा परन्तु धर्म फिर भी जिदां रहेगा खत्म नही होगा।। आज के कलयुग मे यह सारी बाते सच साबित हो रही है ।।

मंगलवार, 16 जनवरी 2018

काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग




श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग वाराणसी जनपद के काशी नगर में अवस्थित है। कहते है, काशी तीनों लोकों में न्यारी नगरी है, जो भोले बाबा के त्रिशूल पर विराजती है। इस मंदिर को कई बार बनाया गया। नवीनतम संरचना जो आज यहां दिखाई देती है वह 18वीं शताब्दी में बनी थी। कहा जाता है कि एक बार इंदौर की रानी अहिल्या बाई होलकर के स्वप्न में भगवान शिव आए। वे भगवान शिव की भक्त थीं। इसलिए उन्होंने 1777 में यह मंदिर निर्मित कराया।



काशी विश्वनाथ की महिमा
काशी भगवान शिव की प्रिय नगरी है। "हर हर महादेव घर-घर महादेव" का जयघोष" काशी के लिए ही किया जाता है। काशी में भगवान शिव विश्वेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग में निवास करते हैं। कहते हैं भगवान शिव के मन में एक बार एक से दो हो जाने की इच्छा जागृत हुई। उन्होंने खुद को रूपों में विभक्त कर लिया। एक शिव कहलाए और दूसरे शक्ति। लेकिन इस रूप में अपने माता-पिता को ना पाकर वह बेहद दुखी थे। उस समय आकाशवाणी ने उन्हें तपस्या करने की सलाह दी। तपस्या हेतु भगवान शिव ने अपने हाथों से पांच कोस लंबे भूभाग पर काशी का निर्माण किया। और यहां विश्वेश्वर के रूप में विराजमान हुए।


मान्यता
शिव पुराण के अनुसार रोग ग्रस्त स्त्री या पुरुष, युवा हो या प्रौढ़, मोक्ष की प्राप्ति के लिए यहां जीवन में एक बार अवश्य आता है। ऐसा मानते हैं कि यहां पर आने वाला हर श्रद्धालु भगवान विश्वनाथ को अपनी इच्छा समर्पित करता है। काशी क्षेत्र में मरने वाले किसी भी प्राणी को निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। कहते हैं जब कोई यहां मर रहा होता है उस समय भगवान श्री विश्वनाथ उसके कानों में तारक मंत्र का उपदेश देते हैं जिससे वह आवागमन के चक्कर से अर्थात इस संसार से मुक्त हो जाता है।

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

त्र्यंम्बकेश्वर ज्योतिर्लिग








यह ज्योतिर्लिग गोदावरी नदी के करीब, महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले में स्थित है. इस ज्योतिर्लिंग के सबसे अधिक निकत ब्रह्मागिरि नाम का पर्वत है. इसी पर्वत से गोदावरी नदी शुरु होती है. भगवान शिव का एक नाम त्रयम्बकेश्वर भी है. कहा जाता है. कि भगवान शिव से गौतम ऋषि और गोदावरी नदी के आग्रह पर भगवान शिव को यहां ज्योतिर्लिंग के रुप में रहना पडा था. भगवान शिव के नाम से ही त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग आज श्रद्वा और विश्वास का स्थल बन चुका है. गोदावरी नदी और ब्रह्मा गिरि पर्वत की शोभा बढाने वाले भगवान त्रयम्बकेश्वर भगवान शिव की महिमा अद्वभुत है.




इस मंदिर में एक मुख्य ज्योतिर्लिंग के अलावा तीन छोटे-छोटे लिंग है. यहां के ये तीनों शिवलिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव के प्रतीक माने जात है. धार्मिक शास्त्रों शिवपुराण में भी त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का वर्णन है. कहा जाता है, कि ब्रह्रागिरि पर्वत पर जाने के लिए यहां सात सौ सीढियां है. इन सीढियों से ऊपर जाने के मध्य मार्ग में रामकुण्ड और लक्ष्मणकुण्ड है. ब्रहागिरि पर्वत पर पहुंचने पर गोदावरी नदी के उद्वगम स्थल के दर्शन होते है. त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग इसलिए भी अपनी विशेषता रखता है कि यहां मात्र भगवान शिव की ही पूजा नहीं होती है. बल्कि भगवान शिव के साथ साथ देव ब्रह्मा और देव विष्णु की भी लिंग रुप में पूजा की जाती है. अन्य सभी 11 ज्योतिर्लिंगों में भगवान शिव ही विराजित है, और वहां भगवान शिव ही मुख्य देव है, जिनकी पूजा की जाती है. कालसर्प शान्ति स्थल -त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग |


रयंम्बकेश्वर मंदिर भव्य रुप से बनाती है. मंदिर के गर्भगृ्ह में केवल शिवलिंग की कुछ भाग ही दिखाई देता है. ध्यान से देखने पर ये एक लिंग होकर तीन लिंग है. इन्हीं तीनों लिंगों को त्रिदेव, ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतिरुप मान कर पूजा जाता है. त्रयंम्बकेश्वर मंदिर के निकट का गांव ब्रहागिरि के नाम से जाना जाता है. क्योकि यह गांव ब्रहागिरि पहाडी की तलहटी में स्थित है. ब्रहागिरि पर्वत भगवान शिव का साक्षात रुप है.

त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिग के संबन्ध में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है. कथा के अनुसार गौतम ऋषि ने यहां पर तप किया था. स्वयं पर लगे गौहत्या के पाप से मुक्त होने के लिए गौतम ऋषि ने यहां कठोर तपस्या की थी. और भगवान शिव से गंगा नदी को धरती पर लाने के लिए वर मांगा था. गंगा नदी के स्थान पर यहां दक्षिण दिशा की गंगा कही जाने वाली नदी गोदावरी का यहां उसी समय उद्वगम हुआ था. भगवान शिव के तीन नेत्र है, इसी कारण भगवान शिव का एक नाम त्रयंबक भी है. अर्थात तीन नेत्रों वाला भी है. उज्जैन और औंकारेश्वर की ही तरह त्रयम्केश्वर को ही गांव का राजा माना जाता है.

 यह माना जाता है, कि देव त्रयंबकेश्वर भगवान शिव प्रत्येक सोमवार के दिन अपने गांव का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए आते है.

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

नागेश्वर ज्योतिर्लिग





इस ज्योतिर्लिग की महिमा में कहा गया है, कि जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्वा और विश्वास के साथ यहां दर्शनों के लिए आता है. उसे जीवन के समस्त पापों से मुक्ति मिलती है.


नागेश्वर ज्योतिर्लिग कथा |
नागेश्वर ज्योतिर्लिग के संम्बन्ध में एक कथा प्रसिद्ध है. कथा के अनुसार एक धर्म कर्म में विश्वास करने वाला व्यापारी था. भगवान शिव में उसकी अनन्य भक्ति थी. व्यापारिक कार्यो में व्यस्त रहने के बाद भी वह जो समय बचता उसे आराधना, पूजन और ध्यान में लगाता था. उसकी इस भक्ति से एक दारुक नाम का राक्षस नाराज हो गया. राक्षस प्रवृ्ति का होने के कारण उसे भगवान शिव जरा भी अच्छे नहीं लगते थे. वह राक्षस सदा ही ऎसे अवसर की तलाश में रहता था, कि वह किस तरह व्यापारी की भक्ति में बाधा पहुंचा सकें. एक बार वह व्यापारी नौका से कहीं व्यापारिक कार्य से जा रहा था. उस राक्षस ने यह देख लिया, और उसने अवसर पाकर नौका पर आक्रमण कर दिया. और नौका के यात्रियों को राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया. कैद में भी व्यापारी नित्यक्रम से भगवान शिव की पूजा में लगा रहता था.

बंदी गृ्ह में भी व्यापारी के शिव पूजन का समाचार जब उस राक्षस तक पहुंचा तो उसे बहुत बुरा लगा. वह क्रोध भाव में व्यापारी के पास कारागार में पहुंचा. व्यापारी उस समय पूजा और ध्यान में मग्न था. राक्षस ने उसपर उसी मुद्रा में क्रोध करना प्रारम्भ कर दिया. राक्षस के क्रोध का कोई प्रभाव जब व्यापारी पर नहीं हुआ तो राक्षस ने अपने अनुचरों से कहा कि वे व्यापारी को मार डालें. यह आदेश भी व्यापारी को विचलित न कर सकें. इस पर भी व्यापारी अपनी और अपने साथियों की मुक्ति के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करने लगा. उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव उसी कारागार में एक ज्योतिर्लिंग रुप में प्रकट हुए. और व्यापारी को पाशुपत- अस्त्र स्वयं की रक्षा करने के लिए दिया. इस अस्त्र से राक्षस दारूक तथा उसके अनुचरो का वध कर दिया. उसी समय से भगवान शिव के इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ.

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

रामेश्वरम कथा

यह कथा तब आरम्भ होती है जब भगवान्  राम  के मन में यह व्याकुलता उत्पन होती है के रावण  वध से उनके  कुल पर ब्रामण हत्या का कलंक लग जाएगा ?

तब भगवान राम ने महादेव की स्तुति कर उनको प्रकट होने के लिए प्र्थना की के शिव शंकर  भोले महादेव आप सब आपदाओं को हरने वाले है !

भगवान् शिव वह प्रकट हुए और  भगवान् राम से बोले !

तुम्हारे मन  में यह विचार आ रहे है के तुम रावण का वध कर ब्रामण हत्या के पाप के भागी बन जाओगे और इससे रघुकुल की प्रतिष्ठा पर सदा के लिए कलंक लग जाएगा ! किन्तु समरण रहे  राम यहाँ प्र्शन पाप और पुण्य का नहीं है ! राम तुम यह कार्य एक दुष्कृत्य का अंत करने के लिए कर रहे हो ! ऐसे कर्म से कुल की सद्गति होगी  या अद्योगति यह केवल एक प्रश्न पर निर्भर करता है  के करता ने इस कर्म को स्वार्थ भाव से किया है या वैरागी भाव से

तब राम ने भगवान शंकर से कहा प्रभु अपने यह वचन कर मेरे को मेरी व्याकुलता से मुक्त किया है ! इसके लिए मैं आपको नमन कर आपको धन्यवाद करता हूँ और कहा प्रभु आपकी अनुमति हो तोह मैं आपका लिंग स्थापित करना चाहता हूँ ! जिसे आपकी कृपा दृष्टि  इस भूमि पर सदैव बने रहेगी