बुधवार, 26 दिसंबर 2018

!!श्री वीरभद्र जी के जन्म की कथा!!शिव का रौद्र रूप है वीरभद्र - कैसे हुआ वीरभद्रावतार !!



 दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। सभी पुत्रियां गुणवती थीं पर दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो शक्ति-संपन्न हो, सर्व-विजयिनी हो। दक्ष एक ऐसी पुत्री के लिए तप करने लगे। तप करते-करते अधिक दिन बीत गए, तो भगवती आद्या ने प्रकट होकर कहा, 'मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। मैं स्वय पुत्री रूप में तुम्हारे यहाँ जन्म धारण करूंगी। मेरा नाम होगा सती। मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी।' फलतः भगवती आद्या ने सती रूप में दक्ष के यहाँ जन्म लिया। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में अलौकिक थीं। उन्होंने बाल्यकाल में ही कई ऐसे अलौकिक कृत्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मय की लहरों में डूब जाना पड़ा।

जब सती विवाह योग्य हुई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता हुई। उन्होंने ब्रह्मा जी से परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, 'सती आद्या का अवतार हैं। आद्या आदिशक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। अतः सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं।' दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं। यद्यपि भगवान शिव के दक्ष के जामाता थे, किंतु एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण दक्ष के हृदय में भगवान शिव के प्रति बैर और विरोध पैदा हो गया।

घटना इस प्रकार थी— एक बार ब्रह्मा ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया था। सभी बड़े-बड़े देवता सभा में एकत्र थे। भगवान शिव भी एक ओर बैठे थे। सभा मण्डल में दक्ष का आगमन हुआ। दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। फलतः दक्ष ने अपमान का अनुभव किया। केवल यही नहीं, उनके हृदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी। वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान शिव को किसी के मान और किसी के अपमान से क्या मतलब? वे तो समदर्शी हैं। उन्हें तो चारों ओर अमृत दिखाई पड़ता है। जहां अमृत होता है, वहां कडुवाहट और कसैलेपन का क्या काम?

भगवान शिव कैलाश में दिन-रात राम-राम कहा करते थे। सती के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो उठी। उन्होंने अवसर पाकर भगवान शिव से प्रश्न किया, 'आप राम-राम क्यों कहते हैं? राम कौन हैं?' भगवान शिव ने उत्तर दिया, 'राम आदि पुरुष हैं, स्वयंभू हैं, मेरे आराध्य हैं। सगुण भी हैं, निर्गुण भी हैं।' किंतु सती के कंठ के नीचे बात उतरी नहीं। वे सोचने लगीं, अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैं? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दंडक वन में उन्मत्तों की भांति विचरण कर रहे हैं। वृक्ष और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे हैं। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होते, तो क्या इस प्रकार आचरण करते? सती के मन में राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ। सीता का रूप धारण करके दंडक वन में जा पहुंची और राम के सामने प्रकट हुईं। भगवान राम ने सती को सीता के रूप में देखकर कहा, 'माता, आप एकाकी यहाँ वन में कहां घूम रही हैं? बाबा विश्वनाथ कहां हैं?' राम का प्रश्न सुनकर सती से कुछ उत्तर देते न बना। वे अदृश्य हो गई और मन ही मन पश्चाताप करने लगीं कि उन्होंने व्यर्थ ही राम पर संदेह किया। राम सचमुच आदि पुरुष के अवतार हैं। सती जब लौटकर कैलाश गईं, तो भगवान शिव ने उन्हें आते देख कहा, 'सती, तुमने सीता के रूप में राम की परीक्षा लेकर अच्छा नहीं किया। सीता मेरी आराध्या हैं। अब तुम मेरी अर्धांगिनी कैसे रह सकती हो! इस जन्म में हम और तुम पति और पत्नी के रूप में नहीं मिल सकते।' शिव जी का कथन सुनकर सती अत्यधिक दुखी हुईं, पर अब क्या हो सकता था। शिव जी के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थी? शिव जी समाधिस्थ हो गए। सती दुख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।

उन्हीं दिनों सती के पिता कनखल में बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने यज्ञ में सभी देवताओं और मुनियों को आमन्त्रित किया था, किंतु शिव जी को आमन्त्रित नहीं किया था, क्योंकि उनके मन में शिव जी के प्रति ईर्ष्या थी। सती को जब यह ज्ञात हुआ कि उसके पिता ने बहुत बड़े यज्ञ की रचना की है, तो उनका मन यज्ञ के समारोह में सम्मिलित होने के लिए बैचैन हो उठा। शिव जी समाधिस्थ थे। अतः वे शिव जी से अनुमति लिए बिना ही वीरभद्र के साथ अपने पिता के घर चली गईं।

कहीं-कहीं सती के पितृगृह जाने की घटना का वर्णन एक दूसरे रूप में इस प्रकार मिलता है— एक बार सती और शिव कैलाश पर्वत पर बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय आकाश मार्ग से कई विमान कनखल कि ओर जाते हुए दिखाई पड़े। सती ने उन विमानों को दिखकर भगवान शिव से पूछा, 'प्रभो, ये सभी विमान किसके है और कहां जा रहे हैं?'

भगवान शकंर ने उत्तर दिया, 'आपके पिता ने यज्ञ की रचना की है। देवता और देवांगनाएं इन विमानों में बैठकर उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जा रहे हैं।'सती ने दूसरा प्रश्न किया, 'क्या मेरे पिता ने आपको यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया?'भगवान शंकर ने उत्तर दिया, 'आपके पिता मुझसे बैर रखते हैं, फिर वे मुझे क्यों बुलाने लगे?'सती मन ही मन सोचने लगीं, फिर बोलीं, 'यज्ञ के अवसर पर अवश्य मेरी बहनें आएंगी। उनसे मिले हुए बहुत दिन हो गए। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं भी अपने पिता के घर जाना चाहती हूं। यज्ञ में सम्मिलित हो लूंगी और बहनों से भी मिलने का सुअवसर मिलेगा।'भगवान शिव ने उत्तर दिया,'इस समय वहां जाना उचित नहीं होगा। आपके पिता मुझसे जलते हैं,हो सकता है वे आपका भी अपमान करें। बिना बुलाए किसी के घर जाना उचित नहीं होता'भगवान शिव ने उत्तर दिया,'हां, विवाहिता लड़की को बिना बुलाए पिता के घर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि विवाह हो जाने पर लड़की अपने पति की हो जाती है। पिता के घर से उसका संबंध टूट जाता है।' किंतु सती पीहर जाने के लिए हठ करती रहीं। अपनी बात बार-बात दोहराती रहीं। उनकी इच्छा देखकर भगवान शिव ने पीहर जाने की अनुमति दे दी। जब सती अपने पिता के घर गईं, किंतु उनसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं किया। दक्ष ने उन्हें देखकर कहा,'तुम क्या यहाँ मेरा अपमान कराने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो, वे किस प्रकार भांति-भांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित हैं। तुम्हारे शरीर पर मात्र बाघंबर है। तुम्हारा पति श्मशानवासी और भूतों का नायक है। वह तुम्हें बाघंबर छोड़कर और पहना ही क्या सकता है।' दक्ष के कथन से सती के हृदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा। वे सोचने लगीं, ‘उन्होंने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया। भगवान ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए। पर अब क्या हो सकता है? अब तो आ ही गई हूं।'पिता के कटु और अपमानजनक शब्द सुनकर भी सती मौन रहीं। वे उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ॠषि-मुनि बैठे थे तथा यज्ञकुण्ड में धू-धू करती जलती हुई अग्नि में आहुतियां डाली जा रही थीं। सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं के तो भाग देखे, किंतु भगवान शिव का भाग नहीं देखा। वे भगवान शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोलीं, 'पितृश्रेष्ठ! यज्ञ में तो सबके भाग दिखाई पड़ रहे हैं, किंतु कैलाशपति का भाग नहीं है। आपने उनका भाग क्यों नहीं दिया?' दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया, 'मै तुम्हारे पति कैलाश को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला है। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं। उसे कौन भाग देगा।

सती के नेत्र लाल हो उठे। उनकी भौंहे कुटिल हो गईं। उनका मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा। उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा,'ओह! मैं इन शब्दों को कैसे सुन रहीं हूं, मुझे धिक्कार है। देवताओ, तुम्हें भी धिक्कार है! तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो, जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता है। जो नारी अपने पति के लिए अपमानजनक शब्दों को सुनती है, उसे नरक में जाना पड़ता है। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो! मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया है। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती।' सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ी। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में खलबली पैदा हो गई, हाहाकार मच गया। देवता उठकर खड़े हो गए।

जब इस घटना की जानकारी भगवान शिव को लगी तो वे अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाए। उनके क्रोध से पूरी सृष्टि कांपने लगी, अपने इसी क्रोध की ज्वाला से उन्होंने वीरभद्र की उत्पत्ति की । उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-

क्रुद्ध: सुदष्टष्ठपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्व ह्लिस टोग्ररोचिषम्।
उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥
ततोऽतिकाय स्तनुवा स्पृशन्दिवं।

अर्थात सती के प्राण त्यागने से दु:खी भगवान शिव ने उग्र रूप धारण कर क्रोध में अपने होंठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली, जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी। सहसा खड़े होकर उन्होंने गंभीर अठ्ठाहस के साथ जटा को पृथ्वी पर पटक दिया। इसी से महाभयंकर वीरभद्र प्रगट हुए।

शिव ने उन्हें दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने और विद्रोहियों के मर्दन यानि नाश करने की आज्ञा देते हुए आदेश दिया कि वह प्रजापति दक्ष और उसकी सेना का विनाश कर दे। वीरभद्र क्रोध से कांप उटे।वीरभद्र ने बिना समय नष्ट किए महादेव के आदेश का पालन करना शुरू कर दिया। वे प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे।हालांकि दक्ष को परास्त करना बहुत कठिन काम था, लेकिन वीरभद्र ने इस काम को भी कर दिखाया जबकि यज्ञ स्थल की रक्षा का काम स्वयं भगवान विष्णु कर रहे थे। वीरभद्र ने विष्णु से भी संग्राम किया। विष्णु को जब इस बात का अनुभव हुआ कि वीरभद्र का तेज प्रबल है तो वे अंतर्ध्यान हो गए। ब्रह्मपुत्र दक्ष भी भय के मारे छिप गए थे। वीरभद्र ने दक्ष की सेना पर आक्रमण कर दिया। इसके अलावा जो भी उसके मार्ग में आया उसने उसका सर्वनाश कर दिया। वे उछ्ल-उछलकर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। यज्ञमंडप में भगदड़ मच गई। देवता और ॠषि-मुनि भाग खड़े हुए। दक्ष ने योगबल से अपने सिर को अभेद्य बना लिया। तब वीरभद्र ने दक्ष की छाती पर पैर रख दोनों हाथों ने गर्दन मरोड़कर उसे शरीर से अलग कर अग्निकुंड में डाल दिया था।

उधर सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। उन शंकर के मन को व्याकुल कर दिया, जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त की थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए।

भगवान शिव ने उन्मत की भांति सती के जले हिए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की सांसे। सृष्टि व्याकुल हो उठी, सृष्टि के प्राणी पुकारने लगे— पाहिमाम! पाहिमाम! भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु आगे बढ़े। वे भगवान शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। धरती पर इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे। जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए, तो भगवान शिव पुनः अपने आप में आए। जब वे अपने आप में आए तब ब्रह्माजी और विष्णुजी ने सोचा कि यज्ञ को बीच में छोड़ देना शुभ नहीं है लेकिन जिसने इस यज्ञ का आयोजन किया था (प्रजापति दक्ष) उसकी तो मृत्यु हो चुकी थी, तो पुनः ब्रह्माजी और विष्णु जी फिर कैलाश पर्वत पर गए और उन्होंने महादेव को समझाने का बहुत प्रयास किया कि वे राजा दक्ष को जीवन देकर यज्ञ को संपन्न करने की कृपा करें। बहुत समझाने पर भगवान शिव ने उनकी बात मान ली और दक्ष के धड़ से भेड़ का सिर जोकर उसे जीवनदान दिया, जिसके बाद यह यज्ञ पूरा हुआ।सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे।

धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैं, उपासना होती है। धन्य था शिव और सती का प्रेम। शिव और सती के प्रेम ने उन्हें अमर बना दिया है, वंदनीय बना दिया है।

भगवान शिव के वीरभद्र अवतार का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यह अवतार हमें संदेश देता है कि शक्ति का प्रयोग वहीं करें जहां उसका सदुपयोग हो। वीरों के दो वर्ग होते हैं- भद्र एवं अभद्र वीर। राम, अर्जुन और भीम वीर थे। रावण, दुर्योधन और कर्ण भी वीर थे लेकिन पहला भद्र (सभ्य) वीर वर्ग और दूसरा अभद्र (असभ्य) वीर वर्ग है। सभ्य वीरों का काम होता है हमेशा धर्म के पथ पर चलना तथा नि:सहायों की सहायता करना। वहीं असभ्य वीर वर्ग सदैव अधर्म के मार्ग पर चलते हैं तथा नि:शक्तों को परेशान करते हैं। भद्र का अर्थ होता है कल्याणकारी। अत: वीरता के साथ भद्रता की अनिवार्यता इस अवतार से प्रतिपादित होती है।

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

तारकेश्वर महादेव



 महादेव शिव के देश के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है बंगाल का तारकेश्वर महादेव का मंदिर। कहा जाता है शिव तारक मंत्र देते हैं तभी मनुष्य का उद्धार होता है। न सिर्फ बंगाल में बल्कि दूर दूर तक इस मंदिर की मान्यता है। पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के तारकेश्वर शहर में स्थित है बाबा भोले नाथ का मंदिर तारकेश्वर धाम।

इस प्रसिद्ध तारकेश्वर मंदिर में श्रद्धालुओं की गहरी आस्था है। कहा जाता है कि यहां भक्तजन जो भी मन्नत मांगते हैं उनकी मन्नत पूरी होती है। इस मंदिर का निर्माण साल 1729 में हुआ था। यह बांगला वास्तुकला का सुंदर उदाहरण है। मंदिर के गर्भ गृह के आगे बरामदा बना हुआ है। मंदिर के बगल में एक विशाल सरोवर है। इस सरोवर को दूधपुकुर ( दूध का पोखर) कहते हैं। पूजा के लिए आने वाले श्रद्धआलुओं में से काफी लोग पहले मंदिर में स्नान करते हैं फिर पूजा करते हैं। इस मंदिर का पौराणिक महत्व है इस मंदिर को एक शक्तिपीठ के रूप में पूजा जाता है।

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने तारकेश्‍वर के पश्चिम दिशा की ओर एक कुंड खोदा था और भगवान शिव का शिवलिंग की स्थापना करके उनकी आराधना की थी। ऐसी भी मान्यता है कि तारकेश्‍वर देवी लक्ष्मी का मूल निवास स्थल है। देवी लक्ष्मी यहां देवी सरस्वती के साथ वैष्णवी रूप में भी निवास करती हैं। महादेव तारकेश्वर का मंत्र - ओम स्त्रों तारकेश्वर रुद्राय ममः दारिद्रय नाशय नाशय फट।।
मंदिर के बारे में एक कहानी है कि शिव का एक भक्त विष्णु दास उत्तर प्रदेश के अयोध्या शहर से यहां पहुंचा था। हालांकि हुगली के स्थानीय लोगों ने किसी मुद्दे पर इस सीधे सच्चे इंसान के पूरे परिवार पर शक किया। अपने को निर्दोष साबित करने के लिए उसने अपने हाथ को गर्म लोहे के छड़ से जला लिया।

कुछ दिनों बाद उसके भाई ने पास के जंगल में एक ऐसा स्थल तलाशा जहां गाय अपने आप जाकर दूध देने लगती थी। भाई को यह पता चला कि जहां गाय दूध देती है वहां एक शिवलिंग स्थित है। यह एक स्वंभू शिवलिंग है। इसके बाद विष्णुदास को स्वप्न में आया कि यह स्थल तारकेश्वर (शिव) का स्थान है। विष्णुदास ने यहां शिव की पूजा की और उसे लोगों के कोप से मुक्ति मिली। बाद में गांव के लोगों ने वहां पर एक विशाल मंदिर का निर्माण कराया। वर्तमान मंदिर राजा भारमल्ल का 1729 का बनवाया हुआ है।

महाशिवरात्रि और चैत्र संक्रांति के समय तारकेश्वर मंदिर में श्रद्धालुओं की अपार भीड़ उमड़ती है। इसके अलावा सावन के महीने में यहां पूरे माह कांवर लेकर आने वाले श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
कैसे पहुंचे - तारकेश्वर कोलकाता शहर के पास हावडा रेलवे स्टेशन से 58 किलोमीटर की दूरी पर है। रोज सुबह 4.22 से लेकर रात्रि 11 बजे तक इस मार्ग पर लोकल ट्रेनें चलती रहती हैं। आमतौर पर हर घंटे तारकेश्वर मार्ग पर आपको लोकल ट्रेन मिल जाएगी।

लोकल ट्रेन से पहुंचने डेढ़ घंटे का वक्त लगता है। इसी तरह वापसी के लिए भी दिन भर लोकल ट्रेन मिलती हैं। तारकेश्वर हावड़ा से आरामबाग रेलवे लाइन पर पड़ता है। रेलवे स्टेशन से मंदिर की दूरी महज आधा किलोमीटर है। इस लिए मंदिर तक पहुंचना कोलकाता से काफी सहज है।


मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

भगवान शिव की अर्ध परिक्रमा क्यों



शिवजी की आधी परिक्रमा करने का विधान है। वह इसलिए की शिव के सोमसूत्र को लांघा नहीं जाता है। जब व्यक्ति आधी परिक्रमा करता है तो उसे चंद्राकार परिक्रमा कहते हैं। शिवलिंग को ज्योति माना गया है और उसके आसपास के क्षेत्र को चंद्र। आपने आसमान में अर्ध चंद्र के ऊपर एक शुक्र तारा देखा होगा। यह शिवलिंग उसका ही प्रतीक नहीं है बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड ज्योतिर्लिंग के ही समान है।
आज के समय में निर्मिली को पृथ्वी की सतह के ऊपर बनाया जाता है जिसके चलते, पूर्ण-परिक्रमा के दौरान अक्सर लोग उस पर पैर रख देते हैं। इसलिए शिवलिंग की अर्ध परिक्रमा ही करनी चाहिए।

''अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र न लंघयेत॥ इति वाचनान्तरात।''

सोमसूत्र 

शिवलिंग की निर्मली को सोमसूत्र की कहा जाता है। शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है। सोमसूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान को चढ़ाया गया जल जिस ओर से गिरता है, वहीं सोमसूत्र का स्थान होता है। प्राचीन काल में, शिवलिंग इस तरह से बनाया जाता था कि निर्मलि (दूध और पानी बहने की जगह) पृथ्वी की सतह के अंदर गहराई में होती थी। जिसे मनुष्य नहीं देख सकता था।

क्यों नहीं लांघते सोमसूत्र

सोमसूत्र में शक्ति-स्रोत होता है अत: उसे लांघते समय पैर फैलाते हैं और वीर्य ‍निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है। जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है। अत: शिव की अर्ध चंद्राकार प्रदशिक्षा ही करने का शास्त्र का आदेश है। ग्रंथों में यह बताया गया है कि भगवान शिव और शक्ति की निर्मलि के संपर्क में आने या उस पर पैर रखने से आपको भगवान शिव का क्रोध झेलना पड़ सकता है।

तब लांघ सकते हैं 

शास्त्रों में अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढके हुए सोम सूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है, लेकिन‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

किस ओर से परिक्रमा

भगवान शिव की पूजा के बाद शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बांई ओर से शुरू कर जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी स्त्रोत (जहां से भगवान शिव को चढ़ाया जल बाहर निकलता है) तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौट दूसरे सिरे तक आकर परिक्रमा पूरी करें। इसे शिवलिंग की आधी परिक्रमा भी कहा जाता है। 

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

अर्धनारीनटेश्वर स्तोत्र



चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

आधे शरीर में चम्पापुष्पों-सी गोरी पार्वतीजी हैं और आधे शरीर में कर्पूर के समान गोरे भगवान शंकरजी सुशोभित हो रहे हैं। भगवान शंकर जटा धारण किये हैं और पार्वतीजी के सुन्दर केशपाश सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारज:पुंजविचर्चिताय।
कृतस्मरायै विकृतस्मराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी के शरीर में कस्तूरी और कुंकुम का लेप लगा है और भगवान शंकर के शरीर में चिता-भस्म का पुंज लगा है। पार्वतीजी कामदेव को जिलाने वाली हैं और भगवान शंकर उसे नष्ट करने वाले हैं, ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

चलत्क्वणत्कंकणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणीनूपुराय।
हेमांगदायै भुजगांगदाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

भगवती पार्वती के हाथों में कंकण और पैरों में नूपुरों की ध्वनि हो रही है तथा भगवान शंकर के हाथों और पैरों में सर्पों के फुफकार की ध्वनि हो रही है। पार्वतीजी की भुजाओं में बाजूबन्द सुशोभित हो रहे हैं और भगवान शंकर की भुजाओं में सर्प सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय।
समेक्षणायै विषमेक्षणाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी के नेत्र प्रफुल्लित नीले कमल के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर के नेत्र विकसित कमल के समान हैं। पार्वतीजी के दो सुन्दर नेत्र हैं और भगवान शंकर के (सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि) तीन नेत्र हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालांकितकन्धराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी के केशपाशों में मन्दार-पुष्पों की माला सुशोभित है और भगवान शंकर के गले में मुण्डों की माला सुशोभित हो रही है। पार्वतीजी के वस्त्र अति दिव्य हैं और भगवान शंकर दिगम्बर रूप में सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय।
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी के केश जल से भरे काले मेघ के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर की जटा विद्युत्प्रभा के समान कुछ लालिमा लिए हुए चमकती दीखती है। पार्वतीजी परम स्वतन्त्र हैं अर्थात् उनसे बढ़कर कोई नहीं है और भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय।
जगज्जनन्यैजगदेकपित्रे नम: शिवायै च नम: शिवाय।

भगवती पार्वती लास्य नृत्य करती हैं और उससे जगत की रचना होती है और भगवान शंकर का नृत्य सृष्टिप्रपंच का संहारक है। पार्वतीजी संसार की माता और भगवान शंकर संसार के एकमात्र पिता हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय।
शिवान्वितायै च शिवान्विताय नम: शिवायै च नम: शिवाय।

पार्वतीजी प्रदीप्त रत्नों के उज्जवल कुण्डल धारण किए हुई हैं और भगवान शंकर फूत्कार करते हुए महान सर्पों का आभूषण धारण किए हैं। भगवती पार्वतीजी भगवान शंकर की और भगवान शंकर भगवती पार्वती की शक्ति से समन्वित हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।

एतत् पठेदष्टकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी।
प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात् सदा तस्य समस्तसिद्धि:।

आठ श्लोकों का यह स्तोत्र अभीष्ट सिद्धि करने वाला है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, वह समस्त संसार में सम्मानित होता है और दीर्घजीवी बनता है, वह अनन्त काल के लिए सौभाग्य व समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है।

।।इति आदिशंकराचार्य विरचित अर्धनारीनटेश्वरस्तोत्रम् सम्पूर्णम्।।

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

भगवान शिव के त्रिशूल के संबंध में कहा जाता है की यह त्रिदेवो का प्रतीक ब्र्ह्मा, विष्णु, महेश है



भगवान शिव के त्रिशूल के संबंध में कहा जाता है की यह त्रिदेवो का प्रतीक ब्र्ह्मा, विष्णु, महेश है यानि इसे रचना, पालन एवं विनाश के रूप में देखा जाता है। इसे भुत, भविष्य तथा वर्तमान के साथ स्वर्ग, धरती तथा पाताल एवं इच्छा क्रिया एवं बुद्धि का प्रतीक भी माना जाता है! देवो के देव महादेव शिव अत्यन्त निराले तथा इसके साथ ही उनकी वेशभूषा भी अत्यन्त विचित्र है। भगवान शिव का प्रमुख अस्त्र त्रिशूल है। शिव शंकर के हाथ में मौजूद यह त्रिशूल अपने विषय में एक अलग ही कथा प्रस्तुत करता है। कुछ लोग भगवान शिव के अस्त्र त्रिशूल को विनाश की निशानी मानते है। परन्तु वास्तव में भगवान शिव के त्रिशूल के रहस्य को समझ पाना भगवान शिव के समान ही रहस्मयी एवं बहुत कठिन है। हमारे हिन्दू धार्मिक पुराणों एवं ग्रंथो में अनेक गूढ़ रहस्य छिपे हुए है जिनमे से एक है भगवान शिव के हाथ में उपस्थित त्रिशूल ! हिन्दू धर्म में देवियो के हाथो में भी त्रिशूल देखा जाता है। देवी शक्ति दुष्टों का विनाश अपने शस्त्र त्रिशूल से करती है। अतः भगवान शिव के त्रिशूल को त्रिदेवियों माता लक्ष्मी, सरस्वती एवं पार्वती के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। ऐसा भी कहा जाता है की भगवान शिव के त्रिशूल का निर्माण भौतिक लोक, पूर्वजो की दुनिया तथा विचारों की दुनिया के सर्वविनाश के लिए हुआ था। ताकि दुनिया में मनुष्य के बढ़ते पाप का विनाश कर एक नए आध्यात्मिक दुनिया का निर्माण हो सके ताकि सृष्टि में कोई पाप शेष ना रहे।

त्रिशूल, तीनों गुण सत, रज, तम का भी परिचायक है और त्रिशूल का शिव के हाथ में होने का अर्थ है कि भगवान तीनों गुणों से ऊपर है, वह निर्गुण है। शिव का त्रिशूल पवित्रता एवं शुभकर्म का प्रतीक है तथा इसमें मनुष्य के अतीत, भविष्य तथा वर्तमान के कष्टों को दूर करने की ताकत होती है। इतना ही नहीं इसी के साथ हमारी आत्मा जन्म एवं मृत्यु के चक्र को छोड़ मोक्ष की प्राप्ति द्वारा ईश्वर का सानिध्य पा सकती है। विभिन्न बुराइयों और नकारात्मकता को समाप्त करने की भी ताकत है। मनुष्य शरीर में भी त्रिशूल, जहां तीन नाड़ियां मिलती हैं, मौजूद है और यह ऊर्जा स्त्रोतों, इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना को दर्शाता है। सुषुम्ना जो कि मध्य में है, को सातवां चक्र और ऊर्जा का केंद्र कहा जाता है। हमारे शरीर में एक स्थान ऐसा होता है जो बाहरी उठापटक को पूरी तरह नजरअंदाज करता है और यह तभी कार्य करता है जब सुषुम्ना तक ऊर्जा पहुंचने लगती है। सुषुम्ना तक ऊर्जा पहुंचने के साथ ही जीवन की असली शुरुआत होती है। जब बाहर हो रही किसी भी तरह की गतिविधियों का प्रभाव मनुष्य के भीतर नहीं होता। वहीं अन्य दो कोनों को इड़ा और पिंगला कहा जाता है। इड़ा और पिंगला को शिव और शक्ति का नाम भी दिया जाता है। इन्हें शिव और शक्ति का नाम लिंग के अनुसार नहीं बल्कि उनकी विेशेषताओं के आधार पर दिया गया है।

शनिवार, 10 नवंबर 2018

प्रदोष व्रत - भगवान शिव के लिए रखा जाता है




हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रदोष व्रत कलियुग में अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करनेवाला होता है। माह की त्रयोदशी तिथि में सायं काल को प्रदोष काल कहा जाता है।मान्यता है कि प्रदोष के समय महादेव कैलाश पर्वत के रजत भवन में इस समय नृत्य करते हैं और देवता उनके गुणों का स्तवन करते हैं। जो भी लोग अपना कल्याण चाहते हों यह व्रत रख सकते हैं। प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है। सप्ताह केसातों दिन के प्रदोष व्रत का अपना विशेष महत्व है।

यह व्रत बहुत्त मंगलकारी होता है तथा इस व्रत को त्रयोदशी तिथि को रखा जाता है| यदि इस दिन आप व्रत रखें तो आपको भगवान शिव की कृपा प्राप्त होगी| इस दिन भगवान शिव के लिए व्रत रखने तथा उनकी पूजा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है| मोक्ष का अर्थ है अपने मनोविकारों से मुक्ति प्राप्त करना !

पौराणिक कथा

इस व्रत के महात्म्य को गंगा के तट पर किसी समय वेदों के ज्ञाता और भगवान केभक्त सूतजी ने शौनकादि ऋषियों को सुनाया था। सूतजी ने कहा है कि कलियुग में जब मनुष्य धर्म के आचरण से हटकर अधर्म की राह पर जा रहा होगाहर तरफ अन्याय और अनाचार का बोलबाला होगा। मानव अपने कर्तव्य से विमुख होकर नीच कर्म में संलग्न होगा उस समय प्रदोष व्रत ऐसा व्रत होगा जो मानव को शिव की कृपा का पात्र बनाएगा और नीच गति से मुक्त होकर मनुष्य उत्तम लोकको प्राप्त होगा। सूत जी ने शौनकादि ऋषियों को यह भी कहा कि प्रदोष व्रत से पुण्य से कलियुग में मनुष्य के सभी प्रकार के कष्ट और पाप नष्ट हो जाएंगे। यह व्रत अति कल्याणकारी है इस व्रत के प्रभाव से मनुष्यको अभीष्ट की प्राप्ति होगी। इस व्रत में अलग अलग दिन के प्रदोष व्रत सेक्या लाभ मिलता है यह भी सूत जी ने बताया। सूत जी ने शौनकादि ऋषियों कोबताया कि इस व्रत के महात्मय को सर्वप्रथम भगवान शंकर ने माता सती कोसुनाया था। मुझे यही कथा और महात्मय महर्षि वेदव्यास जी ने सुनाया और यह उत्तम व्रत महात्म्य मैने आपको सुनाया है। प्रदोष व्रत विधानसूत जी ने कहा है प्रत्येक पक्ष की त्रयोदशी के व्रत को प्रदोष व्रत कहते हैं। सूर्यास्त के पश्चात रात्रि के आने से पूर्व का समय प्रदोष काल कहलाता है। इस व्रत में महादेव भोले शंकरकी पूजा की जाती है। इस व्रत में व्रती को निर्जल रहकर व्रत रखना होता है। प्रात: काल स्नान करके भगवान शिव की बेल पत्र, गंगाजल अक्षत धूप दीप सहित पूजा करें। संध्या काल में पुन: स्नान करके इसी प्रकार से शिव जी की पूजा करना चाहिए। इस प्रकार प्रदोष व्रत करने से व्रती को पुण्य मिलता है।

प्रदोष व्रत कथा

प्रदोष व्रत कथा स्कंद पुराण में वर्णित है| इस कथा के अनुसार प्राचीन काल में एक विधवा ब्राह्मणी रोज अपने पुत्र को लेकर भिक्षा लेने जाती थी और संध्या को वापिस घर लौटती थी| एक दिन जब वह अपने पुत्र के साथ भिक्षा लेकर लौट रही थी तो रस्ते में उसे नदी के किनारे के पास एक सुंदर बालक दिखाई दिया| वह बालक विदर्भ देश का राजकुमार धर्मगुप्त था| शत्रुओं ने उसके पिता को मारकर उसका राज्य हड़प लिया था| उसकी माता की मृत्यु भी अकाल हुई थी| ब्राह्मणी ने उस बालक को अपना लिया और उसका पालन-पोषण किया|
कुछ समय पश्चात ब्राह्मणी दोनों बालकों के साथ देवयोग से देव मंदिर गई| वहां उनकी भेंट ऋषि शाण्डिल्य से हुई| ऋषि शाण्डिल्य ने ब्राह्मणी को बताया कि जो बालक उन्हें मिला है वह विदर्भ देश के राजा का पुत्र है जो युद्ध में मारे गए थे और उनकी माता को ग्राह ने अपना भोजन बना लिया था| ऋषि शाण्डिल्य ने ब्राह्मणी को प्रदोष व्रत करने की सलाह दी| ऋषि आज्ञा से दोनों बालकों ने भी अपनी माता के साथ प्रदोष व्रत करना शुरू किया|
एक दिन दोनों बालक वन में घूम रहे थे| तभी उन्हें कुछ गंधर्व कन्याएं नजर आई| ब्राह्मण बालक तो घर वापिस लौट आया| परन्तु राजकुमार धर्मगुप्त “अंशुमती” नाम की गंधर्व कन्या पर मोहित हो गया और उससे बात करने लग गया| कन्या ने विवाह हेतु राजकुमार को अपने पिता से मिलवाने के लिए बुलाया| दूसरे दिन जब वह पुन: गंधर्व कन्या से मिलने आया तो गंधर्व कन्या के पिता ने बताया कि वह विदर्भ देश का राजकुमार है| भगवान शिव की आज्ञा से गंधर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त से करवा दिया|
इसके बाद राजकुमार धर्मगुप्त ने गंधर्व सेना की सहायता से विदर्भ देश पर पुनः आधिपत्य प्राप्त किया| यह सब ब्राह्मणी और राजकुमार धर्मगुप्त के प्रदोष व्रत करने का फल था| स्कंदपुराण के अनुसार जो भक्त प्रदोष व्रत के दिन शिव पूजा के बाद एक्राग होकर प्रदोष व्रत कथा सुनता या पढ़ता है उसे सौ जन्मों तक कभी दरिद्रता नहीं होती|

प्रदोष व्रत विधि

स्कंदपुराण में त्रयोदशी तिथि में सांयकाल को प्रदोष काल कहा गया है| प्रत्येक माह के कृष्ण और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन प्रदोष व्रत किया जाता है|
इस दिन सूर्यास्त से पहले स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण करने चाहिए|
इसके बाद सायंकाल में विभिन्न पुष्पों, लाल चंदन, हवन और पंचामृत द्वारा भगवान शिव जी की पूजा करनी चाहिए|
पूजा के समय एकाग्र रहना चाहिए और शिव-पार्वती का ध्यान करना चाहिए|
मान्यता है कि एक वर्ष तक लगातार यह व्रत करने से मनुष्य के सभी पाप खत्म हो जाते हैं|


प्रदोष व्रत से मिलने वाले फल 

प्रदोष व्रत के लाभ अलग – अलग वारों के अनुसार प्राप्त होते हैं|
रविवार को पड़ने वाले प्रदोष व्रत से आयु वृद्धि तथा अच्छे स्वास्थ्य का लाभ प्राप्त किया जा सकता है|
सोमवार के दिन त्रयोदशी पड़ने पर किया जाने वाला व्रत आरोग्य प्रदान करता है और व्यक्ति की सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है|
मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो तो उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है|
बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपासक की सभी कामनाओं की पूर्ति होती है|
गुरुवार के दिन प्रदोष व्रत पड़े तो इस दिन के व्रत के फल से शत्रुओं का विनाश होता है|
शुक्रवार के दिन होने वाला प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख -शान्ति के लिए किया जाता है|
संतान प्राप्ति की कामना हो तो शनिवार के दिन पड़ने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए|
अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किए जाते हैं तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है|


शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

रामचरितमानस के बालकाण्ड में भगवान शंकर द्वारा कामदेव को भष्म करने की सम्पूर्ण कथा



एक समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए॥ वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गए।
तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर पुकार मचाई। ब्रह्माजी ने सब देवताओं को दुःखी देखा॥ ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा- इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा॥
मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है॥ उन्होंने शिवजी को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो॥
तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भंग करे)। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे॥
इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा- यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ॥
देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥

*तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥
भावार्थ:-तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं॥ यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसन्तादि) सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है॥
तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई॥ ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई॥

*भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥
भावार्थ:-विवेक अपने सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए। उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रंथों में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत्‌ में खलबली मच गई (और सब कहने लगे) हे विधाता! अब क्या होने वाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिर वाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है?
जगत में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गए॥ सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने (मिलने-जुलने) लगीं॥
जब जड़ (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में हो गए॥ सब लोक कामान्ध होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल-॥
ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान्‌ योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए॥

*भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥
भावार्थ:-जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्राह्मण्ड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।
किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे॥
दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-का तैसा स्थिर हो गया।
तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा पिए हुए) लोग मद (नशा) उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र (महाभयंकर) शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया॥
लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं॥

*बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥
भावार्थ:-वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुंदर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उम़ड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा॥

*जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा
भावार्थ:-मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुंदरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गए, जिन पर सुंदर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं॥
कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाए) करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा॥ आम के वृक्ष की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया। उसने पुष्प धनुष पर अपने (पाँचों) बाण चढ़ाए और अत्यन्त क्रोध से (लक्ष्य की ओर) ताककर उन्हें कान तक तान लिया॥
कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए। ईश्वर (शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा॥
जब आम के पत्तों में (छिपे हुए) कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उनको देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया॥
जगत में बड़ा हाहाकर मच गया। देवता डर गए, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गए॥

*जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई॥
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥
भावार्थ:-योगी निष्कंटक हो गए, कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्च्छित हो गई। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गई।
अत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई। शीघ्र प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला (असहाय स्त्री) को देखकर सुंदर (उसको सान्त्वना देने वाले) वचन बोले।
हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥

*जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥
भावार्थ:-जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा॥ शिवजी के वचन सुनकर रति चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले॥

*सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥
भावार्थ:-फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए॥

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

कैसे हुई रुद्राक्ष की उत्पत्ति




रुद्राक्ष एक खास तरह के पेड़ का बीज है। ये पेड़ आमतौर पर पहाड़ी इलाकों में एक खास ऊंचाई पर, खासकर हिमालय और पश्चिमी घाट सहित कुछ और जगहों पर भी पाए जाते हैं।

रुद्राक्ष का पेड़ कोई सामान्य वृक्ष नही है | इसकी उत्पत्ति के पीछे एक पौराणिक कथा है जो पुराणों में आती है | इसके सम्बन्ध भगवान शिव से है | रुद्राक्ष शब्द रूद्र और अक्ष से मिलकर बना है |

इसका अर्थ है रूद्र के आँसू | भगवान शिव का ही दूसरा नाम है रूद्र और उनके आँखों के आंसू से बना है रुद्राक्ष| रुद्राक्ष का शिव पूजा में महत्त्व अत्यधिक है |

रुद्राक्ष एक प्रकार का जंगली फल माना जाता है, जो बेर के आकार का दिखाई देता है और यह हिमालय में उत्पन्न होता है। रुद्राक्ष जो है वह नेपाल में बहुतायत में पाया जाता है। जहां रुद्राक्ष दिखने में जामुन के समान होता है वहीं स्वाद में वह बेर के समान होता है। रुद्राक्ष अलग-अलग आकार और अलग-अलग रंगों में भी मिलता है। साथ ही रुद्राक्ष के फल के पक जाने के बाद इसका ऊपरी छिल्का उतार लिया जाता है और फिर इसके अंदर से प्राप्त होने वाली गुठली ही असल में रुद्राक्ष कहलाती है। इसी गुठली के ऊपर 1 से 14 तक धारियां बनी रहती हैं और इन्हें ही मुख कहा जाता है।

जान लें कि रुद्राक्ष को आकार के हिसाब से तीन भागों में बांटा गया है, जो इस प्रकार है –
उत्तम श्रेणी: जिस रुद्राक्ष का आकार आंवले के फल के बराबर हो वह सबसे उत्तम माना जाता है।
मध्यम श्रेणी: वहीं, जिस रुद्राक्ष का आकार बेर के फल के समान होता है वह मध्यम श्रेणी में आता है।
निम्न श्रेणी: और चने के बराबर आकार वाले रुद्राक्ष की गिनती निम्न श्रेणी में की जाती है।


रुद्राक्ष से जुडी कथा

एक बार की बात है जब भगवान शिव ने अपने मन को वश में कर दुनिया के कल्याण के लिए कई सालों तक तप किया था लेकिन एक दिन अचानक ही उनका मन बहुत दु:खी हो गया और जब उन्होंने अपनी आंखें खोली तो उनमें से कुछ आंसूओं के बूंद जमीन पर आ गिरे। कहते हैं कि इन्हीं आंसूओं की बूदों से एक विशाल वृक्ष की उत्पत्ति हुई। यही नहीं, इस खास वृक्ष पर जो फल लगे वह ही रुद्राक्ष थे और शिव की इच्छा से भक्तों के हित के लिए यह पूरे देश में फैल गए।

शिव और रुद्राक्ष का है गहरा रिश्ता

भगवान शिव के रूप को देखने पर आप ये पाएंगे की उनके शरीर पर दो चीजो के ही आभूषण होते है | भोलेनाथ के एक आभूषण है नाग और दूसरा है रुद्राक्ष की माला | शिव ने इसे अपने दोनों हाथो में , गले में और सिर पर बांध रखा है |

शिव मंत्रो के जप में सबसे मुख्य रुद्राक्ष

यदि आप भगवान शिव को प्रसन्न करने के उपाय जानते है , तो उसमे एक है मंत्र जप सही विधि से | भोलेनाथ को खुश करते है एकाग्रचित होकर किये गये मंत्रो के जप | आप शिव के मंत्र का रुद्राक्ष की माला के साथ जप करे और आशुतोष भगवान आप पर कृपा करेंगे |

रुद्राक्ष का महत्त्व

रुद्राक्ष की खासियत यह है कि इसमें एक अनोखे तरह का स्पदंन होता है। जो आपके लिए आप की ऊर्जा का एक सुरक्षा कवच बना देता है, जिससे बाहरी ऊर्जाएं आपको परेशान नहीं कर पातीं। इसीलिए रुद्राक्ष ऐसे लोगों के लिए बेहद अच्छा है जिन्हें लगातार यात्रा में होने की वजह से अलग-अलग जगहों पर रहना पड़ता है। आपने गौर किया होगा कि जब आप कहीं बाहर जाते हैं, तो कुछ जगहों पर तो आपको फौरन नींद आ जाती है, लेकिन कुछ जगहों पर बेहद थके होने के बावजूद आप सो नहीं पाते। इसकी वजह यह है कि अगर आपके आसपास का माहौल आपकी ऊर्जा के अनुकूल नहीं हुआ तो आपका उस जगह ठहरना मुश्किल हो जाएगा। चूंकि साधु-संन्यासी लगातार अपनी जगह बदलते रहते हैं, इसलिए बदली हुई जगह और स्थितियों में उनको तकलीफ हो सकती है। उनका मानना था कि एक ही स्थान पर कभी दोबारा नहीं ठहरना चाहिए। इसीलिए वे हमेशा रुद्राक्ष पहने रहते थे। आज के दौर में भी लोग अपने काम के सिलसिले में यात्रा करते और कई अलग-अलग जगहों पर खाते और सोते हैं। जब कोई इंसान लगातार यात्रा में रहता है या अपनी जगह बदलता रहता है, तो उसके लिए रुद्राक्ष बहुत सहायक होता है।

रुद्राक्ष के फायदे

रुद्राक्ष के संबंध में एक और बात महत्वपूर्ण है। खुले में या जंगलों में रहने वाले साधु-संन्यासी अनजाने सोत्र का पानी नहीं पीते, क्योंकि अक्सर किसी जहरीली गैस या और किसी वजह से वह पानी जहरीला भी हो सकता है। रुद्राक्ष की मदद से यह जाना जा सकता है कि वह पानी पीने लायक है या नहीं। रुद्राक्ष को पानी के ऊपर पकड़ कर रखने से अगर वह खुद-ब-खुद घड़ी की दिशा में घूमने लगे, तो इसका मतलब है कि वह पानी पीने लायक है। अगर पानी जहरीला या हानि पहुंचाने वाला होगा तो रुद्राक्ष घड़ी की दिशा से उलटा घूमेगा। इतिहास के एक खास दौर में, देश के उत्तरी क्षेत्र में, एक बेहद बचकानी होड़ चली। वैदिककाल में सिर्फ एक ही भगवान को पूजा जाता था – रुद्र यानी शिव को। समय के साथ-साथ वैष्णव भी आए। अब इन दोनों में द्वेष भाव इतना बढ़ा कि वैष्णव लोग शिव को पूजने वालों, खासकर संन्यासियों को अपने घर बुलाते और उन्हें जहरीला भोजन परोस देते थे। ऐसे में संन्यासियों ने खुद को बचाने का एक अनोखा तरीका अपनाया। काफी शिव भक्त आज भी इसी परंपरा का पालन करते हैं। अगर आप उन्हें भोजन देंगे, तो वे उस भोजन को आपके घर पर नहीं खाएंगे, बल्कि वे उसे किसी और जगह ले जाकर, पहले उसके ऊपर रुद्राक्ष रखकर यह जांचेंगे कि भोजन खाने लायक है या नहीं।
रुद्राक्ष नकारात्मक ऊर्जा के बचने के एक असरदार कवच की तरह काम करता है। कुछ लोग नकारात्मक शक्ति का इस्तेमाल करके दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं। यह अपने आप में एक अलग विज्ञान है। अथर्व वेद में इसके बारे में विस्तार से बताया गया है कि कैसे ऊर्जा को अपने फायदे और दूसरों के अहित के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है। अगर कोई इंसान इस विद्या में महारत हासिल कर ले, तो वह अपनी शक्ति के प्रयोग से दूसरों को किसी भी हद तक नुकसान पहुंचा सकता है, यहां तक कि दूसरे की मृत्यु भी हो सकती है। इन सभी स्थितियों में रुद्राक्ष कवच की तरह कारगर हो सकता है।

रुद्राक्ष के प्रकार

रुद्राक्ष कितने तरह के है , इसके बारे में शिव पुराण की विद्येश्वर संहिता में रुद्राक्ष के 14 प्रकार बताए गए हैं जिन्हें अलग-अलग प्रयोजन के लिए पहना जाता है। इसलिए बस किसी भी दुकान से कोई भी रुद्राक्ष खरीदकर पहन लेना उचित नहीं होता। हालांकि पंचमुखी रुद्राक्ष सबसे सुरक्षित विकल्प है जो हर किसी – स्त्री, पुरुष, बच्चे, हर किसी के लिए अच्छा माना जाता है। यह सेहत और सुख की दृष्टि से भी फायदेमंद हैं, जिससे रक्तचाप नीचे आता है और स्नायु तंत्र तनाव मुक्त और शांत होता है।  इनके मुख के आधार पर किया जाता है | यह एकमुखी , दो मुखी से लेकर चौदह मुखी तक होते है |
इन सभी का फल और महत्व भी अलग अलग है | सबसे ज्यादा एक मुखी रुद्राक्ष की मान्यता होती है | असली एकमुखी रुद्राक्ष मिलना दुर्लभ है


ऐसे रुद्राक्ष से बचें 


ध्यान रखें कि जिस रुद्राक्ष को कीड़ों ने खराब कर दिया हो या फिर टूटा-फूटा हो… या यूं कहे कि पूरी तरह से गोल न हो… जिसमें उभरे हुए दाने न हों, ऐसा रुद्राक्ष पहनना शुभ नहीं माना जाता। वहीं, जिस रुद्राक्ष में अपने आप डोरा पिरोने के लिए छेद हो गया हो, वह शुभ व उत्तम माना जाता है।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

रुद्राभिषेक का महत्त्व



भगवान शिव के रुद्राभिषेक से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है साथ ही ग्रह जनित दोषों और रोगों से शीघ्र ही मुक्ति मिल जाती है। रूद्रहृदयोपनिषद अनुसार शिव हैं।

सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:

अर्थात्: सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं। भगवान शंकर सर्व कल्याणकारी देव के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनकी पूजा,अराधना समस्त मनोरथ को पूर्ण करती है। हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक भगवान शिव का पूजन करने से सभी मनोकामनाएं शीघ्र ही पूर्ण होती हैं। भगवान शिव को शुक्लयजुर्वेद अत्यन्त प्रिय है कहा भी गया है वेदः शिवः शिवो वेदः। इसी कारण ऋषियों ने शुकलयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से रुद्राभिषेक करने का विधान शास्त्रों में बतलाया गया है।

यजुर्मयो हृदयं देवो यजुर्भिः शत्रुद्रियैः।
पूजनीयो महारुद्रो सन्ततिश्रेयमिच्छता।।
विधि से रुद्राभिषेक करने से विशेष लाभ की प्राप्ति होती है ।जाबालोपनिषद में याज्ञवल्क्य ने कहा – शतरुद्रियेणेति अर्थात शतरुद्रिय के सतत पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। परन्तु जो भक्त यजुर्वेदीय विधि-विधान से पूजा करने में असमर्थ हैं या इस विधान से परिचित नहीं हैं वे लोग केवल भगवान शिव के षडाक्षरी मंत्र– ॐ नम:शिवाय का जप करते हुए रुद्राभिषेक का पूर्ण लाभ प्राप्त कर सकते है।महाशिवरात्रि पर शिव-आराधना करने से महादेव शीघ्र ही प्रसन्न होते है। शिव भक्त इस दिन अवश्य ही शिवजी का अभिषेक करते हैं।

क्या है रुद्राभिषेक ?
अभिषेक शब्द का शाब्दिक अर्थ है – स्नान करना अथवा कराना। रुद्राभिषेक का अर्थ है भगवान रुद्र का अभिषेक अर्थात शिवलिंग पर रुद्र के मंत्रों के द्वारा अभिषेक करना। यह पवित्र-स्नान रुद्ररूप शिव को कराया जाता है। वर्तमान समय में अभिषेक रुद्राभिषेक के रुप में ही विश्रुत है। अभिषेक के कई रूप तथा प्रकार होते हैं। शिव जी को प्रसंन्न करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है रुद्राभिषेक करना अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा कराना। वैसे भी अपनी जटा में गंगा को धारण करने से भगवान शिव को जलधाराप्रिय माना गया है।

रुद्राभिषेक क्यों करते हैं?
शिव ही रूद्र हैं और रुद्र ही शिव है। रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: अर्थात रूद्र रूप में प्रतिष्ठित शिव हमारे सभी दु:खों को शीघ्र ही समाप्त कर देते हैं। वस्तुतः जो दुःख हम भोगते है उसका कारण हम सब स्वयं ही है हमारे द्वारा जाने अनजाने में किये गए प्रकृति विरुद्ध आचरण के परिणाम स्वरूप ही हम दुःख भोगते हैं।

रुद्राभिषेक का आरम्भ कैसे हुआ ?
प्रचलित कथा के अनुसार भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी जबअपने जन्म का कारण जानने के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे तो उन्होंने ब्रह्मा की उत्पत्ति का रहस्य बताया और यह भी कहा कि मेरे कारण ही आपकी उत्पत्ति हुई है। परन्तु ब्रह्माजी यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए और दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध से नाराज भगवान रुद्र लिंग रूप में प्रकट हुए। इस लिंग का आदि अन्त जब ब्रह्मा और विष्णु को कहीं पता नहीं चला तो हार मान लिया और लिंग का अभिषेक किया, जिससे भगवान प्रसन्न हुए। कहा जाता है कि यहीं से रुद्राभिषेक का आरम्भ हुआ।
यह भी माना जाता है की समुद्र मंथन के समय बिश पीने से जो भगवान शिव को जलन हुई, उससे राहत दिलाने के लिए शिव पर गंगा जल डाला गया। कहा जाता है कि यहीं से भी रुद्राभिषेक का आरम्भ हुआ।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव सपरिवार वृषभ पर बैठकर विहार कर रहे थे। उसी समय माता पार्वती ने मर्त्यलोक में रुद्राभिषेक कर्म में प्रवृत्त लोगो को देखा तो भगवान शिव से जिज्ञासा कि की हे नाथ मर्त्यलोक में इस इस तरह आपकी पूजा क्यों की जाती है? तथा इसका फल क्या है? भगवान शिव ने कहा – हे प्रिये! जो मनुष्य शीघ्र ही अपनी कामना पूर्ण करना चाहता है वह आशुतोषस्वरूप मेरा विविध द्रव्यों से विविध फल की प्राप्ति हेतु अभिषेक करता है। जो मनुष्य शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से अभिषेक करता है उसे मैं प्रसन्न होकर शीघ्र मनोवांछित फल प्रदान करता हूँ। जो व्यक्ति जिस कामना की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक करता है वह उसी प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग करता है अर्थात यदि कोई वाहन प्राप्त करने की इच्छा से रुद्राभिषेक करता है तो उसे दही से अभिषेक करना चाहिए यदि कोई रोग दुःख से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे कुशा के जल से अभिषेक करना या कराना चाहिए।

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

भक्तियोग क्या है?



भक्ति योग भजनकुर्यामइष्ट देवता में अनुराग रख कर आन्तरिक विकास। भजन कीर्तन व सत्संग करना।

भक्ति का अर्थ है प्रेम और ईश्वर के प्रति निष्ठा - सृष्टि के प्रति प्रेम और निष्ठा, सभी प्राणियों के प्रति सम्मान और उनका संरक्षण। हर कोई भक्तियोग का अभ्यास कर सकता है, चाहे छोटा हो या बड़ा, धनी अथवा निर्धन, चाहे वह किसी भी राष्ट्र या धर्म से संबंध रखता हो। भक्तियोग का मार्ग हमें अपने उद्देश्य की ओर सीधा और सुरक्षित पहुंचा देता है।

भक्तियोग में ईश्वर के किसी रूप की आराधना भी सम्मिलित है। ईश्वर सब जगह है। ईश्वर हमारे भीतर और हमारे चारों ओर निवास करता है। यह ऐसा है जैसे हम ईश्वर से एक उत्तम धागे से जुड़े हों - प्रेम का धागा। ईश्वर विश्व प्रेम है। प्रेम और दैवी अनुकम्पा हमारे चारों ओर है और हमारे माध्यम से बहती है, किन्तु हम इसके प्रति सचेत नहीं हैं। जिस क्षण यह चेतनता, यह दैवीय प्रेम अनुभव कर लिया जाता है उसी क्षण से व्यक्ति किसी अन्य वस्तु की चाहना ही नहीं करता। तब हम ईश्वर प्रेम का सच्चा अर्थ समझ जाते हैं।
भक्तिहीन व्यक्ति एक जलहीन मछली के समान, बिना पंख के पक्षी, बिना चन्द्रमा और तारों के रात्रि के समान है। सभी को प्रेम चाहिये। इसके माध्यम से हम वैसे ही सुरक्षित और सुखी अनुभव करते हैं जैसे एक बच्चा अपनी माँ की बाहों में या एक यात्री एक लम्बी कष्टदायी यात्रा की समाप्ति पर अनुभव करता है।

भक्तियोग से तात्पर्य भक्ति के माध्यम से ईश्वरानुभूति या परमतत्त्व के साथ योग है। भक्तियोग भक्तिमार्ग का साधन है। विवेकानन्द के अनुसार भक्ति योग ईश्वर प्राप्ति का सबसे सरल सहज मार्ग है।

यह योग भावनाप्रधान और प्रेमी प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए उपयोगी है। वह ईश्वर से प्रेम करना चाहता है और सभी प्रकार के क्रिया-अनुष्ठान, पुष्प, गन्ध-द्रव्य, सुन्दर मन्दिर और मूर्ति आदि का आश्रय लेता और उपयोग करता है। प्रेम एक आधारभूत एवं सार्वभौम संवेग है। यदि कोई व्यक्ति मृत्यु से डरता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसे अपने जीवन से प्रेम है। यदि कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो इसका तात्पर्य यह है कि उसे स्वार्थ से प्रेम है। किसी व्यक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र आदि से विशेष प्रेम हो सकता है। इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है। यदि यही प्रेम परमात्मा से हो जाय तो वह मुक्तिदाता बन जाता है। ज्यों-ज्यों ईश्वर से लगाव बढ़ता है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से लगाव कम होने लगता है। जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य लेकर ईश्वर का ध्यान करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता। पराभक्ति ही भक्तियोग के अन्तर्गत आती है जिसमें मुक्ति को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होती। भक्तियोग शिक्षा देता है कि ईश्वर से, शुभ से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ति के लिए। वह यह सिखाता है कि प्रेम का सबसे बढ़ कर पुरस्कार प्रेम ही है और स्वयं ईश्वर प्रेम स्वरूप है। विष्णु पुराण में भक्तियोग की सर्वोत्तम परिभाषा दी गयी है।

॥ या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।

त्वामनुस्मरत: सा मे हृदयान्मापसमर्पतु ॥

‘‘हे ईश्वर! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान् पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी तुझमें हो और तेरा स्मरण करते हुए मेरे हृदय से वह कभी दूर न होवे।’’ भक्तियोग सभी प्रकार के संबोधनों द्वारा ईश्वर को अपने हृदय का भक्ति-अर्घ्य प्रदान करना सिखाता है- जैसे, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी आदि। सबसे बढ़कर वाक्यांश जो ईश्वर का वर्णन कर सकता है, सबसे बढ़कर कल्पना जिसे मनुष्य का मन ईश्वर के बारे में ग्रहण कर सकता है, वह यह है कि ‘ईश्वर प्रेम स्वरूप है’। जहाँ कहीं प्रेम है, वह परमेश्वर ही है। जब पति पत्नी का चुम्बन करता है, तो वहाँ उस चुम्बन में वह ईश्वर है। जब माता बच्चे को दूध पिलाती है तो इस वात्सल्य में वह ईश्वर ही है। जब दो मित्र हाथ मिलाते हैं, तब वहाँ वह परमात्मा ही प्रेममय ईश्वर के रूप में विद्यमान है। मानव जाति की सहायता करने में भी ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट होता है। यही भक्तियोग की शिक्षा है।

भक्तियोग भी आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता आदि गुणों की अपेक्षा भक्त से करता है क्योंकि चित्त की निर्मलता के बिना नि:स्वार्थ प्रेम सम्भव ही नहीं है। प्रारम्भिक भक्ति के लिए ईश्वर के किसी स्वरूप की कल्पित प्रतिमा या मूर्ति (जैसे दुर्गा की मूर्ति, शिव की मूर्ति, राम की मूर्ति, कृष्ण की मूर्ति, गणेश की मूर्ति आदि) को श्रद्धा का आधार बनाया जाता है। किन्तु साधारण स्तर के लोगों को ही इसकी आवश्यकता पड़ती है।

भक्ति सूत्रों में नारद मुनि (ऋषि) ने भक्तियोग के नौ तत्वों का वर्णन किया है:-
  1. सत्संग-अच्छा आध्यात्मिक साथ
  2. हरि कथा-ईश्वर के बारे में सुनना और पढऩा
  3. श्रद्धा-विश्वास
  4. ईश्वर भजन-ईश्वर के गुणगान करना
  5. मंत्र जप-ईश्वर के नामों का स्मरण
  6. शम दम-सांसारिक वस्तुओं के संबंध में इन्द्रियों पर नियंत्रण
  7. संतों का आदर-ईश्वर को समर्पित जीवन वाले व्यक्तियों के समक्ष सम्मान प्रगट करना।
  8. संतोष-संतुष्टि
  9. ईश्वर प्रणिधान-ईश्वर की शरण

 वास्तव में भक्ति के आधार भावना एवं इसकी परिणति के रूप में निम्न हो सकते हैं –
1--- श्रद्धा
2--- आस्था
3--- विश्वास
4--- ईश्वर-प्रकाशना

भक्ति की विशेषताएं 
1---भक्ति अन्य मार्गों की अपेक्षा सरल मार्ग है।
2---यह सभी के लिये समान रूप से खुला है, जाति, धर्म, लिंग आधारित नहीं है।
3---विशेष अर्हता, विशेष ज्ञान, सक्षमता की कमी इसमें बाधक नहीं हैं।
4---भक्त का सरल, सहज एवं निर्मल होना ही भक्ति में आधारभूत है।
5---भक्ति, भक्त एवं भगवान के द्वैत (दो तत्त्व) पर आधारित है।

इस प्रकार इसमें तीन प्रमुख तत्त्व हैं 
1---भक्त, - साधक, उपासक, भजने वाला, व्रती इत्यादि
2---भक्ति – उपासना, साधना, भजन, कीर्तन आदि,
3---भगवान – भक्ति का आदर्श, ईश्वर, परमतत्त्व
भक्ति भावना प्रधान एवं द्विरेखीय है, अर्थात् जैसी निष्ठा एवं समर्पण भक्त का भगवान के प्रति होता है, वैसा ही उसे अपने आदर्श (भगवान) का स्वरूप दिखायी देता है।

भक्ति के प्रकार 
भक्ति दो प्रकार की हो सकती है ।
1---सोपाधिक भक्ति
2---निरूपाधिक भक्ति

सोपाधिक भक्ति से तात्पर्य है उपाधि या शर्त के साथ। उदारहणार्थ यदि किसी विशेष इच्छा पूर्ति हेतु भक्ति आरम्भ होती है, एवं उसके मिलने से समाप्त होती है तो ऐसी भक्ति सोपाधिक है।
निरूपाधिक भक्ति से तात्पर्य है बिना शर्त, प्रयोजन रहित (समर्पण)। जब भक्ति केवल ईश्वरोपासाना के लिये ईश्वरोपासना करता है तब निरूपाधिक भक्ति होती है।
निरूपाधिक भक्ति भक्ति की उच्चतर अवस्था है। जब साधक या भक्त या अनुभूत करता है कि सभी कुछ यहाँ तक की उसकी देह मन बुद्धि सभी भगवान मय है, तथा भगवान से पृथक या अलग कुछ भी नहीं तब उसे अपने लिये कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता, तब भक्ति निरुपाधिक हो जाती है।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

अचलेश्वर महादेव मंदिर - इस मंदिर में होती है भगवान शिव के अंगूठे की पूजा.




आबू पर्वत का केंद्रबिंदु अचलेश्वर महादेव मंदिर यहां का सबसे प्रमुख, स्थापत्य कला से परिपूर्ण ऐतिहासिक मंदिर है।
माउंट आबू(राजस्थान). माउंटआबू में अचलगढ़ दुनिया की इकलौती ऐसी जगह है जहां भगवान शिव के अंगूठे की पूजा होती है।भगवान शिव के सभी मंदिरों में उनके शिवलिंग की पूजा होती है लेकिन यहां भगवान शिव के अंगूठे की पूजा होती है। दरअसल भगवान शिव के अंगूठे के निशान मंदिर में आज भी देखे जा सकते हैं।इसमें चढ़ाया जानेवाला पानी कहा जाता है यह आज भी एक रहस्य है।माउंटआबू को अर्धकाशी भी कहा गया है और माना जाता है कि यहां भगवान शिव के छोटे-बड़े 108 मंदिर है।

अचलेश्वर महादेव मंदिर परिसर के विशाल चौक में चंपा का विशाल पेड़ अपनी प्राचीनता को दर्शाता है। मंदिर की बायीं बाजू की तरफ़ दो कलात्मक खंभों का धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी शिल्पकला अद्भुत है। कहते हैं कि इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे। मंदिर परिसर में द्वारिकाधीश मंदिर भी बना हुआ है। गर्भगृह के बाहर वराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम, बुद्ध व कलंगी अवतारों की काले पत्थर की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं।


मंदिर की कहानी

माउंटआबू की पहाड़ियों पर स्थित अचलगढ़ मंदिर पौराणिक मंदिर है जिसकी भव्यता देखते ही बनती है।इस मंदिर की काफी मान्यता है और माना जाता है कि इस मंदिर में महाशिवरात्रि,सोमवार के दिन,सावन महीने में जो भी भगवान शिव के दरबार में आता है। भगवान शंकर उसकी मुराद पूरी कर देते हैं।इस मंदिर की पौराणिक कहानी है कि जब अर्बुद पर्वत पर स्थित नंदीवर्धन हिलने लगा तो हिमालय में तपस्या कर रहे भगवान शंकर की तपस्या भंग हुई।क्योंकि इसी पर्वत पर भगवान शिव की प्यारी गाय नंदी भी थी।लिहाजा पर्वत के साथ नंदी गाय को भी बचाना था।भगवान शंकर ने हिमालय से ही अंगूठा फैलाया और अर्बुद पर्वत को स्थिर कर दिया।नंदी गाय बच गई और अर्बुद पर्वत भी स्थिर हो गया।





पौरणिक मान्यताओं के अनुसार पौराणिक काल में जहाँ आज आबू पर्वत स्थित है, वहाँ नीचे विराट ब्रह्म खाई थी। इसके तट पर वशिष्ठ मुनि रहते थे। उनकी गाय कामधेनु एक बार हरी घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई तो उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती, गंगा का आह्वान किया तो ब्रह्म खाई पानी से जमीन की सतह तक भर गई और कामधेनु गाय गोमुख पर बाहर जमीन पर आ गई।

एक बार दोबारा ऐसा ही हुआ। इसे देखते हुए बार-बार के हादसे को टालने के लिए वशिष्ठ मुनि ने हिमालय जाकर उससे ब्रह्म खाई को पाटने का अनुरोध किया। हिमालय ने मुनि का अनुरोध स्वीकार कर अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्रधन को जाने का आदेश दिया। अर्बुद नाग नंदी वद्रधन को उड़ाकर ब्रह्म खाई के पास वशिष्ठ आश्रम लाया। आश्रम में नंदी वद्रधन ने वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए एवं पहाड़ सबसे सुंदर व विभिन्न वनस्पतियों वाला होना चाहिए। वशिष्ठ ने वांछित वरदान दिए। उसी प्रकार अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो। इसके बाद से नंदी वद्रधन आबू पर्वत के नाम से विख्यात हुआ। वरदान प्राप्त कर नंदी वद्रधन खाई में उतरा तो धंसता ही चला गया, केवल नंदी वद्रधन की नाक एवं ऊपर का हिस्सा जमीन से ऊपर रहा, जो आज आबू पर्वत है। इसके बाद भी वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर महादेव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे को पसार कर इसे स्थिर किया यानी अचल कर दिया तभी यह अचलगढ़ कहलाया। तभी से यहां अचलेश्वर महादेव के रूप में महादेव के अंगूठे की पूजा-अर्चना की जाती है। इस अंगूठे के नीचे बने प्राकृतिक पाताल खड्डे में कितना भी पानी डालने पर खाई पानी से नहीं भरती। इसमें चढ़ाया जाने वाला जल कहाँ जाता है, यह आज भी एक रहस्य है।

प्रसन्न होने पर देते हैं दर्शन

भगवान शिव के अर्बुदांचल में वास करने का स्कंद पुराण में प्रमाण मिलता है।स्कंद पुराण के अर्बुद खंड में ये बात सामने आती है कि भगवान शंकर और विष्णु ने एक रात पूरे अर्बुद पर्वत की सैर करते हैं।माउंटआबू की गुफाओं में आज भी सैकड़ो साधु तप करते है क्योंकि कहते है यहां की गुफाओं में भगवान शंकर आज भी वास करते हैं और जिससे प्रसन्न होते हैं उसे साक्षात दर्शन भी देते हैं।

इस शिवलिंग से जुड़ी एक और चमत्‍कारिक बात जुड़ी है। बताते हैं कि शिवलिंग के छोर का पता कोई नहीं लगा सकता। कुछ समय पहले कुछ भक्‍तों ने शिवलिंग की गहराई जानने के लिए खुदाई की थी। लेकिन जब उन्‍हें इसका छोर नहीं मिला तो खुदाई रोक दी। इन्‍हीं चमत्‍कारिक घटनाओं के चलते इस मंदिर में भक्‍तों का तातां लगा रहता है। खासतौर पर कुंवारे लोगों की मन्‍नतें यहां आने पर जरूर पूरी होती है।

पहाड़ी के तल पर 15वीं शताब्दी में बना अचलेश्वर मंदिर में भगवान शिव के पैरों के निशान आज भी मौजूद हैं।भगवान शिव के सभी मंदिरों में उनके शिवलिंग की पूजा होती है लेकिन यहां भगवान शिव के अंगूठे की पूजा होती है। यहां भोले अंगूठे के रुप में विराजते हैं और सावन के महीने में इस रूप के दर्शन का विशेष महत्व है।


राजा ने बनवाया था मंदिर के पास किला

आबू पर्वत का केंद्रबिंदु अचलेश्वर महादेव मंदिर यहां का सबसे प्रमुख, स्थापत्य कला से परिपूर्ण ऐतिहासिक मंदिर है। यहां की अनोखी विशेषता है कि यहां भगवान शंकर के अंगूठे की पूजा होती है। गर्भगृह में शिवलिंग पाताल खंड के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिसके ऊपर एक तरफ पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है, जिन्हें स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है। यह भगवान देवाधिदेव शिव का दाहिना अंगूठा माना जाता है।पहाड़ी के तल पर 15वीं शताब्दी में बना अचलेश्वर मंदिर में भगवान शिव के पैरों के निशान आज भी मौजूद हैं। मेवाड़ के राजा राणा कुंभ ने अचलगढ़ किला एक पहाड़ी के ऊपर बनवाया था। किले के पास ही अचलेश्वर मंदिर है।

गर्भगृह में स्थापित है दशवातार की मूर्ती

मंदिर परिसर के विशाल चौक में चंपा का विशाल पेड़ अपनी प्राचीनता को दर्शाता है। मंदिर की बायीं बाजू की तरफ दो कलात्मक खंभों का धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी शिल्पकला अद्भुत है। कहते हैं कि इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे। मंदिर परिसर में द्वारिकाधीश मंदिर भी बना हुआ है।



गर्भगृह के बाहर वाराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम, बुद्ध व कलंगी अवतारों की काले पत्थर की भव्य मूर्तियां स्थापित हैं।यहां पर भगवान के अंगूठे के नीचे एक प्राकृतिक खड्ढा बना हुआ है। इस खड्ढे में कितना भी पानी डाला जाएं लेकिन यह कभी भरता नहीं है इसमें चढ़ाया जाने वाला पानी कहां जाता है यह आज भी एक रहस्य है। अचलेश्वर महादेव मंदिर परिसर के चौक में चंपा का विशाल पेड़ है मंदिर में बाएं ओर दो कलात्मक खंभों पर धर्मकांटा बना हुआ है। इस क्षेत्र के शासक राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त कर धर्मकांटे के नीचे प्रजा के साथ न्याय की शपथ लेते थे।

सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

शिवखोड़ी,जम्मू कश्मीर - शिव की चमत्कारी गुफा का पूरा रहस्य - शिव का कलयुग में निवास स्थान



भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में भगवान शिव से जुड़ी एक ऐसी अनोखी जगह हैं, जिसके बारे में कई मान्यताएं प्रचलित हैं. एक मान्यता यह बताती है कि इस गुफा में खुद भगवान शिव निवास करते हैं. दूसरी मान्यता यह है कि यह गुफा सीधे अमरनाथ निकलती है. तीसरी मान्यता के अनुसार इस गुफा में निश्चित दूरी के बाद जो भी गया है वह वापस नहीं आया है. तो इसलिए शिवखोड़ी नामक इस गुफा को रहस्मयी बोला जाता है. जम्मू से लगभग 140 कि.मी. दूर ऊधमपुर नामक जगह पर भगवान शिव की यह चमत्कारी गुफा स्थित है.

शिव खोड़ी शिवालिक पर्वत शृंखला में एक प्राकृतिक गुफा है, जिसमें प्रकृति-निर्मित शिव-लिंग विद्यमान है। शिव खोड़ी तीर्थ स्थल पर महाशिवरात्रि के दिन बहुत बड़ा मेला आयोजित होता है जिसमें हजारों की संख्या में लोग दूर-दूर से यहां आकर अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं और आयोजित इस मेले में शामिल होते हैं। शिव खोड़ी की यात्रा बारह महीने चलती है। अति प्राचीन मंदिरों के कई अवशेष अब भी इस क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं। शिव खोड़ी शिवभक्तों के लिए एक महान तीर्थ स्थल है।

द्वापर युग में इस गुफा का वर्णन

द्वापर युग में भी शिवखोड़ी नामक इस गुफा का वर्णन आता है. बताया जाता है कि जो सिद्ध साधू अमरनाथ को जा रहे होते थे वह यहाँ से ही जाते थे. पहले यह साधू भगवान शिव के यहाँ पर दर्शन करते थे.

इस गुफ़ा के संबंध में अनेक कथाएं प्रसिद्ध हैं। इन कथाओं में भस्मासुर से संबंधित कथा सबसे अधिक प्रचलित है। भस्मासुर असुर जाति का था। उसने भगवान शंकर की घोर तपस्या की थी, जिससे प्रसन्‍न होकर भगवान शंकर ने उसे वरदान दिया था कि वह जिस व्यक्ति के सिर पर हाथ रखेगा, वह भस्‍म हो जाएगा। वरदान प्राप्ति के बाद वह ऋषि-मुनियों पर अत्याचार करने लगा। उसका अत्याचार इतना बढ़ गया था कि देवता भी उससे डरने लगे थे। देवता उसे मारने का उपाय ढूँढ़ने लगे। इसी उपाय के अंतर्गत नारद मुनि ने उसे देवी पार्वती का अपहरण करने के लिए प्रेरित किया। नारद मुनि ने भस्मासुर से कहा, वह तो अति बलवान है। इसलिए उसके पास तो पार्वती जैसी सुन्दरी होनी चाहिए, जो कि अति सुन्दर है। भस्मासुर के मन में लालच आ गया और वह पार्वती को पाने की इच्छा से भगवान शंकर के पीछे भागा। शंकर ने उसे अपने पीछे आता देखा तो वह पार्वती और नंदी को साथ में लेकर भागे और फिर शिवखोड़ी के पास आकर रूक गए। यहाँ भस्मासुर और भगवान शंकर के बीच में युद्ध प्रारंभ हो गया। यहाँ पर युद्ध होने के कारण ही इस स्थान का नाम रनसू पड़ा। रन का मतलब 'युद्ध' और सू का मतलब 'भूमि' होता है। इसी कारण इस स्थान को 'रनसू' कहा जाता है। रनसू शिवखोड़ी यात्रा का बेस कैम्प है। अपने ही दिए हुए वरदान के कारण वह उसे नहीं मार सकते थे। भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल से शिवखोड़ी का निमार्ण किया। शंकर भगवान ने माता पार्वती के साथ गुफ़ा में प्रवेश किया और योग साधना में बैठ गये। इसके बाद भगवान विष्णु ने पार्वती का रूप धारण किया और भस्मासुर के साथ नृत्य करने लगे। नृत्य के दौरान ही उन्होंने अपने सिर पर हाथ रखा, उसी प्रकार भस्मासुर ने भी अपने सिर पर हाथ रखा, जिस कारण वह भस्म हो गया। इसके पश्चात् भगवान विष्णु ने कामधेनु की मदद से गुफा के अन्दर प्रवेश किया फिर सभी देवी-देवताओं ने वहाँ भगवान शंकर की अराधना की। इसी समय भगवान शंकर ने कहा कि आज से यह स्थान 'शिवखोड़ी' के नाम से जाना जायेगा।

शिव खोड़ी शिव तीर्थ का कोई प्रामाणिक इतिहास आज तक उपलब्ध नहीं हो पाया है। लोक श्रुतियों में कहा गया है कि स्यालकोट (वर्तमान में यह स्थान पाकिस्तान में है) के राजा सालवाहन ने शिव खोड़ी में शिवलिंग के दर्शन किए थे और इस क्षेत्र में कई मंदिर भी निर्माण करवाए थे, जो बाद में सालवाहन मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

इस गुफा में दो कक्ष हैं। बाहरी कक्ष कुछ बड़ा है, लेकिन भीतरी कक्ष छोटा है। बाहर वाले कक्ष से भीतरी कक्ष में जाने का रास्ता कुछ तंग और कम ऊंचाई वाला है जहां से झुक कर गुजरना पड़ता है। आगे चलकर यह रास्ता दो हिस्सों में बंट जाता है, जिसमें से एक के विषय में ऐसा विश्वास है कि यह कश्मीर जाता है। यह रास्ता अब बंद कर दिया गया है। दूसरा मार्ग गुफा की ओर जाता है, जहां स्वयंभू शिव की मूर्ति है। गुफा की छत पर सर्पाकृति चित्रकला है, जहां से दूध युक्त जल शिवलिंग पर टपकता रहता है।



इस गुफा में दो कक्ष हैं। बाहरी कक्ष कुछ बड़ा है, लेकिन भीतरी कक्ष छोटा है। बाहर वाले कक्ष से भीतरी कक्ष में जाने का रास्ता कुछ तंग और कम ऊंचाई वाला है जहां से झुक कर गुजरना पड़ता है। आगे चलकर यह रास्ता दो हिस्सों में बंट जाता है, जिसमें से एक के विषय में ऐसा विश्वास है कि यह कश्मीर जाता है। यह रास्ता अब बंद कर दिया गया है। दूसरा मार्ग गुफा की ओर जाता है, जहां स्वयंभू शिव की मूर्ति है। गुफा की छत पर सर्पाकृति चित्रकला है, जहां से दूध युक्त जल शिवलिंग पर टपकता रहता है।



यह स्थान रियासी-राजोरी सड़कमार्ग पर है, जो पौनी गांव से दस मील की दूरी पर स्थित है। शिवालिक पर्वत शृंखलाओं में अनेक गुफाएं हैं। ये गुफाएं प्राकृतिक हैं। कई गुफाओं के भीतर अनेक देवी-देवताओं के नाम की प्रतिमाएं अथवा पिंडियां हैं। उनमें कई प्रतिमाएं अथवा पिंडियां प्राकृतिक भी हैं। देव पिंडियों से संबंधित होने के कारण ये गुफाएं भी पवित्र मानी जाती हैं। 


डुग्गर प्रांत की पवित्र गुफाओं में शिव खोड़ी का नाम अत्यंत प्रसिद्ध है। यह गुफा तहसील रियासी के अंतर्गत पौनी भारख क्षेत्र के रणसू स्थान के नजदीक स्थित है। जम्मू से रणसू नामक स्थान लगभग एक सौ किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए जम्मू से बस मिल जाती है। यहां के लोग कटरा, रियासी, अखनूर, कालाकोट से भी बस द्वारा रणसू पहुंचते रहते हैं। रणसू से शिव खोड़ी छह किलोमीटर दूरी पर है। यह एक छोटा-सा पर्वतीय आंचलिक गांव है। इस गांव की आबादी तीन सौ के करीब है। यहां कई जलकुंड भी हैं। यात्री जलकुंडों में स्नान के बाद देव स्थान की ओर आगे बढ़ते हैं। देव स्थान तक सड़क बनाने की परियोजना चल रही है। रणसू से दो किलोमीटर सड़क मार्ग तैयार है। यात्री सड़क को छोड़ कर आगे पर्वतीय पगडंडी की ओर बढ़ते हैं। पर्वतीय यात्रा तो बड़ी ही हृदयाकर्षक होती है। यहां का मार्ग समृद्ध प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है। सहजगति से बहते जलस्त्रोत, छायादार वृक्ष, बहुरंगी पक्षी समूह पर्यटक यात्रियों का मन बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। चार किलोमीटर टेढ़ी-मेढ़ी पर्वतीय पगडंडी पर चलते हुए यात्री गुफा के बाहरी भाग में पहुंचते हैं। गुफा का बाह्‌य भाग बड़ा ही विस्तृत है। इस भाग में हजारों यात्री एक साथ खड़े हो सकते हैं। बाह्‌य भाग के बाद गुफा का भीतरी भाग आरंभ होता है। यह बड़ा ही संकीर्ण है। यात्री सरक-सरक कर आगे बढ़ते जाते हैं। कई स्थानों पर घुटनों के बल भी चलना पड़ता है।

 गुफा के भीतर भी गुफाएं हैं, इसलिए पथ प्रदर्शक के बिना गुफा के भीतर प्रवेश करना उचित नहीं है। गुफा के भीतर दिन के समय भी अंधकार रहता है। अत: यात्री अपने साथ टॉर्च या मोमबत्ती जलाकर ले जाते हैं। गुफा के भीतर एक स्थान पर सीढ़ियां भी चढ़नी पड़ती हैं, तदुपरांत थोड़ी सी चढ़ाई के बाद शिवलिंग के दर्शन होते हैं। शिवलिंग गुफा की प्राचीर के साथ ही बना है। यह प्राकृतिक लिंग है। इसकी ऊंचाई लगभग एक मीटर है। शिवलिंग के आसपास गुफा की छत से पानी टपकता रहता है। यह पानी दुधिया रंग का है। उस दुधिया पानी के जम जाने से गुफा के भीतर तथा बाहर सर्पाकार कई छोटी-मोटी रेखाएं बनी हुई हैं, जो बड़ी ही विलक्षण किंतु बेहद आकर्षक लगती हैं। गुफा की छत पर एक स्थान पर गाय के स्तन जैसे बने हैं, जिनसे दुधिया पानी टपक कर शिवलिंग पर गिरता है। शिवलिंग के आगे एक और भी गुफा है। यह गुफा बड़ी लंबी है। इसके मार्ग में कई अवरोधक हैं। लोक श्रुति है कि यह गुफा अमरनाथ स्वामी तक जाती है।

यहाँ है चमत्कारी पानी

यह बात बहुत ही कम लोग जानते हैं कि इस गुफा का पानी, एक बूंद भी अमृत के समान बताई गयी है. साधू संत गुफा के पानी से ही तंत्र-मन्त्र साधना की प्राप्ति कर लेते थे. कई साधू तो इसी जल को पीकर सालों तक जिन्दा रहे हैं. लेकिन आज इस बात को छुपा दिया गया है या फिर किसी ने गुफा के पानी का महत्व जानने की कोशिश ही नहीं की है. तो अब अगर आप कभी शिवखोड़ी जा रहे हैं तो यहाँ के चमत्कारी जल का उपयोग अपने सही लाभ के लिए जरूर करें.

शिवखोड़ी गुफा का शिवलिंग खुद से प्रकट हुआ माना जाता है. देश से दूर-दूर से साधू संत इस शिवलिंग की पूजा करने आते हैं. हजारों सालों पहले जब साधू यहाँ से गुजरते थे तो उनके अनुसार कोई शिवलिंग यहाँ नहीं होता था. किन्तु एक बार अचानक से ही गुफा में शिवलिंग पाया गया जो पूरी तरह से प्राकृतिक दिखता है.

गुफा क्यों है रहस्मयी


इस गुफा का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि यहाँ पर एक निश्चित दूरी तय करने के बाद अन्दर जाना मना है. काफी साल पहले कुछ लोगों ने इस बात को नहीं माना था. वह अमरनाथ इसी गुफा से जाना चाहते थे. वह गये तो लेकिन ना अमरनाथ पहुंचे और ना ही लौटकर वापस आये. तबसे गुफा में किसी ने आगे जाने की कोशिश नहीं की है.

कुछ साधू बताते हैं कि शिव द्वापर युग में सबको यहाँ दर्शन देते थे किन्तु कलयुग में उन्होंने सबको यहाँ पर आने से मना कर दिया है. साधू-संत जानते हैं इसलिए वह शिव की बात नहीं टालते हैं. किन्तु कुछ जिद्दी लोग अहंकार में नियम तोड़ते हैं तो इसकी सजा भी वह पाते हैं. यह बात कितनी सत्य है यह कहना तो मुश्किल है.

बात कुछ भी हो लेकिन गुफा की रहस्मयी ताकत को आप यहाँ जाने के बाद महसूस कर सकते हैं. तो जम्मू कभी जायें तो शिवखोड़ी में शिव के दर्शन करना कभी ना भूलें.


गुरुवार, 27 सितंबर 2018

हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है








हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है। मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती और वह भूत के रूप में इस संसार में ही रह जाता है।



पितृ पक्ष का महत्त्व 
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष श्राद्ध होते हैं। मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें।


श्राद्ध क्या है? 
ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों को तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है। पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है।

क्यों जरूरी है श्राद्ध देना?
मान्यता है कि अगर पितर रुष्ट हो जाए तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पितरों की अशांति के कारण धन हानि और संतान पक्ष से समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। संतान-हीनता के मामलों में ज्योतिषी पितृ दोष को अवश्य देखते हैं। ऐसे लोगों को पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

क्या दिया जाता है श्राद्ध में?
श्राद्ध में तिल, चावल, जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है। श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई, पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है।

श्राद्ध में कौओं का महत्त्व ?
कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता तो वह रुष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है।


किस तारीख में करना चाहिए श्राद्ध?
सरल शब्दों में समझा जाए तो श्राद्ध दिवंगत परिजनों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना है। अगर किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा को हुई हो तो उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही किया जाता है। इसी प्रकार अन्य दिनों में भी ऐसा ही किया जाता है। इस विषय में कुछ विशेष मान्यता भी है जो निम्न हैं:
* पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाता है।
* जिन परिजनों की अकाल मृत्यु हुई जो यानि किसी दुर्घटना या आत्महत्या के कारण हुई हो उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।
* साधु और संन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन किया जाता है।
* जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है। इस दिन को सर्व पितृ श्राद्ध कहा जाता है।

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

भीमशंकर ज्योतिर्लिंग- कुंभकर्ण के पुत्र को मार कर यहां स्थापित हुए थे भगवान शिव



भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में भीमाशंकर का स्थान छठा है। यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पुणे से लगभग 110 किमी दूर सहाद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के पीछे कुंभकर्ण के पुत्र भीम की एक कथा प्रसिद्ध है।


ऐसे हुई थी यहां ज्योतिर्लिंग की स्थापना

कहा जाता है कि कुंभकर्ण के एक पुत्र का नाम भीम था। कुंभकर्ण को कर्कटी नाम की एक महिला पर्वत पर मिली थी। उसे देखकर कुंभकर्ण उस पर मोहित हो गया और उससे विवाह कर लिया। विवाह के बाद कुंभकर्ण लंका लौट आया, लेकिन कर्कटी पर्वत पर ही रही। कुछ समय बाद कर्कटी को भीम नाम का पुत्र हुआ। जब श्रीराम ने कुंभकर्ण का वध कर दिया तो कर्कटी ने अपने पुत्र को देवताओं के छल से दूर रखने का फैसला किया।


बड़े होने पर जब भीम को अपने पिता की मृत्यु का कारण पता चला तो उसने देवताओं से बदला लेने का निश्चय कर लिया। भीम ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके उनसे बहुत ताकतवर होने का वरदान प्राप्त कर लिया। कामरूपेश्वप नाम के राजा भगवान शिव के भक्त थे। एक दिन भीम ने राजा को शिवलिंग की पूजा करते हुए देख लिया। भीम ने राजा को भगवान की पूजा छोड़ उसकी पूजा करने को कहा। राजा के बात न मानने पर भीम ने उन्हें बंदी बना लिया। राजा ने कारागार में ही शिवलिंग बना कर उनकी पूजा करने लगा। जब भीम ने यह देखा तो उसने अपनी तलवार से राजा के बनाए शिवलिंग को तोड़ने का प्रयास किया। ऐसा करने पर शिवलिंग में से स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गए। भगवान शिव और भीम के बीच घोर युद्ध हुआ, जिसमें भीम की मृत्यु हो गई। फिर देवताओं ने भगवान शिव से हमेशा के लिए उसी स्थान पर रहने की प्रार्थना की। देवताओं के कहने पर शिव लिंग के रूप में उसी स्थान पर स्थापित हो गए। इस स्थान पर भीम से युद्ध करने की वजह से इस ज्योतिर्लिंग का नाम भीमशंकर पड़ गया।

ऐसा है मंदिर का स्वरूप

भीमशंकर मंदिर बहुत ही प्राचीन है, लेकिन यहां के कुछ भाग का निर्माण नया भी है। इस मंदिर के शिखर का निर्माण कई प्रकार के पत्थरों से किया गया है। यह मंदिर मुख्यतः नागर शैली में बना हुआ है। मंदिर में कहीं-कहीं इंडो-आर्यन शैली भी देखी जा सकती है।


मंदिर की दीवारों की कलाकारी




भीमशंकर मंदिर से पहले ही शिखर पर देवी पार्वती का एक मंदिर है। इसे कमलजा मंदिर कहा जाता है। मान्यता है कि इसी स्थान पर देवी ने राक्षस त्रिपुरासुर से युद्ध में भगवान शिव की सहायता की थी। युद्ध के बाद भगवान ब्रह्मा ने देवी पार्वती की कमलों से पूजा की थी।



मंदिर के पास स्थित है कई कुंड।



यहां के मुख्य मंदिर के पास मोक्ष कुंड, सर्वतीर्थ कुंड, ज्ञान कुंड, और कुषारण्य कुंड भी स्थित है। इनमें से मोक्ष नामक कुंड को महर्षि कौशिक से जुड़ा हुआ माना जाता है और कुशारण्य कुंड से भीम नदी का उद्गम माना जाता है।

कब जाएं


भीमशंकर ज्योतिर्लिंग जाने के लिए साल का कोई भी समय चुना जा सकता है। महाशिवरात्रि के समय यहां पर विशेष मेला लगता है।

भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के आस-पास घूमने के स्थान

1. हनुमान तालाब- भीमशंकर मंदिर से कुछ दूरी पर हनुमान तालाब नामक स्थान है।
2. गुप्त भीमशंकर- भीमशंकर मंदिर से कुछ दूरी पर गुप्त भीमशंकर स्थित है।
3. कमलजा देवी- भीमशंकर मंदिर से पहले देवी पार्वती का कमलजा नामक एक मंदिर है।

गुरुवार, 13 सितंबर 2018

गणेश को मातृ पितृ भक्ति ने बनाया दिया प्रथम पूज्य




हम सभी जानते है की हमारे सभी मंगल कार्यो में हम सबसे पहले भगवान गणेश की पूजा करते है | उन्हें निमंत्रण देते है और अपने सभी कार्यो को निर्विघ्नं सम्पन्न करने की विनती करते है | इन्हे सबसे पहले पूजे जाने वाले देवता का वरदान प्राप्त है | इसके पीछे दो कथाये जुडी हुई है |

भगवान श्री गणेश मंगल करने वाले हैं। वे विघ्न व बाधाओं का हरण करते हैं इसलिए विघ्नहर्ता कहे जाते हैं। शिव-पार्वती के पुत्र गणेश ज्ञान व बुद्धि के देवता हैं तो मातृ व पितृ भक्ति के पर्याय भी हैं। पूरे भारत में उन्हें प्रथम पूज्य देव का मान प्राप्त है। हर शुभ कार्य में श्री गणेश का वंदन सबसे पहले किया जाता है।

भाद्रपक्ष शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को दोपहर 12 बजे जन्में श्री गणेश को सभी देवताओं का सम्मान व शक्तियां प्राप्त हैं।

पहली कथा में बताया गया है की इन्हे यह वरदान इनके माता पिता भगवान शिव और पार्वती से प्राप्त हुआ | उन्होंने अपने मातृ पितृ भक्ति और सेवा में उन्हें ही अपना सर्वश्य मान कर परिक्रमा की की | ऐसी भक्ति और सेवा देखकर उन्हें प्रथम पूज्य होने का वरदान दिया गया |

ब्रह्मा जी जब ‘देवताओं में कौन प्रथम पूज्य हो’ इसका निर्णय करने लगे, तब यह तय किया गया कि जो पृथ्वी-प्रदक्षिणा सबसे पहले करके आएगा वही सबसे पहले पूज्य माना जाएगा। गणेश जी का छोटा सा मूषक कैसे सबसे आगे दौड़े। पर वे थे बुद्धि के महान देवता | उन्होंने युक्ति निकाली और अपने पिता और माता भगवान शंकर और पार्वती जी की प्रदक्षिणा करने लगे । उनके लिए उनके माता-पिता ही सब कुछ थे | उन्होंने सात प्रदक्षिणा कर ली। शिवजी का ह्रदय यह देखकर गदगद हो गया और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। जाहिर है भगवान गणेश शेष देवताओं से सबसे पहले पहुंचे। उनका यह बुद्धि-कौतुक देखकर भगवान ब्रह्मा ने उन्हें प्रथम पूज्य बनाया।


दूसरी कथा में बताया गया है की जब शिव ने गणेश का सिर काटा था तब माँ पार्वती अत्यंत रूद्र हो गयी थी | तीनो लोको में त्राहिमाम त्राहिमाम हो गया था | सभी देवी देवता कैलाश पर एकत्रित हो गये | उमा ने शिव जी ने अपने पुत्र को पूण्य जीवित करने की मांग कर ली | शिव आदेश पर गणेश के कटे सिर की जगह हाथी के बच्चे का सिर लगाया गया और गणेश फिर से जीवित हो गये | तब सभी देवी देवताओ ने उन्हें लाड किया और तरह तरह के वरदान दिए | उनमे से एक वरदान प्रथम पूज्य होने का भी गणपति को प्राप्त हुआ |

गुरुवार, 6 सितंबर 2018

अंजनी महादेव



धरती पर दूसरा स्थान जहां बनता है बर्फ का शिवलिंग, अमरनाथ से भी बड़ा होता बाबा का स्वरूप

बाबा भोलनाथ के भक्त इस शिवलिंग को अमरनाथ जितना ही शक्तिशाली मानते हैं और यहां अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए दर्शन को आते है.

मनाली की पहाड़ियों में भी प्रकट होते हैं बाबा बर्फानी, बनता है 30-40 फुट का शिवलिंग

पहाड़ों में बाबा भोलेनाथ के दर्शन केवल जम्मू कश्मीर के अमरनाथ और उत्तराखंड के केदारनाथ धाम में ही नहीं होते हैं. अब हिमाचल प्रदेश की पहाड़ों में भी बाबा भोलेनाथ प्रकट हुए है. जी हां यहां अमरनाथ की भांति भोलेनाथ बाबा बर्फानी के रूप में प्रकट हुए है. हिमाचल में मनाली कुछ ही दूरी पर पहाड़ियों के बीच बर्फ का इतना विशालकाय शिवलिंग बनता है जिसके दर्शन के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं.


इतिहास

पौरणिक मान्यताओं के अनुसार जिस जगह यह शिवलिंग बनता है वह भूमि भगवान हनुमान की माता अंजनी की तपोस्थली मानी जाती है और इसीलिए इस विशालकाय शिवलिंग को अंजनी महादेव कहा जाता है.बताया जाता है कि माता अंजनी इस स्थान पर बनते शिवलिंग की पूजा व तपस्या करती थी तथा इस गुप्त स्थान के बारे में किसी को भी पता नहीं था लेकिन बाबा के लोगों को बताने के बाद से ही अबतक दूर-दूर से श्रद्धालु बड़ी संख्या में बाबा के इस विशाल रूप को देखने आते है.



यहां बाबा भोलेनाथ का शिवलिंग स्वरूप करीब 30-40 फुट का होता है. ऐसी मान्यता है कि धरती पर भगवान का बर्फ से बनने वाला यह दूसरी शिवलिंग है. मनाली से सोलंग वैली पहुंचने के बाद करीब दो किलोमीटर की अंजनी महादेव की यात्रा शुरू हो जाती है.



यह पूरी यात्रा पहाड़ों पर पैदल चलकर या घोड़ों के जरिए ही तय की जाती है. शिवलिंग के साथ ही पहाड़ के नीचे बाबा की कुटिया है जिसमें पिछले कुछ सालों से बाबा प्रकाश पुरी बारह माह सर्दी व गर्मी में यहां रहते थे कुछ वर्ष पहले उनकी मृत्यु के बाद बाबा के शिष्य अब इस कुटिया में रहकर बाबा भोलनाथ की पूजा करते है. गौरतलब है कि अमरनाथ के शिवलिंग की उंचाई लगभग 22 फीट होती है लोग कई दिनों की कठिन यात्रा कर बाबा के दर्शन करते हैं लेकिन इस अंजनी महादेव में बनने वाले शिवलिंग के दर्शन के लिए आप मनाली के सोलंग वैली में पहुंच कर कुछ की घंटों में कर सकते है. बताया जाता है कि माता अंजनी इस स्थान पर बनते शिवलिंग की पूजा व तपस्या करती थी तथा इस गुप्त स्थान के बारे में किसी को भी पता नहीं था लेकिन बाबा के लोगों को बताने के बाद से ही अब तक दूर-दूर से श्रद्धालु बड़ी संख्या में बाबा के इस विशाल रूप को देखने आते है.

बाबा भोलनाथ के भक्त इस शिवलिंग को अमरनाथ जितना ही शक्तिशाली मानते हैं और यहां अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए दर्शन को आते है. यहां बाबा के बर्फ रूपी स्वरूप के दर्शन के चलते हर वर्ष दिसंबर, जनवरी, फरवरी व मार्च तक श्रद्धालु 2 कि.मी. की यात्रा कर यहां पहुंचते हैं. खुले आसमान में दिसंबर माह में ही इस स्थान में यह शिवलिंग रूप लेना शुरू कर देता है तथा जनवरी माह तक पूर्ण रूप लेकर यह शिवलिंग की उंचाई लगभग 35 से 40 फीट हो जाती है.