जिसके तेज़ से जीवन पथ उजागर होने जा रहा था उसके तेज़ में संसार का खोखलापन सामने आ रहा है ! समस्त संसार ने समंदर मंथन किया श्री को प्राप्त करने के लिए ! समंदर मंथन से जो विष निकला था उसके बाद तोह महादेव नीलकंठ बन गए किन्तु श्री निकलने के बाद यह संसार श्री कण्ठ क्यों नही बन पाया !
क्योंकि मन मंथन अभी शेष है मन से विष नही निकल है और जब तक मन से विष नही निकलेगा श्री का दुरूपयोग सदैव होता रहेगा! श्री अमीरो को और अमिर बनाना नही था उनके अहंकार को पोषित करना नही था श्री का दाइत्व था संसार का कल्याण !अमीरो को श्री के गुणों से सशक्त कर इस संसार के उथान के लिए प्रोसाहित करना ताकि वो निरभीक हो संसार का कल्याण कर सके !
यह उद्देश्य था श्री का किन्तु ऐसा कुछ नही हुआ ! जब तक यह संसार भय मुक्त नही होगा संसार में न्याय और श्री का अनुसरण करना संभव ही नही है क्योंकि जब तक भय होगा तब तक कोई प्रश्न नही उठाएगा कोई तर्क वितर्क नही करेगा ! कहने को तोह संसार से सब कुछ पा लिया है किन्तु स्तय तोह यह है इस संसार ने भय के अतिरिक्त कुछ नही पाया है और यही भय इस सुन्दर संसार को विरिक्त बना रहा है ! और यह विरिक्ति शुभता के पश्चात दूर होगी इसके लिए हम सब को मिलकर प्रयास करना होगा आवशकता है तोह पुनः स्याम को ढूंढने की क्योंकि यह समय है मन मंथन करने का और इस समस्या का समाधान!
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